अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
ऋषिः - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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अजा॑ता आसन्नृ॒तवोऽथो॑ धा॒ता बृह॒स्पतिः॑। इ॑न्द्रा॒ग्नी अ॒श्विना॒ तर्हि॒ कं ते ज्ये॒ष्ठमुपा॑सत ॥
स्वर सहित पद पाठअजा॑ता: । आ॒स॒न् । ऋ॒तव॑: । अथो॒ इति॑ । धा॒ता । बृह॒स्पति॑: । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । अ॒श्विना॑ । तर्हि॑ । कम् । ते । ज्ये॒ष्ठम् । उप॑ । आ॒स॒त॒ ॥१०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अजाता आसन्नृतवोऽथो धाता बृहस्पतिः। इन्द्राग्नी अश्विना तर्हि कं ते ज्येष्ठमुपासत ॥
स्वर रहित पद पाठअजाता: । आसन् । ऋतव: । अथो इति । धाता । बृहस्पति: । इन्द्राग्नी इति । अश्विना । तर्हि । कम् । ते । ज्येष्ठम् । उप । आसत ॥१०.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(ऋतवः) ऋतुएँ (अजाताः) अनुत्पन्न (आसन्) थे, (अथो) और भी (धाता) धाता [धारण करनेवाला आकाश], (बृहस्पतिः) [बड़े पदार्थों का रक्षक वायु], (इन्द्राग्नी) इन्द्र [मेघ] और अग्नि [सूर्य आदि] और (अश्विना) दिन और राति [अनुत्पन्न थे], (तर्हि) तब (ते) उन्होंने [ऋतु आदिकों ने] (कम् ज्येष्ठम्) कौन से सर्वश्रेष्ठ को (उप आसत) पूजा है ॥५॥
भावार्थ
जब वसन्त आदि ऋतुएँ और आकाश वायु आदि पदार्थ स्थूल दशा में नहीं थे, तब उनका अधिष्ठाता कौन था। इस प्रश्न का उत्तर अगले मन्त्र में है ॥५॥
टिप्पणी
५−(अजाताः) अनुत्पन्नाः। अप्रादुर्भूताः (आसन्) अभवन् (ऋतवः) वसन्ताद्याः कालाः (अथो) अपि च (धाता) सर्वस्य विधाता-निरु० ११।१०। इति मध्यस्थानदेवतासु पाठात्। लोकानां धारक आकाशः (बृहस्पतिः) बृहस्पतिर्बृहतः पाता या पालयिता वा-निरु० १०।११। इति मध्यस्थानदेवतासु पाठात्। बृहतां प्राणिनां रक्षको वायुः (इन्द्राग्नी) मेघतापौ (अश्विना) अहोरात्रौ निरु० १२।१। (तर्हि) तदा (कम्) अधिष्ठातारम् (ते) पूर्वोक्ताः (ज्येष्ठम्) सर्वोत्कृष्टम् (उपासत) पूजितवन्तः ॥
विषय
कर्मरूप सृष्टि का मूलकारण
पदार्थ
१. (ऋतव:) = वसन्त आदि ऋतुएँ उस सृष्टि के समय में अभी (अजाताः आसन्) = उत्पन्न न हुई थीं। (अथो) = और (धाता) = सबका धारण करनेवाला 'सूर्य' (बृहस्पति:) = [बृहन् चासौ पतिः] वृद्धि का कारणभूत रक्षक 'वायु' भी न था। (इन्द्र-अग्नी) = मेघ [विद्युत] व अग्नि भी न थे। (अश्विना) = दिन व रात [नि०१।२।१] भी न थे। ये 'धाता, बृहस्पति, इन्द्राग्नी, अश्विना' नामक छह ऋतुओं के अधिपति भी न थे। (ते) = वे सब धाता आदि अपनी उत्पत्ति के लिए (कम्) = किस (ज्येष्ठम्) = सबसे बड़े कारणभूत जनयिता की (उपासत) = उपासना करते थे? २. उत्तर देते हुए कहते हैं कि (महति अर्णवे अन्तः) = महान् प्रकृति के अणु-समुद्र में (तपः च एव) = जगत् स्रष्टा ईश्वर का स्रष्टव्य पर्यालोचनात्मक तप ही और (कर्म च) = कल्पान्तर में प्राणियों से अनुष्ठित फलोन्मुख परिपक्व कर्म ही (आस्ताम्) = थे। २. वस्तुतः (तप) = प्रभु का पर्यालोचनात्मक तप भी (ह) = निश्चय से (कर्मण:) = कल्पान्तर में प्राणियों से किये हुए कर्म से ही (जज्ञे) = प्रादुर्भूत हुआ। यदि प्राणियों के कर्म न होते तो स्वमहिम प्रतिष्ठ असंग व उदासीन प्रभु सृष्ट्युन्मुख होते ही नहीं और तब यह स्रष्टव्य पर्यालोचनात्मक तप भी न होता। एवं तप भी कर्म से पैदा हुआ, अत: (ते) = वे धाता आदि (तत्) = उस कर्म की ही (ज्येष्ठम्) = वृद्धतम सृष्टि के कारण के रूप में (उपासते) = उपासना करते हैं। कर्म को ही मूलकारण जानते हैं।
भावार्थ
सृष्टि के प्रारम्भ में अभी न ऋतुएँ थी न इनके अधिपति थे। वे अधिपति समझते हैं कि तप व कर्म से सृष्टि होती है। तप भी तो कर्म से होता है, अत: मूल कारण कर्म ही है।
