अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
ऋषिः - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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प्रा॑णापा॒नौ चक्षुः॒ श्रोत्र॒मक्षि॑तिश्च॒ क्षिति॑श्च॒ या। व्या॑नोदा॒नौ वाङ्मन॒स्ते वा आकू॑ति॒माव॑हन् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒णा॒पा॒नौ । चक्षु॑: । श्रोत्र॑म् । अक्षि॑ति: । च॒ । क्षिति॑: । च॒ । या । व्या॒न॒ऽउ॒दा॒नौ । वाक् । मन॑: । ते । वै । आऽकू॑तिम् । आ । अ॒व॒ह॒न् ॥१०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणापानौ चक्षुः श्रोत्रमक्षितिश्च क्षितिश्च या। व्यानोदानौ वाङ्मनस्ते वा आकूतिमावहन् ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणापानौ । चक्षु: । श्रोत्रम् । अक्षिति: । च । क्षिति: । च । या । व्यानऽउदानौ । वाक् । मन: । ते । वै । आऽकूतिम् । आ । अवहन् ॥१०.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(प्राणापानौ) प्राण और अपान [भीतर और बाहिर जानेवाला श्वास], (चक्षुः) नेत्र, (श्रोत्रम्) कान, (च) और (या) जो (अक्षितिः) [सुख की] निर्हानि (च) और (क्षितिः) [दुःख की] हानि। (व्यानोदानौ) व्यान [सब नाड़ियों में रस पहुँचानेवाला वायु] और (वाक्) वाणी और (मनः) मन, (ते) इन सब ने (वै) निश्चय करके (आकूतिम्) सङ्कल्प [प्राणी के मनोविचार] को (आ) सब ओर से (अवहन्) प्राप्त कराया ॥४॥
भावार्थ
प्राणियों के विहित कर्मों की सिद्धि के लिये परमेश्वर ने प्राण, अपान आदि बनाये। मन्त्र १ का उत्तर समाप्त हुआ ॥४॥इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध आ चुका है-अ० ११।७।२५ ॥
टिप्पणी
४−(व्यानोदानौ) सर्वासु नाडीषु रसमनिति प्रेरयतीति व्यानः। उत् ऊर्ध्वमनिति चेष्टत इत्युदानः। तौ वायुव्यापारौ (वाक्) वचनसाधनमिन्द्रियम् (मनः) सङ्कल्पविकल्पात्मकवृत्तिमदन्तःकरणम् (ते) पूर्वोक्ताः पदार्थाः (वै) (आकूतिम्) संकल्पम् (आ अवहन्) समन्तात् प्रापितवन्तः प्रकटीं कृतवन्तः। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ११।७।२५ ॥
विषय
दश देव
पदार्थ
१. (प्राणापानौ) = प्राण और अपान, (चक्षुः श्रोत्रम्) = आँख और कान, (अक्षिति: च) = अक्षीयमाण ज्ञानशक्ति [यह आत्मस्वरूपत्वेन नित्य है], (या च क्षिति:) = और जो निवासहेतुभूता क्रियाशक्ति है [क्षि निवासगत्योः], (व्यानोदानौ) = अन्न रस को सब नाड़ियों में [विविधं अनिति] विविधरूप से प्रेरित करनेवाला व्यान तथा उद्गारादि व्यापार को [ऊध्य अनिति] करनेवाला उदान, (वाङ् मन:) = वाणी तथा मन (ते) = वे प्राणापान आदि दस देव (आकूतिम्) = पुरुषकृत संकल्प को (आवहन्) = आभिमुख्येन प्राप्त कराते हैं। पुरुष के अभिमत अर्थ को सिद्ध करनेवाले ये ही दस हैं।
भावार्थ
शरीर में स्थित प्राणापान आदि दस देव हमारे सब अभिमत अर्थों को सिद्ध करते
भाषार्थ
(प्राणापानौ) प्राण और अपान, (चक्षुः) दृष्टि शक्ति, (श्रोत्रम्) श्रवणशक्ति, (च प्रक्षितिः) और न क्षीण होने वाली आत्मनिष्ठा ज्ञानशक्ति, (च क्षितिः) तथा क्षीण होने वाली कर्मशक्ति, (व्यानोदानौ) व्यान और उदान, (वाक) वाणी (मनः) मन (ते) वे (वै) निश्चय से (आकतिम्) जीवित मनुष्य को संकल्प शक्ति (आवहत्) प्राप्त कराते हैं।
टिप्पणी
