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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 20
    ऋषिः - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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    स्तेयं॑ दुष्कृ॒तं वृ॑जि॒नं स॒त्यं य॒ज्ञो यशो॑ बृ॒हत्। बलं॑ च क्ष॒त्रमोज॑श्च॒ शरी॑र॒मनु॒ प्रावि॑शन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तेय॑म् । दु॒:ऽकृ॒तम् । वृ॒जि॒नम् । स॒त्यम् । य॒ज्ञ: । यश॑: । बृ॒हत् । बल॑म् । च॒ । क्ष॒त्रम् । ओज॑: । च॒ । शरी॑रम् । अनु॑ । प्र । अ॒वि॒श॒न् ॥१०.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तेयं दुष्कृतं वृजिनं सत्यं यज्ञो यशो बृहत्। बलं च क्षत्रमोजश्च शरीरमनु प्राविशन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तेयम् । दु:ऽकृतम् । वृजिनम् । सत्यम् । यज्ञ: । यश: । बृहत् । बलम् । च । क्षत्रम् । ओज: । च । शरीरम् । अनु । प्र । अविशन् ॥१०.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्तेयम्) चोरी, (दुष्कृतम्) दुष्टकर्म, (वृजिनम्) पाप, (सत्यम्) सत्य [यथार्थ कथन कर्म आदि], (यज्ञः) यज्ञ [देवपूजा आदि] और (बृहत्) वृद्धिकारक (यशः) यश, (बलम्) बल (च) और (ओजः) पराक्रम (च) और (क्षत्रम्) हानि से रक्षक गुण [क्षत्रियपन] ने (शरीरम्) शरीर में (अनु) धीरे-धीरे (प्र अविशन्) प्रवेश किया ॥२०॥

    भावार्थ

    मनुष्य के दुष्ट विचारों से चोरी आदि दुष्ट कर्म और उनके नरक आदि बुरे फल और शुभ विचारों से सत्य कर्म आदि उत्तम कर्म और उनके मोक्ष आदि उत्तम फल शरीर द्वारा प्राप्त होते हैं ॥२०॥

    टिप्पणी

    २०−(स्तेयम्) चौरत्वम् (दुष्कृतम्) दुष्टकर्म (वृजिनम्) अ० १।१०।३। पापम् (सत्यम्) यथार्थकथनादिकर्म (यज्ञः) देवपूजादिव्यवहारः (यशः) कीर्तिः (बृहत्) सुखवृद्धिकरम् (बलम्) (च) (क्षत्रम्) अ० २।१५।४। क्षत्+त्रैङ् पालने-क। क्षतः क्षतात्, हानेः रक्षकं क्षत्रियत्वम् (खोजः) पराक्रमः (च) अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    स्तेयम्-सत्यम्

    पदार्थ

    १. (स्तेयम्) = चोरी की वृत्ति, (दुष्कृतम्) = दुष्कर्म, (वृजिनम्) = पाप [crime दुष्कृत, पाप sin], (सत्यम्) = यथार्थकथन, (यज्ञः) = याग, (यश:) = कीर्ति, (बृहत् बलं च) = वृद्धि का कारणभूत बल, (क्षत्रम्) = क्षतों से त्राण करनेवाली शक्ति, (ओजः च) = और ओजस्विता-इन सबने (शरीरम् अनु प्राविशन्) = शरीर में प्रवेश किया।

    भावार्थ

    जहाँ शरीर में चोरी आदि भावों का उद्गम हुआ वहाँ सत्य आदि का भी प्रादुर्भाव हुआ।

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    भाषार्थ

    (स्तेयम्) चोरी, (दुष्कृतम्) दुष्कर्म, (वृजिनम्) वर्जनीय अन्य दुराचार (सत्यम्) सत्य अर्थात् यथार्थ ज्ञान, यथार्थ कथन, (यज्ञः) यज्ञ कर्म, (यशः) सत्कर्मो के कारण हुआ यश अर्थात् सुप्रसिद्धि, (बृहत्) बढ़प्पन, (च बलम्) और शारीरिक बल, (क्षत्रम्) क्षात्र शक्ति या क्षतिप्राप्त व्यक्तियों का त्राण, (च ओजः) और ओजस्विता,–ये (अनु) पीछे (शरीरम् प्राविशन्) शरीर में प्रविष्ट हुए। अथवा "बृहत् यशः" = महायश। पैपल्लाद शाखा में बृहत् के स्थान में "सहः" पाठ हैं।

    टिप्पणी

    [जन्म के अनन्तर, शनैः शनैः, कई दुर्गुण तथा कई सद्गुण शरीर में प्रविष्ट होते रहते हैं]।

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    विषय

    मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    इसी प्राणादि के प्रवेश के बाद ही (स्तेयं) चोरी का भाव, (दुष्कृतं) दुष्टाचार की प्रवृत्ति, (वृजिनं) पाप कर्म, और (सत्यं यज्ञः यशः बृहत्) सत्य, यज्ञ और बड़ा यश और (बलं च क्षत्रम् ओजः च) बल, क्षत्र वीर्य और तेज भी (शरीरम् अनु प्राविशन्) शरीर में प्रविष्ट होते हैं।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘यशः सह’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Constitution of Man

    Meaning

    Thieving, evil habits and actions, unacceptable behaviour, Truth, Yajna, honour and excellence, and broad-mindedness, honourable sense of valour, protection and social order, lustre and glory, all these followed together and entered the body.

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    Translation

    Theft, ill-doing, wrong, truth, sacrifice, great glory, both strength, dominion, and force, éntered the body afterward.

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    Translation

    Intention of stealing, evil-doing, deciet, truth Yajna, exalted fame, strength and princely power enter the body.

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    Translation

    Theft, evil-doing, deceit, truth, sacrifice exalted fame, strength, martial spirit, and energy then entered the body as a home.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०−(स्तेयम्) चौरत्वम् (दुष्कृतम्) दुष्टकर्म (वृजिनम्) अ० १।१०।३। पापम् (सत्यम्) यथार्थकथनादिकर्म (यज्ञः) देवपूजादिव्यवहारः (यशः) कीर्तिः (बृहत्) सुखवृद्धिकरम् (बलम्) (च) (क्षत्रम्) अ० २।१५।४। क्षत्+त्रैङ् पालने-क। क्षतः क्षतात्, हानेः रक्षकं क्षत्रियत्वम् (खोजः) पराक्रमः (च) अन्यत् पूर्ववत् ॥

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