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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 34
    ऋषिः - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    1

    अ॒प्सु स्ती॒मासु॑ वृ॒द्धासु॒ शरी॑रमन्त॒रा हि॒तम्। तस्मि॒ञ्छवोऽध्य॑न्त॒रा तस्मा॒च्छवोऽध्यु॑च्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्ऽसु । स्ती॒मासु॑ । वृ॒ध्दासु॑ । शरी॑रम् । अ॒न्त॒रा । हि॒तम् । तस्मि॑न् । शव॑: । अधि॑ । अ॒न्त॒रा । तस्मा॑त् । शव॑: । अधि॑ । उ॒च्य॒ते॒ ॥१०.३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्सु स्तीमासु वृद्धासु शरीरमन्तरा हितम्। तस्मिञ्छवोऽध्यन्तरा तस्माच्छवोऽध्युच्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्ऽसु । स्तीमासु । वृध्दासु । शरीरम् । अन्तरा । हितम् । तस्मिन् । शव: । अधि । अन्तरा । तस्मात् । शव: । अधि । उच्यते ॥१०.३४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 34
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्तीमासु) बाफवाले, (वृद्धासु) बढ़े हुए (अप्सु अन्तरा) अन्तरिक्ष के भीतर (शरीरम्) शरीर (हितम्) रक्खा हुआ है। (तस्मिन् अन्तरा) उस [शरीर] के भीतर (शवः) बल [गतिकारक वा वृद्धिकारक जीवात्मा] (अधि) अधिकारपूर्वक है, (तस्मात्) उस [जीवात्मा] से (अधि) ऊपर (शवः) बल [गतिकारक वा वृद्धिकारक परमात्मा] (उच्यते) कहा जाता है ॥३४॥

    भावार्थ

    विशाल आकाश के भीतर मेघ, वायु आदि पदार्थ हैं। उस आकाश के भीतर सब शरीर हैं, शरीरों में चेतन्य जीवात्मा अधिष्ठाता है। उस जीवात्मा का भी अधिष्ठाता सर्वनियन्ता परमात्मा है ॥३४॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ३४−(अप्सु) आपः=अन्तरिक्षम्-निघ–० १।३। अन्तरिक्षे। आकाशे (स्तीमासु) ष्टीम आर्द्रीभावे-पचाद्यच्। आर्द्रं कुर्वतीषु। वाष्पयुक्तासु (वृद्धासु) वृद्धियुक्तासु (शरीरम्) (अन्तरा) मध्ये (हितम्) धृतम् (तस्मिन्) शरीरे (शवः) अ० ५।२।२। श्वेः सम्प्रसारणं च। उ० ४।१५३। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-असुन्। बलम्-निघ० २।९। गतिकरं वृद्धिकरं वा जीवात्मरूपं बलम् (अधि) उपरि (तस्मात्) जीवात्मनः सकाशात् (शवः) गतिकरं वृद्धिकरं वा परमात्मरूपं बलम् (अधि) उपरि (उच्यते) कथ्यते ॥

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    विषय

    अप्सु शरीरम्, शरीरे शवः

    पदार्थ

    १. (वृद्धासु) = बढ़े हुए (स्तीमासु) = गीला कर देनेवाले (अप्सु अन्तरा) = जलों के भीतर (शरीरम् हितम्) = यह शरीर रक्खा हुआ है। आप: रेतो भूत्वा०' जल ही रेत:कणों का रूप धारण करते हैं। इन्हीं से शरीर का निर्माण होता है। (तस्मिन् अधि अन्तरा) = उस शरीर के भीतर (शव:) = यह गति देनेवाला आत्मतत्त्व है। (तस्मात्) = गति देने के कारण ही (शव:) = यह गति का स्रोत बलवान् आत्मा (अधि उच्यते) = अधिष्ठातरूपेण कहा जाता है।

    भावार्थ

    रेत:कणरूप जलों में शरीर की स्थिति है। शरीर में आत्मा की, आत्मा ही इसे गति देता है, अत: आत्मा इसका अधिष्ठाता कहा जाता है।

    अगले सूक्त का ऋषि कांकायन है-कंक का अपत्य । कंक गतौ togo धातु से कंक शब्द बना है। यह प्रजाओं का क्षतों से त्राण करनेवाले क्षत्रिय का वाचक है। यह क्षत्रिय 'अर्बुदि' है [अर्ब to go to kill] यह शत्रुओं के प्रति आक्रमण करता है और उनका संहार करता है -

