ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 19
इ॒मं घा॑ वी॒रो अ॒मृतं॑ दू॒तं कृ॑ण्वीत॒ मर्त्य॑: । पा॒व॒कं कृ॒ष्णव॑र्तनिं॒ विहा॑यसम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । घ॒ । वी॒रः । अ॒मृत॑म् । दू॒तम् । कृ॒ण्वी॒त॒ । मर्त्यः॑ । पा॒व॒कम् । कृ॒ष्णऽव॑र्तनिम् । विऽहा॑यसम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं घा वीरो अमृतं दूतं कृण्वीत मर्त्य: । पावकं कृष्णवर्तनिं विहायसम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । घ । वीरः । अमृतम् । दूतम् । कृण्वीत । मर्त्यः । पावकम् । कृष्णऽवर्तनिम् । विऽहायसम् ॥ ८.२३.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(वीरः, मर्त्यः) यः वीरो मनुष्यः=राजा सः (अमृतम्) मृत्युभयरहितम् (पावकम्) पापानां शोधकम् (कृष्णवर्तनिम्) कर्षणयुक्तव्यापारम् (विहायसम्) तेजोभिर्महान्तम् (दूतम्, कृण्वीत) आपत्तिनिवारकं शूरपतिं कुर्यात् ॥१९॥
विषयः
स एव पूज्य इत्याज्ञापयति ।
पदार्थः
वीरो मर्त्यः । इमं+घ=सर्वत्र विद्यमानमिममीशमेव स्वोपासनीयम् । कृण्वीत=कुर्वीत । अमृतम् । दूतम्=विज्ञानादिसन्देशवाहकम् । पावकम्=शोधकम् । कृष्णवर्तनिम्=कृष्णानामाकर्षकाणां सूर्य्यादीनां प्रवर्तकम् । पुनः । विहायसम्=महान्तम् ॥१९ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(वीरः, मर्त्यः) वीरमनुष्य=राजा को उचित है कि वह जो (अमृतम्) मृत्यु से नहीं डरता (पावकम्) तथा सब जनों को पाप से निवर्तन करने में समर्थ (कृष्णवर्तनिम्) जिसका व्यापार सबके मन को आकर्षित करता है (विहायसम्) जो तेज में सबसे अधिक है, ऐसे मनुष्य को (दूतम्) आपत्तिनिवारक शूरपति (कृण्वीत) बनावे ॥१९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में यह वर्णन किया है जो विद्वान् योद्धा पाँच क्लेशों में से अभिनिवेश=मृत्यु के त्रास से सर्वथा रहित है अर्थात् जिसको मृत्यु का भय नहीं है, उसी का अपूर्ण कर्म=साहस प्रजाजनों को अपनी ओर खेंचता है, अन्यों का नहीं ॥१९॥ तात्पर्य्य यह है कि “नाकृत्वा दारुणं कर्म श्रीरुत्पद्यते क्वचित्” इस वाक्यानुसार जो एक बार भी भूकम्प के समान भयानक पापों को कम्पायमान नहीं कर देता, वह श्री=शोभा, लक्ष्मी तथा ऐश्वर्य्य को कदापि प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिये न्यायकारी ईश्वरोपासक पुरुषों को उचित है कि उक्त प्रकार के साहसी योद्धाओं को अपना संरक्षक बनावें, ताकि उनके यज्ञों में विघ्न न हों ॥१९॥
विषय
वही पूज्य है, यह आज्ञा देते हैं ।
पदार्थ
(वीरः+मर्त्यः) धर्मवीर पुरुष (इमम्+घ) इसी परमात्मा को (कृण्वीत) उपास्यदेव बनावें, जो (अमृतम्) सदा एकरस मरणरहित है (दूतम्) अन्तःकरण में ज्ञानादि सन्देश पहुँचानेवाला (पावकम्) शोधक (कृष्णवर्तनिम्) आकर्षणयुक्त सूर्य्यादिकों का प्रवर्तक (विहायसम्) और महान् है ॥१९ ॥
भावार्थ
जिस हेतु परमात्मा ही सबका चालक और धारक है, अतः उसी की पूजा प्रार्थना करो, यह उपदेश इससे देते हैं ॥१९ ॥
विषय
पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( वीरः मर्त्यः ) विशेष विद्वान् मनुष्य ( पावकं ) पवित्र करने वाले ( कृष्ण-वर्त्तनिम् ) पापों के नाशक व्यवहार वाले वा चित्ताकर्षक मार्ग वाले, वा (कृष्ण-वर्त्तनिं) आकर्षणशील सूर्यादि लोकों को अपने २ मार्गो से संचालन करने वाले, ( विहायसं ) महान् आकाशवत्, व्यापक ( इमं घ ) इस प्रभु को ही ( दूतं ) उपास्य ( कृण्वीत ) बनावे। (२) अग्नि भी शोधक होने से पावक है, कृष्णधूम को उत्पन्न करता वा जहां से गुजरता है जलाकर काला करता है वा मनुष्य आकर्षण करने वाले व्यापक विद्युत् को संदेशहर दूत बनावे, टेलिफोन, तार, रेडियो आदि यन्त्रों में प्रयोग करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अमृतं-पावकम्
पदार्थ
[१] (वीरः मर्त्यः) = शत्रुओं को, काम-क्रोध आदि को कम्पित करके दूर करनेवाला मनुष्य (धा) = निश्चय से (इमम्) = इस (अमृतम्) = अविनाशी प्रभु को (दूतम्) = ज्ञान के सन्देश का प्रापक (कृण्वीत) = करता है। प्रभु की उपासना करता हुआ पवित्र हृदय में प्रभु के सन्देश को सुनता है। [२] उस प्रभु को अपने लिये ज्ञान-सन्देश का प्राप्त करानेवाला बनाता है जो (पापकम्) = पवित्र करनेवाले हैं। (कृष्ण-वर्तनिम्) = सब पापों [कृष्ण] को नष्ट करनेवाले हैं [वर्तनिं उलटनेवाले] अथवा आकर्षक [कृष्णा] मार्ग [वर्तनि] वाले हैं और (विहायसम्) = महान् हैं, आकाशवत् व्यापक हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु पावक हैं। हम प्रभु की उपासना करते हुए इस अमृत प्रभु को ही अपना ज्ञान- सन्देश प्रापक बनायें । हृदयस्थ प्रभु से ज्ञान की प्रेरणा को प्राप्त करें। ज्ञान-सन्देश द्वारा पवित्र करते हुए प्रभु ही हमें अमृत बनाते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the brave mortal accept the imperishable and immortal Agni as the messenger of Divinity and medium of the dynamics of existence, purifier, agent of cosmic gravitation and sustenance and the mightiest natural power.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्माच सर्वांचा चालक व धारक आहे. त्यासाठी त्याचीच पूजा प्रार्थना करा. हा उपदेश यावरून मिळतो. ॥१९॥
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