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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 12
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    स त्वं न॑ ऊर्जां पते र॒यिं रा॑स्व सु॒वीर्य॑म् । प्राव॑ नस्तो॒के तन॑ये स॒मत्स्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । त्वम् । नः॒ । ऊ॒र्जा॒म् । प॒ते॒ । र॒यिम् । रा॒स्व॒ । सु॒ऽवीर्य॑म् । प्र । अ॒व॒ । नः॒ । तो॒के । तन॑ये । स॒मत्ऽसु॑ । आ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स त्वं न ऊर्जां पते रयिं रास्व सुवीर्यम् । प्राव नस्तोके तनये समत्स्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । त्वम् । नः । ऊर्जाम् । पते । रयिम् । रास्व । सुऽवीर्यम् । प्र । अव । नः । तोके । तनये । समत्ऽसु । आ ॥ ८.२३.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (ऊर्जाम्, पते) हे बलानां पतेऽग्ने ! (सः, त्वम्) तादृशसमर्थस्त्वम् (नः) अस्माकम् (सुवीर्यम्) सुपराक्रमपूर्णम् (रयिम्) द्रव्यम् (रास्व) देहि (नः) अस्माकम् (तोके) पुत्रे (तनये) पौत्रे (समत्सु) संग्रामेषु वा रक्षितव्यम् (आ, प्राव) तत्समन्ताद्रक्ष ॥१२॥

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    विषयः

    तस्य प्रार्थनां दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे ऊर्जांपते=अन्नानां बलानाञ्च स्वामिन् ! स त्वम् । नः=अस्मभ्यम् । सुवीर्य्यम् । रयिम् । रास्व=देहि । समत्सु=संग्रामेषु । नोऽस्माकम् । तोके=पुत्रे । तनये+आ= पौत्रे च । आ चार्थः । प्राव=प्ररक्ष ॥१२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (ऊर्जाम्, पते) हे बलों के स्वामी अग्नि ! (सः, त्वम्) वह आप (नः) हमारे (सुवीर्यम्) सुन्दर पराक्रम से पूर्ण (रयिम्, रास्व) द्रव्य को दें और (नः) हमारे (तोके) पुत्रों में (तनये) पौत्रों में अथवा (समत्सु) संग्रामों में जो रक्षितव्य पदार्थ हैं, उनको (आ, प्राव) सब ओर से सुरक्षित रक्खें ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि बलों के स्वामी योद्धाओं से सदैव प्रार्थना करनी चाहिये कि वह हमारी सन्तानों तथा ऐश्वर्य्य की रक्षा करें अर्थात् जो क्षात्रधर्मप्रधान क्षत्रियवर्ण है, वही ब्राह्मणादि अन्य वर्णों की रक्षा कर सकता है और अन्य वर्णों का काम केवल विद्या तथा धनादिकों का उपार्जन करना है, युद्ध करना नहीं ॥१२॥

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    विषय

    उसकी प्रार्थना दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (ऊर्जांपते) हे अन्नों और बलों के स्वामी ! (सः+त्वम्) वह तू (नः) हम लोगों को (सुवीर्य्यम्) वीरोपेत (रयिम्) अभ्युदय (रास्व) दे (समत्सु) संग्रामों में (नः) हम लोगों के (तोके) पुत्रों (आ) और (तनये) पौत्रों के साथ (प्राव) सहाय कर ॥१२ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर सर्वप्रद है । उससे जो माँगेंगे, वह प्राप्त तो होगा, परन्तु यदि वह पदार्थ हमारे लिये हानिकारी न हो, अतः शुभकर्म में हम निरन्तर रहें, उसी से हमारा कल्याण है ॥१२ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( ऊर्जां पते ) अन्नों और बलों के स्वामिन् ! ( सः त्वं ) वह तू ( नः ) हमें ( सुवीर्यं ) उत्तम वीर्ययुक्त ( रयिं ) ऐश्वर्य ( रास्व ) प्रदान कर। ( समत्सु) संग्रामों में (नः तोके तनये ) हमारे पुत्र पौत्रों के निमित्त हमारे धन की ( प्र-अव ) अच्छी प्रकार रक्षा कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    रयिम्-'सुवीर्यं'

    पदार्थ

    [१] हे (अर्जांपते) = बलों व प्राणशक्तियों के स्वामिन्! (सः त्वम्) = वे आप (नः) = हमारे लिये (सुवीर्यम्) = उत्तम वीर्य [पराक्रम] से युक्त (रयिम्) = ऐश्वर्य को (नः) = हमारे लिये (रास्व) = दीजिये । [२] इस प्रकार शक्तियुक्त धन को देकर आप (नः) = हमें (तोके) = सन्तानों के विषय में (तनये) = पौत्रों के विषय में तथा (समत्सु) = इन जीवन-संग्रामों में (आ) = सर्वथा (प्राव) = प्रकर्षेण रक्षित करिये। आप से रक्षण को प्राप्त करके ही हम अपने सन्तानों को उत्तम बना पायेंगे और इस संसार संग्राम में विजयी हो सकेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें उत्तम शक्तियुक्त धन को प्राप्त करायें। वे हमें सन्तानों को उत्तम बनाने में समर्थ करें तथा जीवन-संग्राम में विजय प्राप्त करायें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord protector of universal energy, pray bear, bring and bless us with manly vigour, and in the battles of life protect us and our children and grand children.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर सर्व देणारा आहे. त्याच्याकडून जे मागाल ते प्राप्त होईल; परंतु तो पदार्थ हानिकारक नसावा. त्यासाठी आम्ही नेहमी शुभ कर्म करावे. त्यातच आमचे कल्याण आहे. ॥१२॥

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