अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 16
ऋषिः - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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यत्तच्छरी॑र॒मश॑यत्सं॒धया॒ संहि॑तं म॒हत्। येने॒दम॒द्य रोच॑ते॒ को अ॑स्मि॒न्वर्ण॒माभ॑रत् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । तत् । शरी॑रम् । अश॑यत् । स॒म्ऽधया॑ । सम्ऽहि॑तम् । म॒हत् । येन॑ । इ॒दम् । अ॒द्य । रोच॑ते । क: । अ॒स्मि॒न् । वर्ण॑म् । आ । अ॒भ॒र॒त् ॥१०.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्तच्छरीरमशयत्संधया संहितं महत्। येनेदमद्य रोचते को अस्मिन्वर्णमाभरत् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । तत् । शरीरम् । अशयत् । सम्ऽधया । सम्ऽहितम् । महत् । येन । इदम् । अद्य । रोचते । क: । अस्मिन् । वर्णम् । आ । अभरत् ॥१०.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जब (संधया) जोड़नेवाली [शक्ति, परमेश्वर] करके (संहितम्) जोड़ा हुआ (तत्) वह (महत्) महान् [समर्थ] (शरीरम्) शरीर (अशयत्) पड़ा हुआ था, [तब] (येन) जिस [रंग] से (इदम्) यह [शरीर] (अद्य) आज (रोचते) रुचता है, (कः) किसने (अस्मिन्) इस [शरीर] में (वर्णम्) वर्ण [रंग] (आ अभरत्) सब ओर से भर दिया ॥१६॥
भावार्थ
जब शरीर अवयवों सहित चर्म में लपेटकर रख दिया गया, फिर उस पर गोरा, काला, पीला आदि रंग किसने चढ़ाया। इस मन्त्र का उत्तर अगले मन्त्र में है ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(यत्) यदा (तत्) उक्तप्रकारम् (शरीरम्) (अशयत्) शीङ् स्वप्ने-लुङि छान्दसं रूपम्। अशयिष्ट। वर्तते रूपम् (संधया) म० १५। सन्ध्यात्र्या शक्त्या (संहितम्) संश्लिष्टम् (महत्) समर्थम् (येन) वर्णेन (इदम्) शरीरम् (अद्य) (रोचते) रुचिरं दृश्यते। दीप्यते (कः) (अस्मिन्) शरीरे (वर्णम्) शुक्लादिरूपम् (आ) समन्तात् (अभरत्) धृतवान् ॥
विषय
कः वर्णम् आभरत् ?
पदार्थ
१. (यत्) = जो (संधया संहितम्) = प्रभु की संधानशक्ति से संहित हुआ-हुआ (महत् शरीरं अशयत्) = यह महनीय शरीर शेते [वर्तते] यहाँ ब्रह्माण्ड में निवास करता है, (अस्मिन्) = इस शरीर में (क:) = किस देव ने (वर्णम्) = उस वर्ण को (आभरत) = भरा (येन) = जिससे कि (इदम्) = यह शरीर (अद्य रोचते) = आज दीप्त हो रहा है।
भावार्थ
सन्धानशक्ति से संहित अवयवोंवाले इस शरीर में कौन देव कृष्ण-गौर आदि वर्णों को भर देता है?
भाषार्थ
(यत्, तत् महत्, शरीरम्) जो वह बड़ा शरीर (संधया संहितम्) संधा शक्ति द्वारा जोड़ा हुआ (अशयत्) सोता है, (येन) जिस द्वारा (इदम्) यह शरीर (अद्य) आज (रोचते) चमकता या रुचिकर होता है, उस (वर्णम्) वर्ण को, (अस्मिन्) इस में (कः) किस ने (आ भरत्) सर्वत्र भर दिया है।
टिप्पणी
[कः प्रश्नवाची; तथा "कः प्रजापतिः, करोति इति कः, जगत्कर्त्ता"। मन्त्र में "कः" द्वारा ही उत्तर भी सुझा दिया है। शरीरम् = सम्भवतः शेते इति; शीङ् धातु से व्युत्पन्न अशयत् के सन्निधान से]।
विषय
मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(यत् तत्) जब वह (महत्) महत्, बड़ा (शरीरम्) शरीर, ब्रह्माण्ड रूप शरीर (संघया संहितं) ‘संघा’ नामक पूर्वोक्त शक्ति से जुड़ गया तब (इदम्) यह (येन) जिस कारण से (अद्य) सदा (रोचते) कान्ति-मान रूप चमकता है तो (अस्मिन्) इस शरीर में (कः) कौन (वर्णम् आ अभरत्) वर्ण या कान्ति ला देता है, कान्ति कौन उत्पन्न करता है ?
टिप्पणी
(प्र०) ‘शरीरमदधत्’ (द्वि०) ‘संहितं मयि’ (तृ०) ‘कोऽस्मिन्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Constitution of Man
Meaning
Into this great body which lay joined together, bound and covered by the divine formative power, who filled the colour with which it shines so beautiful?
Translation
The great body whcih lay there, put together by the puttingtogether - who brought into it the color with which it shines (ruc) here today?
Translation
When this gorgeous body conjoined by the conjoining force (Sandha) remains lying what power does provide it with color and transparency through which this shines now always.
Translation
When the mighty body lay firmly compact through the uniting force of God, who gave its color to the body, the hue wherewith it shines today.
Footnote
The question is answered in the next verse. Who made the body white, black or yellow, after its completion?
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(यत्) यदा (तत्) उक्तप्रकारम् (शरीरम्) (अशयत्) शीङ् स्वप्ने-लुङि छान्दसं रूपम्। अशयिष्ट। वर्तते रूपम् (संधया) म० १५। सन्ध्यात्र्या शक्त्या (संहितम्) संश्लिष्टम् (महत्) समर्थम् (येन) वर्णेन (इदम्) शरीरम् (अद्य) (रोचते) रुचिरं दृश्यते। दीप्यते (कः) (अस्मिन्) शरीरे (वर्णम्) शुक्लादिरूपम् (आ) समन्तात् (अभरत्) धृतवान् ॥
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