अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 28
ऋषिः - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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आस्ते॑यीश्च॒ वास्ते॑यीश्च त्वर॒णाः कृ॑प॒णाश्च॒ याः। गुह्याः॑ शु॒क्रा स्थू॒ला अ॒पस्ता बी॑भ॒त्साव॑सादयन् ॥
स्वर सहित पद पाठआस्ते॑यी: । च॒ । वास्ते॑यी: । च॒ । त्व॒र॒णा: । कृ॒प॒णा: । च॒ । या: । गुह्या॑: । शु॒क्रा: । स्थू॒ला: । अ॒प: । ता: । बी॒भ॒त्सौ । अ॒सा॒द॒य॒न् ॥१०.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
आस्तेयीश्च वास्तेयीश्च त्वरणाः कृपणाश्च याः। गुह्याः शुक्रा स्थूला अपस्ता बीभत्सावसादयन् ॥
स्वर रहित पद पाठआस्तेयी: । च । वास्तेयी: । च । त्वरणा: । कृपणा: । च । या: । गुह्या: । शुक्रा: । स्थूला: । अप: । ता: । बीभत्सौ । असादयन् ॥१०.२८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(आस्तेयीः) अस्ति [रुधिर] में रहनेवाले (च) और (वास्तेयीः) वस्ति [पेड़ू वा मूत्राशय] में रहनेवाले (च) और (त्वरणाः) शीघ्र चलनेवाले (च) और (कृपणाः) दुर्बल [पतले], (स्थूलाः) गाढ़े (गुह्याः) गुहा [शरीर के गुप्त स्थान] में रहनेवाले और (शुक्राः) वीर्य [वा रज] में रहनेवाले (याः) जो [जल हैं], (ताः अपः) उन जलों को (बीभत्सौ) परस्पर बँधे हुए [शरीर] में (असादयन्) उन [ईश्वरनियमों] ने पहुँचाया ॥२८॥
भावार्थ
परमेश्वर ने नाड़ियों द्वारा वायु की गति से जल को विविध प्रकार पहुँचा कर शरीर को काम करने योग्य बनाया है ॥२८॥
टिप्पणी
२८−(आस्तेयीः) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। असु क्षेपणे-ति। अस्यते क्षिप्यते या नाडीषु सा अस्तिः, असृग् रक्तम्। दृतिकुक्षिकलशिवस्त्यस्त्यहेर्ढञ्। पा० ४।३।५६। अस्ति−ढञ्। तत्र भव इत्यर्थे, ङीप्−च। आस्तेय्यः। रक्ते वर्तमानाः (वास्तेयीः) वस्ति−ढञ् पूर्ववत्। मूत्राधारे नाभेरधोभागे भवाः (च) (त्वरणाः) त्वरया गच्छन्त्यः (कृपणाः) रञ्जेः क्युन्। उ० २।७९। कृप दौर्बल्ये−क्युन्। दुर्बलाः। कृशाः (च) (याः) आपः (गुह्याः) गुहायां गर्ते भवाः (शुक्राः) शुक्रे वीर्ये रजसि वा भवाः (स्थूलाः) घनाः। स्निग्धाः (अपः) जलानि (ताः) पूर्वोक्ताः (बीभत्सौ) मान्बधदान्शान्भ्यो दीर्घश्चाभ्यासस्य। पा० ३।१।६। बध बन्धने-सन् स्वार्थे। सनाशंसभिक्ष उः। पा० ३।२।१६८। उ प्रत्ययः। परस्परसम्बन्धिनि शरीरे (असादयन्) षद्लृ गतौ-णिच्, लङ्। प्रापितवन्तः। प्रेरितवन्तः ॥
विषय
'बीभत्सु' शरीर [सुबद्ध-सुघटित]
पदार्थ
१. (आस्नेयी: च) = [अस्यते क्षिप्यते यत् नाडीषु] रुधिर में होनेवाले, (वास्तेयी: च) = मूत्राधार में होनेवाले, (त्वरणा:) = शीघ्रगतिवाले, (याः च कृपणा:) = और जो कृश [पतले] व (स्थूला:) = स्थूल [गाढ़े], (गुह्या:) = [गुहायां भवाः] हृदयदेश में रहनेवाले या अदृश्य व (शुक्रा:) = वीर्यरूप में परिणत (अप:) = जल हैं, (ता:) = वे सब जल (बीभत्सौ) = इस [बध बन्धने] सुबद्ध शरीर में (असादयन्) = प्राप्त होते हैं-स्थित होते हैं।
भावार्थ
जल शरीर में विविधरूपों में स्थित होकर शरीर की सुबद्धता का साधन बनता है।
भाषार्थ
(आस्तेयीः च= आस्नेयीः) असन् अर्थात् असृक् सम्बन्धी, (वास्तेयीः च) वस्ति अर्थात् मूत्राशय सम्बन्धी, (त्वरणाः) शील गति वाले, (याः च कृपणाः) और जो मन्दगति वाले, (गुह्याः) छिपे हुए अर्थात् शरीर के घटक, (शुक्राः) शुक्र अर्थात् शुक्ल वीर्य सम्बन्धी, (स्थूलाः) और स्थूल (अपः) जलों को (बीभत्सौ) कल्याणकारी तथा सुख के साधन भूत शरीर में (असादयन्) दिव्यशक्तियों ने स्थापित किया है। [आस्नेयीः"] यह पाठ सायणाचार्य ने माना है। असृक् दो प्रकार का है, रक्त और नील। इस प्रकार शरीरनिष्ठ आपः आठ प्रकार के हैं, (देखो मन्त्र २९)।
टिप्पणी
