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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 14
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    श्रु॒ष्ट्य॑ग्ने॒ नव॑स्य मे॒ स्तोम॑स्य वीर विश्पते । नि मा॒यिन॒स्तपु॑षा र॒क्षसो॑ दह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रु॒ष्टी । अ॒ग्ने॒ । नव॑स्य । मे॒ । स्तोम॑स्य । वी॒र॒ । वि॒श्प॒ते॒ । नि । मा॒यिनः॑ । तपु॑षा । र॒क्षसः॑ । द॒ह॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रुष्ट्यग्ने नवस्य मे स्तोमस्य वीर विश्पते । नि मायिनस्तपुषा रक्षसो दह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रुष्टी । अग्ने । नवस्य । मे । स्तोमस्य । वीर । विश्पते । नि । मायिनः । तपुषा । रक्षसः । दह ॥ ८.२३.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (वीर, विश्पते, अग्ने) हे प्रजानां पालक वीराग्ने ! (मे, नवस्य, स्तोमस्य) मम नूतनस्य स्तोत्रस्य (मायिनः, रक्षसः) मायिकान् राक्षसान् विघ्नकर्तॄन् (तपुषा) तेजसा (श्रुष्टी, निदह) क्षिप्रं दह “श्रुष्टीति क्षिप्रमिति यास्कः” ॥१४॥

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    विषयः

    तस्य प्रार्थनां दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे वीर=हे विश्पते । अग्ने ! मे=मम । नवस्य+स्तोमस्य=नवं स्तोत्रम् । श्रुष्टी=श्रुत्वा । मायिनो रक्षसः । तपुषा=तापकेन तेजसा । निदह=नितराम् । भस्मीकुरु ॥१४ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (वीर, विश्पते, अग्ने) हे प्रजाओं के पालक वीर शूरपते ! (मे, नवस्य, स्तोमस्य) मेरे प्रारम्भ किये हुए स्तोत्रों के (मायिनः, रक्षसः) विघ्नकारक जो मायावी राक्षस हैं, उन्हें (तपुषा) अपने तेजसे (श्रुष्टी, निदह) शीघ्र भस्म करें। “श्रुष्टी” नाम शीघ्र का है, प्र० निरु० ६।१३। सायणोक्त श्रुत्वा अर्थ करना ठीक नहीं, क्योंकि स्नात्व्यादि गण में मानने पर भी वलोप अप्रामाणिक ही मानना पड़ेगा ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में यह वर्णन किया है कि ज्ञानयज्ञ, कर्मयज्ञ, उपासनात्मकयज्ञ तथा ऐश्वर्य की वृद्धि करनेवाले विश्वजिदादि याग, इन सब यज्ञों की रक्षा के लिये बाणविद्यावेत्ता योद्धा ही याज्ञिकों को सुरक्षित रखते हैं, अन्य नहीं, इसलिये प्रजाजनों को उचित है कि विघ्नकारक राक्षसों को शीघ्र भस्म करने के लिये क्षात्रधर्म को सुरक्षित रक्खें ॥१४॥

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    विषय

    उसकी प्रार्थना दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (वीर) हे महावीर ! (विश्पते) हे प्रजाओं के अधिपति (अग्ने) सर्वाधार ! (मे) मेरे (नवस्य+स्तोमस्य) नूतन स्तोत्रों को (श्रुष्टी) सुनकर (मायिनः+रक्षसः) मायी राक्षसों को (तपुषा) अपने तापक तेज से (निदह) अत्यन्त भस्म कर दे ॥१४ ॥

    भावार्थ

    आन्तरिक दुर्गुण ही महाराक्षस हैं । अपने में परमात्मा की स्थिति के परिज्ञान से प्रतिदिन उनकी क्षीणता होती जाती है । अतः ऐसी प्रार्थना की जाती है ॥१४ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( वीर विश्पते ) शूरवीर प्रजा के पालक ! ( अग्ने ) तेजस्विन् ! तू (मे स्तोमस्य) मेरे स्तुत्य वचन को ( श्रुष्टी ) श्रवण करके शीघ्र ( मायिनः रक्षसः ) मायावी, राक्षस, दुष्ट पुरुष को ( नि दह) भस्म कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    मायावी राक्षसों का दहन

    पदार्थ

    [१] हे (वीर) = शत्रुओं के कम्पक, (विश्पते) = इस प्रकार प्रजाओं के रक्षक (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (मे) = मेरे से किये जानेवाले इस (नवस्य) = [नव गतौ] मुझे गतिमय जीवनवाला बनानेवाले (स्तोमस्य) = स्तोम का (श्रुष्टी) = श्रवण करके आप (मायिनः रक्षसः) = इन मायावी राक्षसी भावों को (तपुषा) = अपने तापक तेज से (निदह) = नितरां दग्ध कर दीजिये। [२] प्रभु का स्तवन जहाँ हमारे सामने एक उच्च लक्ष्य को उपस्थित करके विशिष्ट गति को पैदा करता है, वहाँ हमें यह स्तवन प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न बनाता है। यह प्रभु का तापक तेज सब राक्षसी भावों को दग्ध कर देता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। यह स्तवन हमें गतिमय व शक्ति सम्पन्न बनायेगा। यह शक्ति सब मायावी राक्षसी वृत्तियों को शीर्ण करनेवाली होगी।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Mighty brave Agni, lord of the people, saving spirit of life, hearing my new song of praise and prayer, bum off the destructive wiles of the evil forces with your heat.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आंतरिक दुर्गुणच महाराक्षस आहेत. आपल्यातील परमात्म्याच्या स्थितीच्या परिज्ञानाने प्रत्येक दिवशी त्यांची क्षीणता होत जाते. त्यासाठी अशी प्रार्थना केली जाते. ॥१४॥

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