अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 21
ऋषिः - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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भूति॑श्च॒ वा अभू॑तिश्च रा॒तयोऽरा॑तयश्च॒ याः। क्षुध॑श्च॒ सर्वा॒स्तृष्णा॑श्च॒ शरी॑र॒मनु॒ प्रावि॑शन् ॥
स्वर सहित पद पाठभूति॑: । च॒ । वै । अभू॑ति: । च॒ । रा॒तय॑: । अरा॑तय: । च॒ । या: । क्षुध॑: । च॒ । सर्वा॑: । तृष्णा॑ । च॒ । शरी॑रम् । अनु॑ । प्र । अ॒वि॒श॒न् ॥१०.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
भूतिश्च वा अभूतिश्च रातयोऽरातयश्च याः। क्षुधश्च सर्वास्तृष्णाश्च शरीरमनु प्राविशन् ॥
स्वर रहित पद पाठभूति: । च । वै । अभूति: । च । रातय: । अरातय: । च । या: । क्षुध: । च । सर्वा: । तृष्णा । च । शरीरम् । अनु । प्र । अविशन् ॥१०.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(भूतिः) सम्पत्ति, (च वै) और भी (अभूतिः) निर्धनता (च) और (रातयः) दानशक्तियाँ, (च) और (याः) जो (अरातयः) कंजूसी की बातें [हैं, उन्होंने] (च) और (क्षुधः) भूख (च) और (सर्वाः) सब (तृष्णाः) तृष्णाओं ने (शरीरम्) शरीर में (अनु) धीरे-धीरे (प्र अविशन्) प्रवेश किया ॥२१॥
भावार्थ
मन की स्थिरता से सम्पत्ति आदि सुख, और उसकी चञ्चलता से निर्धनता आदि कष्ट प्राणी को शरीर द्वारा प्राप्त होते हैं ॥२१॥
टिप्पणी
२१−(भूतिः) सम्पत्तिः (च) (वै) एव (अभूतिः) निर्धनता (च) (रातयः) दानशक्तयः (अरातयः) कार्पण्यानि (च) (याः) (क्षुधः) बुभुक्षाः (च) (सर्वाः) (तृष्णाः) पिपासाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
भूति-अभूति-श्रद्धा-अश्रद्धा
पदार्थ
१. (भूति: च वै अभूति: च) = समृद्धि और निश्चय से असमृद्धि, (रातयः) = दानवृत्तियों, (च या:) = और जो (अरातयः) = अदानवृत्तियाँ हैं, (क्षुधः च) = भूख और (सर्वाः तृष्णा: च) = सब प्रकार की प्यास-ये (शरीरम् अनुप्राविशन्) = शरीर में प्रविष्ट हुई। २. (निन्दाः च वै) = निश्चय से निन्दा की वृत्तियौं, (अनिन्दाः च) = अनिन्दा के भाव, (यत् च हन्ति इति, न इति च) = और जो 'हाँ' या 'न' इसप्रकार इच्छा व अनिच्छा के भाव हैं, (च) = तथा (श्रद्धा) = धर्मकार्यों में श्रद्धा, उसके लिए (दक्षिणा) = पुरस्कार देने का विचार तथा (अश्रद्धा) = श्रद्धा का न होना-ये सब बातें (शरीरं अनुप्राविशत्) = शरीर में प्रविष्ट हो गई।
भावार्थ
शरीर में समृद्धि-असमृद्धि व श्रद्धा-अश्रद्धा आदि नाना भावों की स्थिति होती रहती है। ये ही बातें हमारे उत्थान व पतन का कारण बनती हैं।
भाषार्थ
(च भूतिः) और समृद्धि, (वै) निश्चय से (च अभूतिः) और समृद्धि का अभाव, (रातयः) दानभाव, उदारता (च अरातयः) और दान न दे अर्थात् कञ्जूसी, (च, क्षुधः) भूख, (च) और (सर्वाः तृष्णाः) सब प्रकार की तृष्णाएं, (अनु) पीछे (शरीरम्) शरीर में (प्राविशन्) प्रविष्ट हुई।
विषय
मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(भूति च) भूति, समस्त समृद्धि (वा) या (अभूति: च) समृद्धि, दरिद्रताएं (रातयः) दान के भाव और और (याः च अरातयः) जो कंजूसी या कृपणता के भाव हैं (क्षुधः च) भूखें, (सर्वाः तृष्णाः च) और सब प्रकार की पियासें, सब (शरीरम् अनु प्राविशन्) शरीर में प्रविष्ट हो जाती हैं।
टिप्पणी
‘वाऽभूतिश्च’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Constitution of Man
Meaning
Prosperity, want and poverty, generosity, ungenerosity and wretchedness, hunger and thirst of various kinds, followed together and entered the body.
Translation
Both growth (bhuti) and diminution, generosities and niggardlinesses, both hungerings and all thirstings, entered the body afterward.
Translation
Those which are prosperity and poverty, altruism and avarice, hunger and all kind of thirsts make their place in the body.
Translation
Prosperity and poverty, kindnesses and malignities, hunger and thirst of every kind then entered the body as a home.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(भूतिः) सम्पत्तिः (च) (वै) एव (अभूतिः) निर्धनता (च) (रातयः) दानशक्तयः (अरातयः) कार्पण्यानि (च) (याः) (क्षुधः) बुभुक्षाः (च) (सर्वाः) (तृष्णाः) पिपासाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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