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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    ईळि॑ष्वा॒ हि प्र॑ती॒व्यं१॒॑ यज॑स्व जा॒तवे॑दसम् । च॒रि॒ष्णुधू॑म॒मगृ॑भीतशोचिषम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ईळि॑ष्व॑ । हि । प्र॒ती॒व्य॑म् । यज॑स्व । जा॒तऽवे॑दसम् । च॒रि॒ष्णुऽधू॑मम् । अगृ॑भीतऽशोचिषम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईळिष्वा हि प्रतीव्यं१ यजस्व जातवेदसम् । चरिष्णुधूममगृभीतशोचिषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईळिष्व । हि । प्रतीव्यम् । यजस्व । जातऽवेदसम् । चरिष्णुऽधूमम् । अगृभीतऽशोचिषम् ॥ ८.२३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथाग्नित्वधर्मवतो विदुषो गुणा वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    हे याज्ञिक ! (प्रतीव्यम्) शत्रुषु प्रति गमनशीलम् (ईळिष्व, हि) स्तुह्येव (जातवेदसम्) यो जातं सर्वं प्राणिसमूहं वेत्ति तम् (चरिष्णुधूमम्) यस्य शस्त्रास्त्रसम्बन्धीधूमः चरिष्णुः (अगृभीतशोचिषम्) अग्राह्यप्रतापम् ईदृशं विद्वांसम् (यजस्व) पूजय ॥१॥

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    विषयः

    अग्निगुणाध्येतव्यतां दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे विद्वन् ! अग्निमीडिष्व=अग्निगुणान् प्रकाशय । हि=निश्चयेन । प्रतीव्यम्=सर्वप्रत्युपकारकम् । जातवेदसम् । यजस्व । कीदृशम् । चरिष्णुधूमम् । पुनः । अगृभीतशोचिषम्= अगृह्यमाणतेजस्कम् ॥१ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अग्नित्वधर्मवाले विद्वान् के गुण वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    हे याज्ञिक ! (प्रतीव्यम्) जो शत्रुओं के प्रति निरन्तर यात्रा करता है, ऐसे विद्वान् की (ईळिष्व, हि) निश्चय स्तुति करो और (जातवेदसम्) “जातं जातं वेत्ति इति जातवेदाः”=जो सकल प्राणिवर्ग को जानता है तथा (चरिष्णुधूमम्) जिसके शस्त्रास्त्रों का धूम आकाश में फैल रहा है (अगृभीतशोचिषम्) जिसके तेज की कोई धर्षणा नहीं कर सकता, ऐसे विद्वान् का (यजस्व) पूजन करो ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा आज्ञा देते हैं कि हे याज्ञिक जनो ! जिन शूरवीरों के बाणों का धूम नभोमण्डल तक व्याप्त हो जाता है, जिनका जगत् में कोई भी अपमान नहीं कर सकता और जो अपने शौर्य्य-क्रौर्य्यादि तेज से सबको तिरस्कृत करते हैं, आप लोग उनका पूजन=सत्कार करो ॥१॥

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    विषय

    अग्नि के गुणों का अध्ययन कर्त्तव्य है, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (अग्निम्+ईडिष्व) अग्नि के गुण प्रकाशित करो (हि) निश्चय (प्रतीव्यम्) जो अग्नि सबका उपकारक है, (जातवेदसम्) जो सब भूतों में व्याप्त है, (यजस्व) उस अग्नि द्वारा यजन करो । पुनः वह अग्नि कैसा है, (चरिष्णुधूमम्) जिसका धूम चारों तरफ फैल रहा है, (अगृभीतशोचिषम्) जिसके तेज के तत्त्व से लोग परिचित नहीं हैं ॥१ ॥

    भावार्थ

    वास्तव में हम लोग अग्नि के गुणों से सर्वथा अपरिचित हैं, इसलिये वेद में पुनः-२ अग्निगुणज्ञानार्थ उपदेश है ॥१ ॥

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    विषय

    अग्नि-उपासना के साथ २ अध्यात्म उपासना।

    भावार्थ

    जिस प्रकार अग्नि ( प्रतीव्यः ) प्रत्यक्ष में कान्तियुक्त ( जातवेदाः ) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में विद्यमान, ( चरिष्णु-धूमः ) फैलने वाले धूम वाला, ( अगृभीत-शोचिः ) न स्पर्श करने योग्य ज्वाला वाला होता है उसी प्रकार हे मनुष्य तू ( प्रतीव्यं ) प्रत्यक्षतः कान्तिमान् तेजोमय ( जातवेदसम् ) समस्त पदार्थों को जानने वाले, ( चरिष्णु-धूमम् ) विश्वभर में व्यापक सञ्चालक शक्ति वाले, ( अगृभीत-शोचिषम् ) अपरिचित वा प्रत्यक्ष चक्षुओं से न दीखने योग्य तेज वाले, प्रभु परमेश्वर की ( हि ) अवश्य ( ईडिष्व ) उपासना कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रतीव्यं ईडिष्व

    पदार्थ

    [१] उस प्रभु का तू (ईडिष्व) = स्तवन कर, जो (हि) = निश्चय से (प्रतीव्यम्) = [प्रति+वी] काम-क्रोध आदि शत्रुओं के प्रति जानेवाले हैं, उन पर आक्रमण करनेवाले हैं। 'काम' स्मर है, या सदा सांसारिक विषयों के प्रति हमें उत्कण्ठित करता है। पर प्रभु 'स्मर-हर' हैं। इस काम-वासना का विनाश करनेवाले हैं। इन (जातवेदसम्) = सर्वज्ञ प्रभु का (यजस्व) = तू पूजन कर, इन प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला बन । प्रभु के ज्ञान से ज्ञान सम्पन्न बनकर तू ज्ञानाग्नि में वासनाओं का विध्वंस कर पायेगा। [२] वे प्रभु (चरिष्णुधूमम्) = गति के स्वभाववाले व सब दुर्भावों को कम्पित करके दूर करनेवाले हैं। गतिमयता ही वस्तुतः वासनाओं के आक्रमण से बचने का मार्ग है। इस 'चरिष्णु धूम' का यजन करता हुआ उपासक भी सदा क्रियाशील होता है, अतएव वासनाओं के आक्रमण से बचा रहता है। (अगृभीत शोचिषम्) = इस प्रभु की ज्ञानदीप्ति कभी भी किसी आवरण से गृभीत नहीं होती, अनावृत्त ज्योतिवाले वे प्रभु सदा ही दीप्त हैं। इनका उपासक भी अपनी ज्ञान - ज्योति को 'काम-वासना' रूप वृत्त से आवृत नहीं होने देता।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का उपासन इस रूप में करें कि वे प्रतीव्य हैं, हमारी वासनाओं पर आक्रमण करके उन्हें नष्ट करनेवाले हैं। (जातवेदसम्) = सर्वज्ञ हैं। चरिष्णुधूम हैं, स्वाभाविक क्रियावाले व वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाले हैं। (आगृभीत शोचिम्) = अनावृत ज्ञान ज्योतिवाले हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Study, celebrate and by yajna develop the fire divine, immanent and omnipresent energy, versatile power whose smoke rises freely and whose light of flame no one comprehends, no one can obstruct.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वास्तविक आम्ही अग्नीच्या गुणांशी सर्वस्वी अपरिचित आहोत. त्यासाठी वेदामध्ये पुन्हा पुन्हा अग्नीगुणाच्या ज्ञानाचा उपदेश केलेला आहे. ॥१॥

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