[प्राणापानौ = नासिकागत दो वायु वृत्तियां। अक्षिति = मोक्ष मिलने पर लिङ्ग शरीर के न होते भी आत्मा में ज्ञान विद्यमान रहता है। ज्ञान आत्मा का नित्यधर्म है, वह क्षीण नहीं होता, कर्मशक्ति क्षीण शक्ति है। व्यान द्वारा अन्नरस विविध नाड़ियों में पहुंचता है। "अन्नरसं सर्वासु नाडीषु विविधम् अनिति प्रेरयतीति व्यानः"। उदान द्वारा उद्गार आदि व्यापार होते हैं। "उत् ऊर्ध्वम् अनिति उद्गारादिव्यापारं करोतीति, उदानः। मनः सब इन्द्रियों को प्रेरित करने वाला सुखादि ज्ञान का साधन। दस देव (मन्त्र ३)= प्राण, अपान, चक्षु, श्रोत्र, अक्षिति, क्षिति, व्यान, उदान, वाक्, मन। अजायन्त (मन्त्र ३) द्वारा इन दस की उत्पत्ति कही है अक्षिति पद यद्यपि (आत्मनिष्ठ स्वाभाविक ज्ञान, अर्थात् चैतन्य को नित्य कहता है, तथापि आत्मा को जो इन्द्रियों द्वारा ज्ञान होता है वह अनित्य है, उस की उत्पत्ति होती है। इस दृष्टि से आत्मा के ऐन्द्रियिक ज्ञान का, जनन के साथ, सम्बन्ध जानना चाहिये। इस प्रकार एकांश में आत्मा का ज्ञान अनित्य है, और एकांश में नित्य। मन यद्यपि महत्तत्त्व का परिणाम है, इस लिये उत्पत्ति धर्मा है, परन्तु जब तक, मोक्ष नहीं होता तब तक, जन्म जन्मान्तरों में भी मन की स्थिति कायम रहती है, इस दृष्टि से "अमृतेन१ सर्वम्" (यजु० ३४।४) द्वारा मन को नित्य कहा है। आकूतिः = मानुष संकल्प]। [१. तथा "ज्योतिरन्तरमृतम्" (यजु० ३४।३)।]
विषय
मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(प्राणापानौ) प्राण और अपान (चक्षुः श्रोत्रम्) आँख और कान (अक्षितिः च क्षितिः च या) अक्षिति, अविनाशिनी ज्ञान शक्ति और ‘क्षिति’ क्षयशील क्रिया शक्ति और (व्यानोदानौ) व्यान और उदान (वाक् मनः) वाणी और मन (ते वा) उन्होंने भी (आकूतिम्) आक्रूति नाम बुद्धिरूप ‘जाया’ को (आवहन्) धारण किया।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Constitution of Man
Meaning
Prana and apana, eye, ear, constancy and mutability, vyana and udana, speech and mind, these carry the immanent thought and resolution of divinity in human activity.
Translation
Breath and expiration, sight, hearing, indestructibleness and - destruction, out-breathing and up-breathing, speech, mind — they verily brought design.
Translation
Inhalation and Exhalation, eye, ear that which are immortality and mortality, vital winds known as Vyana and Udana voice, mind are the things which bring forth the wish and plan.
Translation
Inbreath and outhreath, eye and ear, deathless knowledge, evanescent action, Vyana, Udana, voice, mind contribute to our resolve.
Footnote
Vyana: The breath that is diffused throughout the body. Udana: The breath that goes upward for eructation.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(व्यानोदानौ) सर्वासु नाडीषु रसमनिति प्रेरयतीति व्यानः। उत् ऊर्ध्वमनिति चेष्टत इत्युदानः। तौ वायुव्यापारौ (वाक्) वचनसाधनमिन्द्रियम् (मनः) सङ्कल्पविकल्पात्मकवृत्तिमदन्तःकरणम् (ते) पूर्वोक्ताः पदार्थाः (वै) (आकूतिम्) संकल्पम् (आ अवहन्) समन्तात् प्रापितवन्तः प्रकटीं कृतवन्तः। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ११।७।२५ ॥
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