ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 24
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - आर्चीस्वराडुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
नू॒नम॑र्च॒ विहा॑यसे॒ स्तोमे॑भिः स्थूरयूप॒वत् । ऋषे॑ वैयश्व॒ दम्या॑या॒ग्नये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनू॒नम् । अ॒र्च॒ । विऽहा॑यसे । स्तोमे॑भिः । स्थू॒र॒यू॒प॒ऽवत् । ऋषे॑ । वै॒य॒श्व॒ । दम्या॑य । अ॒ग्नये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नूनमर्च विहायसे स्तोमेभिः स्थूरयूपवत् । ऋषे वैयश्व दम्यायाग्नये ॥
स्वर रहित पद पाठनूनम् । अर्च । विऽहायसे । स्तोमेभिः । स्थूरयूपऽवत् । ऋषे । वैयश्व । दम्याय । अग्नये ॥ ८.२३.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 24
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(वैयश्व, ऋषे) हे शक्तिमिच्छोर्याजक ऋषे ! (दम्याय) गृहहिताय (विहायसे) तेजोभिर्महते (अग्नये) शूरपतये (नूनम्) निश्चयम् (स्थूरयूपवत्) स्थूला यूपा यस्य तेन धनिना तुल्यम् (अर्च) पूजय ॥२४॥
विषयः
तस्मिन् काले परमात्मैव ध्येय इति दर्शयति ।
पदार्थः
हे वैयश्व=जितेन्द्रिय ! अश्वः=इन्द्रियगणः । विगतोऽश्वो यस्य स व्यश्वः । स एव वैयश्वः । ऋषे=कवे ! स्थूरयूपवत्= स्थूलयूपो याज्ञिकस्तद्वत् । स्तोमेभिः=स्तोत्रैः सह । विहायसे= महते । दम्याय=गृहपतये । दमो गृहम् । अग्नये । नूनम् । अर्च=पूजय=गाय ॥२४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(वैयश्व, ऋषे) हे विगत शक्तिवाले यजमान के याजक ऋषि ! आप (दम्याय) जो गृहों के हितकारक हैं, ऐसे (विहायसे) महान् (अग्नये) शूरपति के अर्थ (नूनम्) निश्चय (स्थूरयूपवत्) स्थूल स्तम्भवाले गृहों में रहनेवाले धनिकों के समान उत्साहसहित (अर्च) पूजन करो ॥२४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में यह वर्णन किया है कि यज्ञनिर्माता यजमान का कर्तव्य है कि वह युद्धविद्यावेत्ता वीरों के लिये सुन्दर=सुखदायक तथा युद्धयोग्य गृहों का निर्माण करे, ताकि वे सब प्रकार की बाधाओं से रहित होकर देश को सुरक्षित रखें ॥२४॥
विषय
उस काल में परमात्मा ही ध्येय है, यह इससे दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(वैयश्व) हे जितेन्द्रिय (ऋषे) कविगण (स्थूरयूपवत्) याज्ञिक पुरुषों के समान (स्तोमेभिः) स्तुतियों के द्वारा (अग्नये) परमात्मा की कीर्ति को (नूनमर्च) निश्चय गान करे, जो (विहायसे) सर्वव्यापक और (दम्याय) गृहपति है ॥२४ ॥
भावार्थ
यहाँ परमात्मा स्वयं आज्ञा देता है कि मेरी अर्चना करो और मुझको विहायस्=महान् व्यापक और दम्य=गृहपति समझो । अर्थात् मुझको परिवार में ही सम्मिलित समझो ॥२४ ॥
विषय
अग्नि तुल्य गुणों वाले प्रभु से प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे ( वैयश्व ऋषे ) जितेन्द्रिय ज्ञानदर्शिन् मनुष्य ! तू ( दम्याय अग्नये ) गृह में स्थापन करने योग्य गार्हपत्याग्नि के समान (दम्याय अग्नये ) सब संसार को दमन करने में समर्थ, ज्ञानवान् ( विहायसे ) महान् प्रभु की ( स्थूर-यूपवत् ) बड़े २ यूपों से युक्त यज्ञ के समान ( नूनम् ) अवश्य ( स्तोमेभिः ) वेदमन्त्रों से ( अर्च ) उपासना किया कर । अध्यात्म में—( स्थूरयूपवत् ) स्थिर आत्मा वा सूर्य के समान सर्वप्रकाशक प्रभु की स्तुति किया कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञशीलता-तत्त्वदर्शन-प्रशस्तेन्द्रियता-उपासना
पदार्थ
[१] 'यूप' शब्द यज्ञस्तम्भ के लिये प्रयुक्त होता है। 'स्थूर यूप' वह व्यक्ति है, जिसके यज्ञस्तम्भ बड़े दृढ़ हैं। जो यज्ञशील है, जिसने यज्ञों के लिये समुचित यज्ञस्थली का घर में निर्माण किया है, वेद के आदेश के अनुसार सर्वप्रथम कक्ष 'हविर्धानं' ही बनाया है। यह 'स्थूर यूप' प्रभु का उपासक है 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः '। इस (स्थूरयूपवत्) = यज्ञशील पुरुष की तरह (नूनम्) = निश्चय से (विहायसे) = उस आकाशवत् व्यापक महान् प्रभु के लिये (स्तोमेभिः) = स्तुतियों के द्वारा (अर्च) = अर्चना कर। [२] हे (ऋषे) = तत्त्वद्रष्टः ! (वैयश्व) = विशिष्ट इन्द्रियाश्वोंवाले उपासक तू (दम्याय) = तुम्हारे गृह का हित करनेवाले उस (अग्नये) = अग्रेणी प्रभु के लिये अर्चना करनेवाला बन।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का उपासक यह है जो [क] यज्ञशील है [स्थूरयूप], [ख] तत्त्वद्रष्टा बनता है [ऋषि], [ग] इन्द्रियाश्वों को प्रशस्त बनाता है [वैयश्व]। ये प्रभु उपासक के गृह का कल्याण करते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Holy sage of mental and moral discipline, like a yajaka of eminence and unshakable faith, offer honour and reverence with songs of adoration and selfless service to Agni, presiding power of the home and infinite presence of the universe.
मराठी (1)
भावार्थ
येथे परमात्मा स्वत: आज्ञा देतो की, माझी अर्चना करा व मला विहायस = महान व्यापक व दम्य = गृहपती समजा. अर्थात मला तुमच्या कुटुंबात सामील करून घ्या. ॥२४॥
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