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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 15
    ऋषिः - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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    शिरो॒ हस्ता॒वथो॒ मुखं॑ जि॒ह्वां ग्री॒वाश्च॒ कीक॑साः। त्व॒चा प्रा॒वृत्य॒ सर्वं॒ तत्सं॒धा सम॑दधान्म॒ही ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शिर॑: । हस्तौ॑ । अथो॒ इति॑ । मुख॑म् । जि॒ह्वाम् । ग्री॒वा: । च॒ । कीक॑सा: । त्व॒चा । प्र॒ऽआ॒वृत्य॑ । सर्व॑म् । तत् । स॒म्ऽधा । सम् । अ॒द॒धा॒त् । म॒ही ॥१०.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिरो हस्तावथो मुखं जिह्वां ग्रीवाश्च कीकसाः। त्वचा प्रावृत्य सर्वं तत्संधा समदधान्मही ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शिर: । हस्तौ । अथो इति । मुखम् । जिह्वाम् । ग्रीवा: । च । कीकसा: । त्वचा । प्रऽआवृत्य । सर्वम् । तत् । सम्ऽधा । सम् । अदधात् । मही ॥१०.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (हस्तौ) दोनों हाथों, (शिरः) शिर, (अथो) और भी (मुखम्) मुख, (जिह्वाम्) जीभ, (ग्रीवाः) गले की नाड़ियों, (च) और (कीकसाः) हंसली की हड्डियों (तत् सर्वम्) इस सबको (त्वचा) खाल से (प्रावृत्य) ढक कर (मही) बड़ी (संधा) जोड़नेवाली [शक्ति, परमेश्वर] ने (सम् अदधात्) मिला दिया ॥१५॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने तत्त्वों के संयोग-वियोग से प्राणियों के अङ्गों को बनाकर और ऊपर से खाल में लपेट कर एक दूसरे में मिला दिया है। यह गत मन्त्र का उत्तर है ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(जिह्वाम्) रसनाम् (ग्रीवाः) अ० २।३३।२। कन्धरावयवान् (च) (कीकसाः) अ० २।३३।२। जत्रुवक्षोगतास्थीनि (त्वचा) चर्मणा (प्रावृत्य) आच्छाद्य (सर्वम्) (तत्) पूर्वोक्तम् (सन्धा) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।१।१३६। इति संदधातेः कर्तरि-क प्रत्ययः। सन्धानकर्त्री शक्तिः परमेश्वरः (मही) महती। अन्यत् पूर्ववत्-म० १४ ॥

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    विषय

    महती संधा

    पदार्थ

    १. (शिर:) = मुर्धा को, (हस्तौ) = हाथों को, (अथो मुखम्) = और मुख को, (जिह्वाम्) = जिह्वा को, (ग्रीवाः च) = गर्दन के मोहरों को, (च कीकसा:) = और अन्य अस्थियों को (त्वचा प्रावृत्य) = चर्म से आच्छादन करके (सर्वं तत्) = उस सब अंगसमूह को (मही सन्धा) = महनीय प्रभु की सन्धानशक्ति [संधानकी देवता] (समदधात्) = संहित, परस्पर संश्लिष्ट, स्वस्वव्यापारक्षम करनेवाली हुई।

    भावार्थ

    प्रभु की संधानशक्ति ने सब अंग-प्रत्यंगों को त्वचा से आवृत करके परस्पर संश्लिष्ट कर दिया।

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    भाषार्थ

    (शिरः, हस्तौ, अथो, मुखम्) सिर, दोनों हाथों और मुख को, (जिह्वां, ग्रीवाश्च, कीकसाः) जीभ, गर्दन की नस-नाड़ियों, रीड की हड्डियों को, (तत् सर्वम्) उस सब को, (त्वचा प्रावृत्य) त्वचा द्वारा बेष्टित कर के, (मही संधा) जोड़ने वाली बड़ी शक्ति ने (समदधात्) परस्पर जोड़ दिया है।

    टिप्पणी

    [संधा= सन्धि पैदा करने वाली पारमेश्वरी शक्ति]

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    विषय

    मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (संधा) समस्त अंगों को जोड़ने वाली शक्ति का नाम ‘संधा’ है। (मही) वह बड़ी भारी ‘संघा’ शक्ति है। जिसने (शिरः हस्तौ मुखम् जिह्वां ग्रीवाश्च अथो कीकसाः) शिर, दो हाथ, मुख, जीभ, गर्दन के मोहरे और कीकस = पीठ के मोहरे (तत् सर्वं) इन सब शरीर के अंगों को (त्वचा प्रावृत्य) त्वचा, चमड़े से मढ़ कर (सम् अदधात्) एकत्र जोड़ कर रखा है। वह (मही संधा) बड़ी भारी ‘संधा’ नाम की ईश्वरी शक्ति है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘वयो बाहू’ (तृ०) ‘तत् सर्व’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Constitution of Man

    Meaning

    The great creative-structurist power of Jyeshtha Brahma put together and joined head, hands, mouth, the tongue, neck and the neck and collar bones, and having bound and covered all with the skin made up the body for the living spirit.

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    Translation

    Head, hands, also face, tongue and neck, vertebrae -- all that having enveloped with skin, the great puttings-together put together.

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    Translation

    This great brilliant power is Sandha the conjoining power of God, Which conjoins the head, both the hands, mouth tongue, neck and inter costal parts. It investing all this with skin conjoins with bond and tie.

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    Translation

    The mighty uniting force of God, hath conjoined together, head, both the hands, face, tongue, neck, and intercostals parts, investing them all with skin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(जिह्वाम्) रसनाम् (ग्रीवाः) अ० २।३३।२। कन्धरावयवान् (च) (कीकसाः) अ० २।३३।२। जत्रुवक्षोगतास्थीनि (त्वचा) चर्मणा (प्रावृत्य) आच्छाद्य (सर्वम्) (तत्) पूर्वोक्तम् (सन्धा) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।१।१३६। इति संदधातेः कर्तरि-क प्रत्ययः। सन्धानकर्त्री शक्तिः परमेश्वरः (मही) महती। अन्यत् पूर्ववत्-म० १४ ॥

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