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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 17
    ऋषिः - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    1

    सर्वे॑ दे॒वा उपा॑शिक्ष॒न्तद॑जानाद्व॒धूः स॒ती। ई॒शा वश॑स्य॒ या जा॒या सास्मि॒न्वर्ण॒माभ॑रत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर्वे॑ । दे॒वा: । उप॑ । अ॒शि॒क्ष॒न् । तत् । अ॒जा॒ना॒त् । व॒धू: । स॒ती । ई॒शा । वश॑स्य । या । जा॒या । सा । अ॒स्मि॒न् । वर्ण॑म् । आ । अ॒भ॒र॒त् ॥१०.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वे देवा उपाशिक्षन्तदजानाद्वधूः सती। ईशा वशस्य या जाया सास्मिन्वर्णमाभरत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वे । देवा: । उप । अशिक्षन् । तत् । अजानात् । वधू: । सती । ईशा । वशस्य । या । जाया । सा । अस्मिन् । वर्णम् । आ । अभरत् ॥१०.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (सर्वे) सब (देवाः) दिव्य पदार्थों [तत्त्वों के गुणों] ने (उप) उपकारीपन से (अशिक्षन्) समर्थ [सहायक] होना चाहा, (तत्) उस [कर्म] को (सती) सत्यव्रता (वधूः) चलानेवाली [परमेश्वर शक्ति] (अजानात्) जानती थी। (वशस्य) वश करनेवाले [परमेश्वर] की (या) जो (ईशा) ईश्वरी (जाया) उत्पन्न करनेवाली शक्ति है, (सा) उसने (अस्मिन्) इस [शरीर] में (वर्णम्) रङ्ग (आ) सब ओर से (अभरत्) भर दिया ॥१७॥

    भावार्थ

    तत्त्वों के संयोग-वियोग क्रिया जाननेवाले महारासायनिक, सर्वनियन्ता, सत्यव्रती, परमेश्वर ने अपनी शक्ति से व्यक्ति-व्यक्ति को विशेष करके जानने के लिये शरीर पर गोरा, काला, पीला आदि रंग चढ़ा दिया ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(सर्वे) (देवाः) दिव्यपदार्थाः। तत्त्वगुणाः (उप) उपकारकत्वेन (अशिक्षन्) शक्लृ शक्तौ-सन्, लङ्। शक्ताः सहायका भवितुमैच्छन् (तत्) वर्णकर्म (अजानात्) ज्ञातवती (वधूः) वहेर्धश्च। उ० १।८३। वह प्रापणे-ऊ, हस्य धः। वहनशक्तिः परमेश्वरः (सती) सत्यव्रता (ईशा) ईश ऐश्वर्ये क, टाप्। ईश्वरी नियन्त्री (वशस्य) वश कान्तौ-कर्तरि अच्। वशयितुः परमेश्वरस्य (या) (जाया) म० १। उत्पादनशक्तिः (सा) नियन्त्री शक्तिः ॥

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    विषय

    वर्ण को भरनेवाली 'ईशा'

    पदार्थ

    १. (सर्वे देवा:) = इन्द्रादि सब देवों ने (उपाशिक्षन्) = समीप होकर शक्त होना चाहा। (वधूः सती) = परमेश्वर से जिसका विवाह हुआ है, उस आद्या चिद्रूपिणी शक्ति ने (तत् अजानात्) = देवो से किये गये उस संकल्प को जाना। ऐतरेयोपनिषद् में यही भाव इन शब्दों में कहा गया है ('ता एनमबुवन् आयतनं नः प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठता अन्नमदामेति')। २. तब (या) = यह जो (वशस्य) = सम्पूर्ण संसार को वश में करनेवाले ईश की (जाया) = पत्नी के रूप में (ईशा) = ईशाना नियन्त्री मायाशक्ति है, (सा) = उस पारमेश्वरी शक्ति ने ही (अस्मिन्) = इस पाट्कौशिक छह तहों में लिपटे हुए शरीर में (वर्णम् आभरत्) = गौर-कृष्णादि वर्ण प्राप्त कराया।

