अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
ऋषिः - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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तप॑श्चै॒वास्तां॒ कर्म॑ चा॒न्तर्म॑ह॒त्यर्ण॒वे। तपो॑ ह जज्ञे॒ कर्म॑ण॒स्तत्ते ज्ये॒ष्ठमुपा॑सत ॥
स्वर सहित पद पाठतप॑: । च॒ । ए॒व । आ॒स्ता॒म् । कर्म॑ । च॒ । अ॒न्त: । म॒ह॒ति । अ॒र्ण॒वे । तप॑: । ह॒ । ज॒ज्ञे॒ । कर्म॑ण: । तत् । ते । ज्ये॒ष्ठम् । उप॑ । आ॒स॒त॒ ॥१०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
तपश्चैवास्तां कर्म चान्तर्महत्यर्णवे। तपो ह जज्ञे कर्मणस्तत्ते ज्येष्ठमुपासत ॥
स्वर रहित पद पाठतप: । च । एव । आस्ताम् । कर्म । च । अन्त: । महति । अर्णवे । तप: । ह । जज्ञे । कर्मण: । तत् । ते । ज्येष्ठम् । उप । आसत ॥१०.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(तपः) तप [ईश्वर का सामर्थ्य] (च च) और (कर्म) कर्म [प्राणियों के कर्म का फल] (एव) ही (महति अर्णवे अन्तः) बड़े समुद्र [परमेश्वर के गम्भीर सामर्थ्य] के भीतर (आस्ताम्) दोनों थे। (तपः) तप [ईश्वर का सामर्थ्य] (ह) निश्चय करके (कर्मणः) कर्म [कर्म के फल अनुसार शरीर, स्वभाव आदि रचना] से (जज्ञे) प्रकट हुआ है, (तत्) सो (ते) उन्होंने [ऋतु आदिकों ने-म० ५] (ज्येष्ठम्) सर्वश्रेष्ठ परमात्मा को (उप आसत) पूजा है ॥६॥
भावार्थ
प्रलय में प्राणियों के कर्म फल और ईश्वरसामर्थ्य भी ईश्वर सामर्थ्य में रक्षित थे। फिर सृष्टिकाल में कर्मफलों के अनुसार प्राणियों के विविध प्रकार शरीर और स्वभाव प्रकट हुए। उससे परमात्मा ही सर्वनियन्ता प्रतीत हुआ ॥६॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध ऊपर म० २ में आ चुका है ॥
टिप्पणी
६−(तपः) ईश्वरसामर्थ्यम् (ह) एव (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (कर्मणः) कर्मफलानुसारेण शरीरस्वभावादिरचनारूपात् कर्मसकाशात् (तत्) तदा (ते) ऋतुधात्रादयः-म० ५। (ज्येष्ठम्) सर्वोत्कृष्टं परमात्मानम् (उपासत) पूजितवन्तः। अन्यत् पूर्ववत्-म० २ ॥
विषय
कर्मरूप सृष्टि का मूलकारण
पदार्थ
१. (ऋतव:) = वसन्त आदि ऋतुएँ उस सृष्टि के समय में अभी (अजाताः आसन्) = उत्पन्न न हुई थीं। (अथो) = और (धाता) = सबका धारण करनेवाला 'सूर्य' (बृहस्पति:) = [बृहन् चासौ पतिः] वृद्धि का कारणभूत रक्षक 'वायु' भी न था। (इन्द्र-अग्नी) = मेघ [विद्युत] व अग्नि भी न थे। (अश्विना) = दिन व रात [नि०१।२।१] भी न थे। ये 'धाता, बृहस्पति, इन्द्राग्नी, अश्विना' नामक छह ऋतुओं के अधिपति भी न थे। (ते) = वे सब धाता आदि अपनी उत्पत्ति के लिए (कम्) = किस (ज्येष्ठम्) = सबसे बड़े कारणभूत जनयिता की (उपासत) = उपासना करते थे? २. उत्तर देते हुए कहते हैं कि (महति अर्णवे अन्तः) = महान् प्रकृति के अणु-समुद्र में (तपः च एव) = जगत् स्रष्टा ईश्वर का स्रष्टव्य पर्यालोचनात्मक तप ही और (कर्म च) = कल्पान्तर में प्राणियों से अनुष्ठित फलोन्मुख परिपक्व कर्म ही (आस्ताम्) = थे। २. वस्तुतः (तप) = प्रभु का पर्यालोचनात्मक तप भी (ह) = निश्चय से (कर्मण:) = कल्पान्तर में प्राणियों से किये हुए कर्म से ही (जज्ञे) = प्रादुर्भूत हुआ। यदि प्राणियों के कर्म न होते तो स्वमहिम प्रतिष्ठ असंग व उदासीन प्रभु सृष्ट्युन्मुख होते ही नहीं और तब यह स्रष्टव्य पर्यालोचनात्मक तप भी न होता। एवं तप भी कर्म से पैदा हुआ, अत: (ते) = वे धाता आदि (तत्) = उस कर्म की ही (ज्येष्ठम्) = वृद्धतम सृष्टि के कारण के रूप में (उपासते) = उपासना करते हैं। कर्म को ही मूलकारण जानते हैं।
भावार्थ
सृष्टि के प्रारम्भ में अभी न ऋतुएँ थी न इनके अधिपति थे। वे अधिपति समझते हैं कि तप व कर्म से सृष्टि होती है। तप भी तो कर्म से होता है, अत: मूल कारण कर्म ही है।
