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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 18
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    विश्वे॒ हि त्वा॑ स॒जोष॑सो दे॒वासो॑ दू॒तमक्र॑त । श्रु॒ष्टी दे॑व प्रथ॒मो य॒ज्ञियो॑ भुवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑ । हि । त्वा॒ । स॒ऽजोष॑सः । दे॒वासः॑ । दू॒तम् । अक्र॑त । श्रु॒ष्टी । दे॒व॒ । प्र॒थ॒मः । य॒ज्ञियः॑ । भु॒वः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वे हि त्वा सजोषसो देवासो दूतमक्रत । श्रुष्टी देव प्रथमो यज्ञियो भुवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वे । हि । त्वा । सऽजोषसः । देवासः । दूतम् । अक्रत । श्रुष्टी । देव । प्रथमः । यज्ञियः । भुवः ॥ ८.२३.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (सजोषसः, विश्वे, देवासः) सहजुषमाणाः सर्वे राजानः (त्वा, हि, दूतम्, अक्रत) त्वां हि दूतम्=अनर्थवारकम् अकृषत “दूतो जवतेर्वा द्रवतेर्वा वारयतेर्वा” नि० ५।२। अतः (देव) हे दिव्यतेजः ! (प्रथमः, यज्ञियः) आद्य एव यज्ञोपस्थाता (श्रुष्टी) क्षिप्रम् (भुवः) भूयाः ॥१८॥

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    विषयः

    तस्य प्राथम्यं दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे ईश ! विश्वे+देवासः=सर्वे देवा ज्ञानिनो जनाः । सजोषसः=संगताः सन्तः । त्वा हि दूतम् । अक्रत=कुर्वन्ति । हे देव ! श्रुष्टी=श्रोता क्षिप्रं वा । प्रथमो यज्ञियः । भुवः=भवसि ॥१८ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (सजोषसः) परस्पर प्रेमभाव से वर्तमान (विश्वे, देवासः) सब राजा लोग (त्वा, हि, दूतम्, अक्रत) आप ही को आपत्तिनिवारक पद पर स्थापित करते हैं, इससे (देव) हे दिव्य तेजवाले ! (प्रथमः, यज्ञियः) सबसे प्रथम यज्ञ में उपस्थाता आप ही (श्रुष्टी) शीघ्र (भुवः) हों ॥१८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में यह आदेश किया है कि जिस देश में सम्पूर्ण शासक लोग विद्वान् योद्धाओं को अपना संरक्षक बनाते हैं, वह देश शीघ्र ही उत्क्रान्ति को प्राप्त होता है ॥१८॥

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    विषय

    उसकी प्रधानता दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे ईश ! (विश्वे+देवासः) सकल ज्ञानीजन (सजोषसः) मिल-जुलकर (त्वा+हि+दूतम्+अक्रत) तुझको ही दूत बनाते हैं । अथवा तुझको ही अपना उपास्य देव मानते हैं । इसलिये हे देव ! तू (श्रुष्टी) स्तुतियों का श्रोता अथवा शीघ्र (प्रथमः+यज्ञियः+भुवः) सर्वश्रेष्ठ पूज्य हुआ है ॥१८ ॥

    भावार्थ

    सकल विद्वान् प्रथम ईश्वर को ही पूजते हैं, अतः इतर जन भी उनका ही अनुकरण करें, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥१८ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (देव) प्रकाशस्वरूप ! ज्ञानैश्वर्य के देने वाले ! (स-जोषसः) समान प्रीति से युक्त ( विश्वे हि देवासः ) सब विद्वान् तेरी कामना करने वाले और तुझे चाहने वाले जन ( त्वा ) तुझ को ( दूतम् अक्रत ) अपना संदेशहर, ज्ञानदाता स्वीकार करते हैं। हे ( देव ) देव ! तू ही ( श्रुष्टी ) शीघ्र ( प्रथमः ) सब से प्रथम ( यज्ञियः भुवः) सर्वोपास्य है । ( २ ) इसी प्रकार विद्वान् लोग अग्नि, विद्युत् को एवं विद्वान् ज्ञानी को अपना संदेशहर दूत बनाते हैं। वह अग्नि ही प्रथम यज्ञ का साधन बनाया गया है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रथमः यज्ञियः

    पदार्थ

    [१] हे अग्ने ! (विश्वे) = सब (देवासः) = देव वृत्ति के पुरुष (सजोषसः) = समान रूप से प्रीतिवाले होकर उपासना करते हुए (हि) = निश्चय से (त्वा) = आपको (दूतं अक्रत) = ज्ञान का सन्देश प्राप्त करानेवाला बनाते हैं। अर्थात् आप की उपासना करते हुए हृदयस्थ आपके द्वारा ज्ञान को प्राप्त करने के लिये यत्नशील होते हैं। [२] हे देव प्रकाशमय प्रभो! आप ही (श्रुष्टी) = शीघ्र (प्रथमः) = सर्वमुख्य (यज्ञियः) = उपासनीय (भुवः) = होते हैं। सब को आपकी ही उपासना करनी योग्य है। आपकी उपासना से ही पवित्र हृदय बनकर हम आपके द्वारा ज्ञान-सन्देश को सुननेवाले बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- देव वृत्ति के पुरुष परस्पर मिलकर प्रीतिपूर्वक प्रभु का उपासन करते हैं। इस प्रकार प्रभु से ज्ञान - सन्देश को प्राप्त करनेवाले होते हैं। प्रभु ही सर्वमुख्य उपासनीय हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All the brilliant sages and scholars of the world in unison with love accept you, Agni, as the messenger of Divinity, and, being the fastest carrier, O brilliant and generous power, you become the first adorable yajaka of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    संपूर्ण विद्वान प्रथम ईश्वरालाच पूजतात. त्यासाठी इतरांनीही त्यांचेच अनुकरण करावे, ही शिकवण दिली जाते. ॥१८॥

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