Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 8 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 29
    ऋषिः - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    0

    अस्थि॑ कृ॒त्वा स॒मिधं॒ तद॒ष्टापो॑ असादयन्। रेतः॑ कृत्वाज्यं॑ दे॒वाः पुरु॑ष॒मावि॑शन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्थि॑ । कृ॒त्वा । स॒म्ऽइध॑म् । तत् । अ॒ष्ट । आप॑: । अ॒सा॒द॒य॒न् । रेत॑: । कृ॒त्वा । आज्य॑म् । दे॒वा: । पुरु॑षम् । आ । अ॒वि॒श॒न् ॥१०.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्थि कृत्वा समिधं तदष्टापो असादयन्। रेतः कृत्वाज्यं देवाः पुरुषमाविशन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्थि । कृत्वा । सम्ऽइधम् । तत् । अष्ट । आप: । असादयन् । रेत: । कृत्वा । आज्यम् । देवा: । पुरुषम् । आ । अविशन् ॥१०.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 29
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (आपः) व्यापक (देवाः) दिव्य गुणों [ईश्वरनियमों] ने (तत्) फिर (अस्थि) हड्डी को (समिधम्) समिधा [इन्धन समान पाकसाधन] (कृत्वा) बनाकर और (रेतः) वीर्य [वा स्त्रीरज] को (आज्यम्) घृत [घृत समान पुष्टिकारक] (कृत्वा) बनाकर (अष्ट) आठ प्रकार से [रस अर्थात् खाये अन्न का सार, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा, वीर्य, वा स्त्रीरज इन सात धातुओं और मन के द्वारा] (पुरुषम्) पुरुष [प्राणी के शरीर] को (असादयन्) चलाया, और [उस में] (आ अविशन्) उन्होंने प्रवेश किया ॥२९॥

    भावार्थ

    सर्वव्यापक परमेश्वर ने अपनी शक्ति के प्रवेश से प्रधानता से हड्डियों को काष्ठ रूप अन्न आदि के पाक का साधन और पुरुष के वीर्य वा स्त्री के रज को घृत समान पुष्टिकारक बनाकर रस, रक्त, मांस आदि सात धातुओं और मन के द्वारा प्राणियों के शरीर को कार्ययोग्य किया है ॥२९॥

    टिप्पणी

    २९−(अस्थि) (कृत्वा) निर्माय (समिधम्) समिन्धनसाधनं शरीरपरिपाकस्य निमित्तम् (तत्) तदा (अष्ट) अष्टधा। रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राणि धातवः-इत्येते सप्तधातवो मनश्चेत्येभिः (आपः) आपः=आपनाः-निरु० १२।३७। व्यापकाः (असादयन्) म० २८। प्रेरितवन्तः (रेतः) वीर्यं स्त्रीरजो वा (कृत्वा) (आज्यम्) घृतवत्पुष्टिकरम् (देवाः) दिव्याः परमेश्वरगुणाः (पुरुषम्) प्राणिशरीरम् (आ अविशन्) प्रविष्टवन्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अस्थि-समिधा, रेतस्-आज्य

    पदार्थ

    १. (अस्थि) = अस्थि-[हड्डी]-समूह को (समिधं कृत्वा) = समिन्धनसाधन [शरीरपरिपाक का निमित्त] बनाकर (आप:) = शरीरस्थ जलों ने (तत् अष्ट) = उन आठ धातुओं को [रस, रुधिर, मांस, मेदस्, अस्थि, मज्जा, वीर्य व ओज] (असादयन्) = शरीर में स्थापित किया और रेत:-वीर्य को हो (आज्यं कृत्वा) = जीवन-यज्ञ का घृत बनाकर (देवा:) = इन्द्रियों के अधिष्ठातृदेवों ने (पुरुषम् आविशन्) = पुरुष शरीर में प्रवेश किया।