[मन्त्र में शरीरस्थ आपः अर्थात् जलों का वर्णन हुआ है। ये आपः ८ प्रकार के दर्शाए हैं। "आस्नेयीः" पद द्वारा दो प्रकार के खूनों का कथन हुआ है, लाल और नीले। शरीर में दोनों प्रकार के खून हैं। "वास्तेयीः" पद द्वारा मूत्राशयस्थ मूत्ररूपी आपः हैं। त्वरमाणाः है शीघ्रगतिक रक्त और मूत्र। कृपणाः द्वारा मन्दगतिक आपः का निर्देश हुआ है, यथा स्वेद, मुखस्थ स्राव, उदरस्थ पित्त तथा अन्य सब ग्रन्थियों के रस। गुह्याः आपः हैं शरीर की रचना का निर्माण करने वाले आपः। शरीर की रचना में आपः ३/४ है। और पार्थिव भाग १/४ है। ये आपः अदृश्यमान है, गुह्यः हैं, छिपे हुए हैं। शुक्रः शब्द शुक्र अर्थात् वीर्य का द्योतक है। और स्थूला शब्द द्वारा नासिकामल, आंखों का मल, बलगम आदि का ग्रहण किया है। ये आपः ८ हैं, जिन्हें कि मन्त्र (२९) में "अष्ट" पद द्वारा निर्दिष्ट किया है। मन्त्र में "बीभत्सु" पद है। इस का प्रसिद्ध अर्थ है, घृणित। परन्तु "बीभत्सु" पद भद् धातु द्वारा भी व्युत्पन्न माना जा सकता है, भदि कल्याणे सुखे च। शरीर कल्याण का भी हेतु है, और सुख का साधन भी]।
विषय
मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(आस्तेयीः* च) ‘अस्ति’ हृदय या मुख में विद्यमान रुधिर या थूक और (वास्तेयीः च) ‘वस्ति’ मूत्राशय में जमा होने वाले मूत्र के जल (त्वरणाः) शरीर में वेग से चलने वाले अथवा प्रवाह से बहने वाले और (याः कृपणाः च) जो मन्दगति अथवा तुच्छ स्वरूप से विद्यमान, (गुह्याः) गुह्य, गुप्त रूप से अंगों में विद्यमान, (शुक्राः) शुक्र, वीर्य रूप में विद्यमान, (स्थूलाः) स्थूल, अन्न रूप में पान करने योग्य समस्त प्रकार के (अपः) जल (ताः) वे सब (बीभत्सौ) इस सुबद्ध शरीर में, सुघटित शरीर में (असादयन्) रखे हुए हैं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘आस्तेयीश्च वस्तेयीश्च’ इति सायणाभिमतः। ‘आस्नेयीश्व वस्नेश्व’ इति ह्विटनिकामितः। * असेर्वसेश्चौणादिवस्तिः प्रत्ययः अस्तिः वस्तिः। ततो दृतिकुक्षि कलशिवसत्यस्त्यहेर्ढञ् इति शेषिकोऽढन्। आस्तेयीः वास्तेयीः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Constitution of Man
Meaning
In the body which is both pleasant and unpleasant, the divinities have placed liquid flows pertaining to waters and blood in the veins and arteries and in the excretory regions, the flow that is fast and slow, secret, pure and thick (because of impurity).
Translation
Both those of the blood and those of the bladder, the hasting and those that are pitiable, the secret, the clear, the thick waters— those they caused to settle in the repugnant one.
Translation
Whatever are the hidden, bright and thick waters, which spring from blood in the bowels, which spring from mourning or hasty toll—all are laid down in this abhorrent frame.
Translation
Waters in the blood, urine, fast and slow moving waters in the body, waters in the bowels and semen, waters taken in the shape of food, are all laid in this well-constructed body.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२८−(आस्तेयीः) वसेस्तिः। उ० ४।१८०। असु क्षेपणे-ति। अस्यते क्षिप्यते या नाडीषु सा अस्तिः, असृग् रक्तम्। दृतिकुक्षिकलशिवस्त्यस्त्यहेर्ढञ्। पा० ४।३।५६। अस्ति−ढञ्। तत्र भव इत्यर्थे, ङीप्−च। आस्तेय्यः। रक्ते वर्तमानाः (वास्तेयीः) वस्ति−ढञ् पूर्ववत्। मूत्राधारे नाभेरधोभागे भवाः (च) (त्वरणाः) त्वरया गच्छन्त्यः (कृपणाः) रञ्जेः क्युन्। उ० २।७९। कृप दौर्बल्ये−क्युन्। दुर्बलाः। कृशाः (च) (याः) आपः (गुह्याः) गुहायां गर्ते भवाः (शुक्राः) शुक्रे वीर्ये रजसि वा भवाः (स्थूलाः) घनाः। स्निग्धाः (अपः) जलानि (ताः) पूर्वोक्ताः (बीभत्सौ) मान्बधदान्शान्भ्यो दीर्घश्चाभ्यासस्य। पा० ३।१।६। बध बन्धने-सन् स्वार्थे। सनाशंसभिक्ष उः। पा० ३।२।१६८। उ प्रत्ययः। परस्परसम्बन्धिनि शरीरे (असादयन्) षद्लृ गतौ-णिच्, लङ्। प्रापितवन्तः। प्रेरितवन्तः ॥
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