    भावार्थ

    प्रभु ही देवों के एकत्रनिवास के लिए इस षाट्कौशिक शरीर को बनाते हैं। वे ही अपनी शक्ति से इसमें गौर-कृष्ण आदि वर्णों को भरते हैं।

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    भाषार्थ

    (सर्वे देवाः) सब देवों ने (उपाशिक्षन) समीप होकर शक्ति लगाई, (सती वधूः) साध्वी वधू ने (तत्) उसे (अजानात्) जान लिया। वह वधू (ईशा) अधीश्वरी शक्ति है, (या) जो कि (वशस्य) जगत् को वश में रखने वाले ब्रह्म की (जाया) उत्पादक शक्ति है। (सा) उसने (अस्मिन्) इस शरीर में (वर्णम्) वर्ण अर्थात् रूप (आ भरत) भरा है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र १ में भी "जाया" का वर्णन हुआ है। वहां जाया का अभिप्राय है, — प्रकृति। कः ऋषिः (१४); कः (१६); संधा (१५, १६) ईशा (१७) – ये सब एक ही ब्रह्म की उपादान रूप प्रकृति के, और भिन्न-भिन्न शक्तियों के नाम हैं। ईशा है शासनशक्ति (देखो ११।९।२५, २६)। अभिप्राय यह है कि ब्रह्मेत्तर कोई शक्ति न तो शरीर में सन्धियां कर सकती है, न कोई प्रजा का पति है, और न कोई शासक है]।

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    विषय

    मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (सर्वे देवाः) समस्त देवगण प्राणादि ने (उप अशिक्षन्= उपासिक्षन्) उसमें अपना वीर्य आधान किया, प्रार्थना की (तत्) उसको (सती) सत् स्वरूपा (वधूः) शरीर को वहन करने वाली चेतना ने (अजानात्) जान लिया, धारण किया। (या) जो (वशस्य) सबके वशयिता आत्मा की (जाया) स्त्री के समान सर्वोत्पादिका (ईशा) ईश्वरी, वशकारिणी, सामर्थ्यवती शक्ति है (सा) वह (अस्मिन्) इस देह और विराड् देह में (वर्णम्) वर्ण कान्ति या तेज को (आभरत्) प्राप्त कराती है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘उपासिक्षन्’ (तृ०) ‘विषस्य’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Constitution of Man

    Meaning

    All the divinities joined together (as they wanted to take it for residence) and wanted it perfected. They would offer assistance too. That, Prakrti, being Jyeshtha Brahma’s consort, controlling power of the Great controller, perceived and realised. She filled the colours into it. (For the divinities wanting a home and their choice of the human body see Aitareya Upanishad, 1, 2, 1-5.)

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    Translation

    All the gods assisted (Upa-Siks); that she who was a woman knew; she who was wife of control (? vasa) mistress (isa), brought Color into it.

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    Translation

    All the natural forces and elements which materialize the form of body give their mite of cooperation and that Becomes retained by the resolution (Mahatatava) which the first effect of matter and is the subsisting power in the body. The All-controlling power of God which is of creative nature provides this with color and transparency.

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    Translation

    All the forces of nature wanted to assist in the completion of the body. The true power of God knew it. The divine creative power of God lent color to the body.

    Footnote

    God made the body white, black, yellow etc.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(सर्वे) (देवाः) दिव्यपदार्थाः। तत्त्वगुणाः (उप) उपकारकत्वेन (अशिक्षन्) शक्लृ शक्तौ-सन्, लङ्। शक्ताः सहायका भवितुमैच्छन् (तत्) वर्णकर्म (अजानात्) ज्ञातवती (वधूः) वहेर्धश्च। उ० १।८३। वह प्रापणे-ऊ, हस्य धः। वहनशक्तिः परमेश्वरः (सती) सत्यव्रता (ईशा) ईश ऐश्वर्ये क, टाप्। ईश्वरी नियन्त्री (वशस्य) वश कान्तौ-कर्तरि अच्। वशयितुः परमेश्वरस्य (या) (जाया) म० १। उत्पादनशक्तिः (सा) नियन्त्री शक्तिः ॥

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