    भावार्थ

    यह जीवन एक 'जरामर्य प्राणाग्निहोत्र' है। अस्थियों ही इसमें समिधाएँ हैं तथा वीर्य घृत है। अग्नि आदि देव इस शरीर में स्थित होकर इस जीवन-यज्ञ को चला रहे हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (अस्थि) शरीर की हड्डियों को (समिधम् कृत्वा) समिधा कर के (तत्) उस शरीर में (अष्ट अपः) आठ प्रकार के जलों को (असादयन्) देवों ने स्थापित किया। और (रेतः) वीर्य को (आज्यम् कृत्वा) घृत कर के (देवाः) देव (पुरुषम्) पुरुष में (आ विशन्) आ प्रविष्ट हुए।

    टिप्पणी

    [समिधम्, आपः, आज्यम्, देवाः,-पदों द्वारा शरीर को यज्ञशाला का रूप दिया है और शारीरिक पवित्र जीवन को यज्ञमय दर्शाया है। मन्त्र २८ और २९ में 'असादयन्', तथा अपः और आपः पदों के सन्निवेश से दोनों मन्त्रों को परस्पर समन्वित प्रदर्शित किया है। मन्त्र २९ में अष्टे० आपः द्वारा ८ प्रकार के जलों का निर्देश किया है, जिन का कि वर्णन मन्त्र २८ में हुआ है। "अद्भ्यः संभृतः" पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्त्तताग्रे" (यजु० ३१।१७) में शरीर की रचना जल, पृथिवी और रस द्वारा कही है। अतः "गुह्याः" पद द्वारा शरीर के घटक जलों का ग्रहण, वेदानुमोदित है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (अष्ट आपः) आठों प्रकार के रस, ‘आस्तेयी’ आदि (तत्) उस शरीर में (अस्थि समिधं कृत्वा) हड्डियों को समिधा बनाकर (असा- दयन्) प्राप्त होते हैं। और (रेतः आज्यं कृत्वा) इस शरीर में रेतस् = वीर्य को ‘आज्य’ घृत बनाकर (देवाः) प्राण आदि देव (पुरुषम् आविशन्) इस पुरुष देह में प्रविष्ट हो गये। वे इस पुरुष-देह रूप वेदी में प्रविष्ट होकर जसमर्य ‘प्राणाग्निहोत्र’ करते हैं। जिसकी व्याख्या अथर्ववेदीय ‘प्राणाग्निहोत्रोपनिषत्’ में देखिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Constitution of Man

    Meaning

    Having made the bones as fuel wood for fire, the divinities placed eight orders of water in the body, and having made the vital fluid as ghrta for the fire, they entered Purusha for self-fulfilment through the human yajna of creative existence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Having made bone (their) fuel, then they caused eight waters to settle; having made seed (their) sacrificial butter, the gods entered man.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The eight kinds or waters turning the bone to fuel come into body and physical turning forces molther butter to semen enter the body.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The All-pervading, divine law of God, making bones the fuel, and semen the molten butter, equipped the body with eight agents, and entered into it.

    Footnote

    Just as molten butter (Ghee) is invigorating, so is the semen. Just as fuel is used for cooking and preparing meals, so bones are used to strengthen the body. Eight agents: (1) (रस) Essence of food (2) (रक्त) Blood (3) (मांस) Flesh (4) (मेदा) Fat (5) (अस्थि) Bone (6) (मज्जा) Marrow (7) (वीर्य) Semen (8) (मन) Mind.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २९−(अस्थि) (कृत्वा) निर्माय (समिधम्) समिन्धनसाधनं शरीरपरिपाकस्य निमित्तम् (तत्) तदा (अष्ट) अष्टधा। रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राणि धातवः-इत्येते सप्तधातवो मनश्चेत्येभिः (आपः) आपः=आपनाः-निरु० १२।३७। व्यापकाः (असादयन्) म० २८। प्रेरितवन्तः (रेतः) वीर्यं स्त्रीरजो वा (कृत्वा) (आज्यम्) घृतवत्पुष्टिकरम् (देवाः) दिव्याः परमेश्वरगुणाः (पुरुषम्) प्राणिशरीरम् (आ अविशन्) प्रविष्टवन्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top