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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 24
    ऋषिः - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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    आ॑न॒न्दा मोदाः॑ प्र॒मुदो॑ऽभिमोद॒मुद॑श्च॒ ये। ह॒सो न॑रिष्टा नृ॒त्तानि॒ शरी॑र॒मनु॒ प्रावि॑शन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽन॒न्दा: । मोदा॑: । प्र॒ऽमुद॑: । अ॒भि॒मो॒द॒ऽमुद॑: । च॒ । ये । ह॒स: । न॒रिष्टा॑ । नृ॒त्तानि॑ । शरी॑रम् । अनु॑ । प्र । अ॒वि॒श॒न् ॥१०.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आनन्दा मोदाः प्रमुदोऽभिमोदमुदश्च ये। हसो नरिष्टा नृत्तानि शरीरमनु प्राविशन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽनन्दा: । मोदा: । प्रऽमुद: । अभिमोदऽमुद: । च । ये । हस: । नरिष्टा । नृत्तानि । शरीरम् । अनु । प्र । अविशन् ॥१०.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (आनन्दाः) आनन्द, (मोदाः) हर्ष (प्रमुदः) बड़े आनन्द (च) और (ये) (अभिमोदमुदः) बड़े उत्सवों से हर्ष देनेवाले पदार्थ हैं [वे सब और]। (हसः) हंसी, (नृत्तानि) नाचों और (नरिष्टा) मङ्गल कामों [खेल-कूद आदि] [इन सब ने] (शरीरम्) शरीर में (अनु) धीरे-धीरे (प्र अविशन्) प्रवेश किया ॥२४॥

    भावार्थ

    मनुष्य शरीर द्वारा अनेक शुभ कर्म करके अनेक मङ्गल मनावें ॥२४॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध आ चुका है-अ० ११।७।२६ ॥

    टिप्पणी

    २४−पूर्वार्धर्चो व्याख्यातः-अ० ११।७।२६। (हसः) स्वनहसोर्वा। पा० ३।३।६२। हसे हसने-अप्। हासः (नरिष्टा) न+रिष हिंसायाम्-कर्तरि-क्त। शेर्लोपः। अरिष्टानि। अहिंसकानि। मङ्गलकर्माणि (नृत्तानि) नृती गात्रविक्षेपे-क्त। तालमानयुक्तान्यङ्गविक्षेपरूपाणि नर्तनानि। अन्यत् पूर्ववत्-म० २२ ॥

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    विषय

    हस: नरिष्टा नृत्तानि

    पदार्थ

    १. (आनन्दाः) = विषयोपभोगजनित सुख, (मोदा:) = विषयदर्शनजन्य हर्ष, (प्रमुदः) = प्रकृष्ट विषयलाभजन्य हर्ष, (ये च) = और जो (अभीमोदमुदः) = [अभिमोदेन मोदयन्ति] संनिहित सुख हेतु पदार्थ, (हस:) = हास (नरिष्टा) = [नर इष्ट] मनुष्य के इच्छागोचर शब्द-स्पर्शादि विषय तथा (नृत्तानि) = नर्तन-ये सब आनन्द आदि (शरीरम् अनु प्राविशन्) = पुरुष के शरीर में प्रविष्ट हो गये।

     

    भावार्थ

    शरीरधारी जीव आनन्द आदि वृत्तियों का अनुभव करता है।

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    भाषार्थ

    (आनन्दाः) समृद्धि के कारण उत्पन्न सुख विशेष, अथवा ब्रह्मोपासना द्वारा उत्पन्न आनन्द भरी चित्तवृत्तियां, (मोदाः प्रमुदः) मानसिक मोद-प्रमोद, (अभीमोदमुदश्च ये) और जो संमुख प्राप्त विषयजन्य हर्षातिरेक; (हसः) हसना, (नरिष्टाः) नरनारियों के अभीष्ट विषयों से उत्पन्न सुख, अथवा नरनारियों की इच्छाएँ, मनों की कामनाएं, (नृत्तानि) नाच (अनु) पीछे से (शरीरम् प्राविशन) शरीर में प्रविष्ट हुए।

    टिप्पणी

    [नदिष्टाः= अथवा नरिष्टानि। पदपाठ में विसर्ग रहित पाठ है]।

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    विषय

    मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (आनन्दाः) समस्त आनन्द (मोदाः) समस्त हर्ष (प्रभुदः) समस्त विनोद और (अभीमोदमुदः च ये) जो भी साक्षात् सुखों से उत्पन्न होने वाली खुशियां हैं वे और (हसः) सब हंसियें, (नरिष्टा) स्वच्छन्द चेष्टाएं (नृत्तानि) नृत्य विलास, ये सभी (शरीरम् अनु प्राविशन्) इस पुरुष शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं।

    टिप्पणी

    ‘आनन्दा नन्दा प्रमदो’ इति पैप्प० सं०। (तृ०) ‘नुरिष्टा’ इति सायणाभिमतः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Constitution of Man

    Meaning

    Higher ecstasies, pleasures, delights and celebrations laughter, dance and social revelry, all entered the human body.

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    Translation

    Delights, joys, enjoyments, and they that enjoy enjoyments, laughter; sport, dances, entered the body afterward.

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    Translation

    Enjoyments, pleasures, delights, gladness and whatever are the rapturous ecstasies, laughter, merriment and dance enter into the body.

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    Translation

    Enjoyments, pleasures, and delights, gladness and rapturous ecstasies, laughter and merriment and dance then entered the body.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−पूर्वार्धर्चो व्याख्यातः-अ० ११।७।२६। (हसः) स्वनहसोर्वा। पा० ३।३।६२। हसे हसने-अप्। हासः (नरिष्टा) न+रिष हिंसायाम्-कर्तरि-क्त। शेर्लोपः। अरिष्टानि। अहिंसकानि। मङ्गलकर्माणि (नृत्तानि) नृती गात्रविक्षेपे-क्त। तालमानयुक्तान्यङ्गविक्षेपरूपाणि नर्तनानि। अन्यत् पूर्ववत्-म० २२ ॥

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