भाषार्थ
(महति अर्णवे अन्तः) प्रलयरूपी महासमुद्र के भीतर (तपः च, कर्म च एव, आस्ताम्) तप और कर्म ही विद्यमान थे। (तपः) तप (ह) निश्चय से (कर्मणः) कर्म से (जज्ञे) उत्पन्न हुआ, (ते) वे ऋतु आदि (तत्) उस कर्मरूपी (ज्येष्ठम्) बड़ी शक्ति की (उपासत) उपासना करते थे, प्रार्थना या प्रतीक्षा करते थे [स्वोत्पत्ति के लिये]। अथवा उपासना= समीप स्थित होना। ऋतु आदि मानुष और अन्य प्राणियों के कर्मों के सान्निध्य में थे, स्वोत्पत्ति के लिये।
टिप्पणी
[ब्रह्म, सृष्ट्युत्पादन में पूर्वसृष्टि में किये जीवों के कर्मों के परिपाक की प्रतीक्षा करता है। ब्रह्म का, स्रष्टव्य जगत् सम्बन्धी जो पर्यालोचन रूपी तप अर्थात् ज्ञान है, उस का प्रादुर्भाव भी जीवात्माओं के कर्मों के परिपाक के कारण ही है। इसलिये जीवात्माओं के सामूहिक कर्म, सृष्ट्युत्पादन में, ज्येष्ठशक्तिरूप हैं। अर्थात् ब्रह्म के तप और कर्म में, जीवात्माओं के कर्मों का प्राधान्य है। "कर्मप्रधान विश्वकरि राखा। जो जस करे सो तस फल चाखा"]।
विषय
मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(महति अर्णवे अन्तः) उस महान् अर्णव अर्थात् समुद्र रूप परमेश्वर में (तपः च एव) केवल तप और (कर्म च) कर्म अर्थात् क्रिया (आस्ताम्) ये दो ही पदार्थ विद्यमान थे। और (तपः ह) वह तप भी (कर्मणः जज्ञे) कर्म अर्थात् क्रिया से उत्पन्न हुआ था। (तत्) उस कर्म को ही (ते) वे पूर्वोक्त ऋतु आदि अनुत्पन्न पदार्थ अपनी उत्पत्ति के पूर्व में (ज्येष्ठम् उपासते) अपने में सर्वश्रेष्ठ मान कर उस परम शक्तिमान् की उपासना करते थे, उसके आश्रित थे, उसी में लीन थे।
टिप्पणी
(च०) ‘उपासते’ इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Constitution of Man
Meaning
Tapa and Karma were there in the mighty deep ocean of silence present with Jyeshtha Brahma. Tapa was born of Karma. They, Dhata and others, abided with Karma, the will of Jyeshtha Brahma to be generated in the due course of Prakrtic evolution. (For Mahad-amava refer to Rgveda, 10, 190, 1: Rtam and Satyam were generated from Tapa enkindled by the will and thought of Jyeshtha Brahma, then was generated Ratri, Night and Darkness, and then was generated Samudro’ arnava, the mighty ocean.)
Translation
Both penance, namely, and action were within the great sea; penance was born from action; that did they worship as Chief.
Translation
There are first heat and action in the vast space full of cosmic dust. This heat springs out from the action and this action (originated by divinity) which they accept as Supreme Power.
Translation
Fervour and action both were under the control of Mighty God. Fervour sprang up from Action. They served and worshipped this God as supreme.
Footnote
They: Seasons etc., mentioned in the previous, when they were still in their nascent state in the beginning of the universe when God brings Cosmos out of chaos.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(तपः) ईश्वरसामर्थ्यम् (ह) एव (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (कर्मणः) कर्मफलानुसारेण शरीरस्वभावादिरचनारूपात् कर्मसकाशात् (तत्) तदा (ते) ऋतुधात्रादयः-म० ५। (ज्येष्ठम्) सर्वोत्कृष्टं परमात्मानम् (उपासत) पूजितवन्तः। अन्यत् पूर्ववत्-म० २ ॥
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