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    भाषार्थ

    (वृद्धासु) बढ़े हुए, (स्तीमासु) तथा अनाद्र गर्भ को आर्द्र करते हुए (अप्सु) जलों के (अन्तरा) मध्य में (शरीरम्) शरीर (हितम्) निहित होता है। (तस्मिन्) उस शरीर के (अन्तरा) मध्य में (अधि) अधिष्ठातृरूप में (शवः) बलस्वरूप या बली जीवात्मा होता है, (तस्मात्) इस कारण (शवः) बलस्वरूप या बली जीवात्मा (अधि) शरीर का अधिष्ठाता१ (उच्यते) कहा जाता है।

    टिप्पणी

    [शवः बलनाम (निघं० २।९); शवः अर्श आद्यच् = बली। मन्त्र में मातृगर्भ में विद्यमान शरीर का वर्णन हुआ है। यह भी कहा है कि उस अवस्था का शरीर निरात्मक नहीं होता, अपितु उस में बलस्वरूप या बली जीवात्मा रहता है, जोकि शरीर का अधिष्ठाता हो कर उस की रक्षा तथा वृद्धि करता है। इन मन्त्रों में स्थान-स्थान पर “शरीरम्" का वर्णन हुआ है। साथ ही मन्त्र ३३ में कर्मों द्वारा जीवात्मा की त्रिविध गति का वर्णन करते हुए भिन्न-भिन्न योनियों में जीवात्मा के जाने का भी वर्णन हुआ है। अतः इस प्रसङ्गानुसार जीवात्मा के गर्भवास का वर्णन उचित ही प्रतीत होता है। स्तीमासु= ष्टीम् आर्द्रीभावे। ष्टीम= ष्टीम् + पचाद्यच्=ष्टीमासु-स्तीमासु]। [१. मन्त्र ३० में प्रजापति रूप में जीवात्मा को शरीर में अधिष्ठाता कहा है।]

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    विषय

    मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (अप्सु स्तीमासु वृद्धासु) उन बढ़े हुए, आर्द्र अर्थात् गीला कर देने या सदा तरो ताज़ा रखने वाले (अप्सु) जलों के (अन्तरा) भीतर यह (शरीरम् हितम्) शरीर स्थित हैं। अर्थात् जलों पर शरीरों का सदा बहार जीवन स्थिर है। (तस्मिन् अधि अन्तरा शवः) उसके भीतर बलस्वरूप आत्मा अधिष्ठाता रूप से रहता है। (तस्मात्) उसी कारण से (शवः अधि उच्यते) वह महान् आत्मा भी ‘शवः’ सर्व बलस्वरूप कहा जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Constitution of Man

    Meaning

    In the midst of the dynamic flow of life’s waters evolving within the fixed laws of Rtam, the human body is placed. In the midst of that body the human soul is placed over all else. For the reason that it rules over the body, mind and senses, it is called the master, the powerful, the free (though within the laws of Rtam and human karma).

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    Translation

    Within waters that are sluggish (? stima), old is the body placed; within that is might (? Sava, Savas); thence is it called might.

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    Translation

    In the midst of premeval moistening and growing waters body is placed to live. In that body the soul which is a great force lives with its all rights safe, therefore this soul is called Shava, the highest force and vigor.

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    Translation

    In the moist, unruffled, vast space the body is placed. In the body is the active, progressive soul. Higher than the soul is the Powerful, Advanced God.

    Footnote

    In space reside objects like cloud, air etc. In different regions of the space reside all the bodies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३४−(अप्सु) आपः=अन्तरिक्षम्-निघ–० १।३। अन्तरिक्षे। आकाशे (स्तीमासु) ष्टीम आर्द्रीभावे-पचाद्यच्। आर्द्रं कुर्वतीषु। वाष्पयुक्तासु (वृद्धासु) वृद्धियुक्तासु (शरीरम्) (अन्तरा) मध्ये (हितम्) धृतम् (तस्मिन्) शरीरे (शवः) अ० ५।२।२। श्वेः सम्प्रसारणं च। उ० ४।१५३। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-असुन्। बलम्-निघ० २।९। गतिकरं वृद्धिकरं वा जीवात्मरूपं बलम् (अधि) उपरि (तस्मात्) जीवात्मनः सकाशात् (शवः) गतिकरं वृद्धिकरं वा परमात्मरूपं बलम् (अधि) उपरि (उच्यते) कथ्यते ॥

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