भाषार्थ
जब (ऋतवः) ऋतुएं, (अथो) तथा (धाता, बृहस्पतिः, इन्द्रानी, अश्विना) धारण पोषण करनेवाला मेघ, वायु, विद्युत्-और-अग्नि, सूर्य-चान्द (अजाताः आसन्) प्रादुर्भूत नहीं हुए ये, (तर्हि) उस समय (ते) वे (कम्) किस (ज्येष्ठम्) बड़ी शक्ति की (उपासत) उपासना करते थे। [उत्पत्ति के लिये प्रतीक्षा करते थे]।
टिप्पणी
[निरुक्त में धाता और बृहस्पति को मध्यमस्थानी देवता कहा है, और यथाक्रम इन का सम्बन्ध अन्न की उत्पत्ति तथा प्रजापालन के साथ वर्णित किया है। धाता (धाञ् धारणपोषणयोः) अर्थात् मेघ। बृहस्पतिः= बृहतः स्थावरजङ्गमात्मकस्य प्राणिजातस्य पतिः रक्षकः पालकः = वायु१। इन्द्र और अग्नि यथाक्रम विद्युत-और-उस की चमक, या विद्युत और उस के प्रपात द्वारा वृक्षों में लगी अग्नि। अश्विना= द्यावापृथिव्यौ, सूर्याचन्द्रमसौ, अहोरात्रे। ऋतवः= प्रसिद्ध ६ ऋतुएं। उपासत= वेद सत्कार्यवाद का समर्थक हैं (अथर्व० १७।१।१९)। वैदिक दृष्टि में वस्तु का प्रादुर्भाव अर्थात् अपने कारण में सूक्ष्मरूप में स्थित का प्रकाशमात्र होता है, कोई नई उत्पत्ति नहीं होती। इस लिये अपने-अपने कारणों में स्थित और अनभिव्यक्त ऋतु आदि के सम्बन्ध में उपासना का वर्णन हुआ है। ऋतु आदि जड़ हैं, परन्तु कविता में इन्हें चेतनरूप देकर धन की उपासना क्रिया का वर्णन हुआ है। सारांश यह है कि अपनी-अपनी अभिव्यक्ति के लिये किसी शक्ति की प्रतीक्षा में ये थे। अजाताः= अ + जनीप्रादुर्भावे + क्त]। [१. वायु प्राणधार है। बिना वायु के जीवन कतिपय क्षणों में समाप्त हो जाता है, अतः वायु महापालक है, बृहस्पति है।]
विषय
मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
सृष्टि के प्रारम्भ में जब कि (ऋतवः अथो धाता बृहस्पतिः) ऋतुएँ, धाता और बृहस्पति सूर्य और वायु (इन्द्राग्नी अश्विना) इन्द्र = सूर्य और अग्नि और दिन और रात्रि ये सब भी (अजाताः आसन्) अभी प्रकट नहीं हुए थे, उत्पन्न नहीं हुए थे तब (ते) वे (कं ज्येष्ठम् उपआसत) अपने से भी महान् किस ज्येष्ठ प्रभु की उपासना करते थे ? अर्थात् उस समय ये कहां विलीन थे ?
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Constitution of Man
Meaning
When seasons, Dhata the sustaining space, Brhaspati, Vayu, Indragni, electric and fire energy, and Ashvins, sun and moon, were not yet generated then which highest power did they stay by? They stayed by Kam, the lord of peace and bliss, the Jyeshtha Brahma.
Translation
Unborn were the seasons, likwise Dhatr, ‘Brhaspati, Indra ` and Agni, the two Asvins: at that time: whom did they worship (upa-as) (as) chief ?
Translation
In the beginning of the creation when seasons, sun and air, all-pervading cosmic electricity and fire, day and night are unborn whom they accept as Supreme Power.
Translation
In the beginning of the universe, when the seasons, atmosphere, air, cloud, sun, day and night were yet unborn, whom then did they worship as supreme?
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(अजाताः) अनुत्पन्नाः। अप्रादुर्भूताः (आसन्) अभवन् (ऋतवः) वसन्ताद्याः कालाः (अथो) अपि च (धाता) सर्वस्य विधाता-निरु० ११।१०। इति मध्यस्थानदेवतासु पाठात्। लोकानां धारक आकाशः (बृहस्पतिः) बृहस्पतिर्बृहतः पाता या पालयिता वा-निरु० १०।११। इति मध्यस्थानदेवतासु पाठात्। बृहतां प्राणिनां रक्षको वायुः (इन्द्राग्नी) मेघतापौ (अश्विना) अहोरात्रौ निरु० १२।१। (तर्हि) तदा (कम्) अधिष्ठातारम् (ते) पूर्वोक्ताः (ज्येष्ठम्) सर्वोत्कृष्टम् (उपासत) पूजितवन्तः ॥
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