ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 15
न तस्य॑ मा॒यया॑ च॒न रि॒पुरी॑शीत॒ मर्त्य॑: । यो अ॒ग्नये॑ द॒दाश॑ ह॒व्यदा॑तिभिः ॥
स्वर सहित पद पाठन । तस्य॑ । मा॒यया॑ । च॒न । रि॒पुः । ई॒शी॒त॒ । मर्त्यः॑ । यः । अ॒ग्नये॑ । द॒दाश॑ । ह॒व्यदा॑तिऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
न तस्य मायया चन रिपुरीशीत मर्त्य: । यो अग्नये ददाश हव्यदातिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठन । तस्य । मायया । चन । रिपुः । ईशीत । मर्त्यः । यः । अग्नये । ददाश । हव्यदातिऽभिः ॥ ८.२३.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(रिपुः, मर्त्यः) शत्रुर्जनः (मायया, चन) माययापि (तस्य, न, ईशीत) तन्नाभिभवेत् (यः) यो जनः (अग्नये) शूरपत्यर्थम् (हव्यदातिभिः) हव्यपदार्थदानैः (ददाश) परिचरति ॥१५॥
विषयः
उपासनामहिमानं प्रदर्शयति ।
पदार्थः
यो मनुष्यः । अग्नये=ईश्वरप्रीत्यर्थम् । हव्यदातिभिः=हव्यदानैः सह । ददाश=ददाति । तस्य । मर्त्यो रिपुः । मायया+चन=माययापि । न+ईशीत=ईश्वरो न भवति ॥१५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(रिपुः, मर्त्यः) शत्रुजन (मायया, चन) छल से भी (तस्य, न, ईशीत) उस पर प्रभाव नहीं डाल सकता (यः) जो (अग्नये) उस शूरपति को (हव्यदातिभिः) हव्यपदार्थों के दान से (ददाश) परिचरण करता है ॥१५॥
भावार्थ
जो पुरुष न्यायशील, सत्यपरायण तथा दृढ़व्रतधारी क्षात्रधर्म की रक्षा करते हैं, उन पर कोई मायावी राक्षस अपना प्रभाव नहीं डाल सकता ॥१५॥
विषय
उपासना की महिमा दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(यः) जो आदमी (अग्नये) ईश्वर की प्रीति के लिये (हव्यदातिभिः) हव्य पदार्थों के दान के साथ-२ (ददाश) अन्यान्य दान देता है, (तस्य) उस पुरुष के ऊपर (मर्त्यः+रिपुः) मानवशत्रु (मायया+चन) अपनी माया से (न+ईशीत) शासन नहीं कर सकता ॥१५ ॥
भावार्थ
ब्रह्मोपासक जनों को इस लोक में किसी से भय नहीं होता, क्योंकि उनकी शक्ति और प्रभाव पृथ्वी पर फैलकर सबको अपने वश में कर लेते हैं, उनका प्रताप सम्राट् से भी अधिक हो जाता है, परन्तु उपासना करने में मनोयोग की पूर्णता होनी चाहिये ॥१५ ॥
विषय
पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( यः ) जो ( अनये ) अभि में ( हव्य-दातिभिः ) हव्य चरु की आहुतियों द्वारा ( ददाश ) प्रदान करता है उसी प्रकार जो प्रजाजन ( अग्नये ) अग्रणी, तेजस्वी नायक राजा को ( हव्य-दातिभिः ) ग्राह्य कर-आदि अंशों से ( ददाश ) उसको प्रदान करता है ( तस्य ) उस पर ( रिपुः मर्त्यः ) शत्रु मनुष्य (मायया चन) माया, कुटिल बुद्धि से भी (न चन ईशीत) कभी अधिकार नहीं कर सकता। इसी प्रकार जो विद्वानों को अन्नादि से पालता है शत्रु उससे बुद्धि बल से बढ़ नहीं सकता। परमेश्वर के प्रति स्तुत्य वचनों से जो अपने को सौंपता है शत्रु उस पर छल कपट से वश नहीं कर सकता है। इत्येकादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
कामदेव 'स्मर' है, तो प्रभु 'स्मर-हर' हैं
पदार्थ
[१] (यः) = जो भी उपासक (हव्यदातिभिः) = हव्यों के देने के द्वारा, यज्ञशीलता के द्वारा भोगवृत्ति से ऊपर उठने के द्वारा (अग्नये =) उस अग्रेणी प्रभु के लिये ददाश अपना अर्पण कर देता है । जितना - जितना हम भोगों से ऊपर उठते हैं उतना उतना ही प्रभु के उपासक बनते हैं। (तस्य) = उस उपासक का यह (रिपुः) = हमें विदीर्ण कर देनेवाला (मर्त्यः) = मार, काम [देव] (मायया चन) = अपनी पूरी माया से भी (न ईशीत) = ईश नहीं बन पाता ।
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञशीलता से हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले बनें। ऐसी स्थिति में यह कामदेव हमें अपना शिकार न बना पायेगा।
इंग्लिश (1)
Meaning
Whoever offers homage to Agni with sacred oblations into the holy fire is safe, no mortal enemy even with the worst of his fraudulent power or sorcery can prevail over him or his home.
मराठी (1)
भावार्थ
ब्रह्मोपासक लोकांना या जगात कुणापासूनही भय नसते. कारण त्यांची शक्ती व प्रभाव पृथ्वीवर पसरून सर्वांना आपल्या वशमध्ये करतात. त्यांचा प्रताप सम्राटापेक्षाही जास्त असतो; परंतु उपासना करताना पूर्ण मनोयोग पाहिजे. ॥१५॥
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