ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 17
उ॒शना॑ का॒व्यस्त्वा॒ नि होता॑रमसादयत् । आ॒य॒जिं त्वा॒ मन॑वे जा॒तवे॑दसम् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒शना॑ । का॒व्यः । त्वा॒ । नि । होता॑रम् । अ॒सा॒द॒य॒त् । आ॒ऽय॒जिम् । त्वा॒ । मन॑वे । जा॒तऽवे॑दसम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उशना काव्यस्त्वा नि होतारमसादयत् । आयजिं त्वा मनवे जातवेदसम् ॥
स्वर रहित पद पाठउशना । काव्यः । त्वा । नि । होतारम् । असादयत् । आऽयजिम् । त्वा । मनवे । जातऽवेदसम् ॥ ८.२३.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(उशना, काव्यः) कामयमानः कविपुत्रः (निहोतारम्) नितरां यज्ञसम्पादकम् (त्वा, असादयत्) त्वामेव यज्ञप्रारम्भे स्थापयति (आयजिम्) सम्यग्यष्टारम् (जातवेदसम्) जातं जातं वेत्सि तम् (त्वा) त्वाम् (मनवे) मनुः स्यामित्यभिलाषाय स्थापयति ॥१७॥
विषयः
सर्वे तमेव स्तुवन्तीति दर्शयति ।
पदार्थः
हे ईश ! उशनाः=इच्छुकः । काव्यः=कविपुत्रो जनः । मनवे=मननाय । त्वामेव । नि+असादयत्=प्राप्नोति । कीदृशम् । होतारम् । आयजिम्=आयाजकम् । जातवेदसम्= सर्वज्ञानमयम्=जातसर्वसम्पत्तिकञ्च ॥१७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(उशना, काव्यः) आपकी इच्छा करनेवाला विद्वान् का पुत्र (निहोतारम्) सम्यक् यज्ञसम्पादक (त्वा) आपको (असादयत्) यज्ञ में उपस्थित करता है (आयजिम्) सम्यग् यजन करानेवाले (जातवेदसम्) प्राणिजात को जाननेवाले (त्वा) आपको ही (मनवे) मनु=ज्ञानी होने के लिये शरण बनाता है ॥१७॥
भावार्थ
भाव यह है कि जिस देश में उत्क्रान्तिवर्द्धक कवि उत्पन्न होते हैं, उस देश को परमात्मा, जो प्रत्येक प्राणीवर्ग में व्याप्त है, वह अपनी ज्ञानदीप्ति से उनको देदीप्यमान करता है ॥१७॥
विषय
सब उसी की स्तुति करते हैं, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे ईश ! (उशना) अभिलाषी (काव्यः) कविपुत्रगण (मनवे) मनन के लिये (त्वा) तुझको ही (नि+असादयत्) प्राप्त करते हैं, जो तू (होतारम्) सम्पूर्ण विश्व में अनन्त पदार्थों की आहुति दे रहा है और इस प्रकार (आयजिम्) वास्तविक यज्ञ भी तू ही कर रहा है और (जातवेदसम्) तेरे द्वारा ही जगत् की सम्पत्तियाँ उत्पन्न हुई हैं ॥१७ ॥
भावार्थ
वास्तव में वह ईश ही होता है । वही सर्वधनेश और याजक है ॥१७ ॥
विषय
पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( काव्यः ) कवि, विद्वान् क्रान्तदर्शी पुरुषों का पुत्र वा शिष्य अथवा स्वयं कवि, सर्वोपदेष्टा प्रभु का उपासक ( उशनाः) कामनावान् जीव ( मनवे ) मनुष्यमात्र के कल्याण के लिये ( होतारं ) सर्व सुखदाता, ( आयजिं) सब प्रकार से पूज्य ( जात-वेदसं ) सर्वज्ञानी, सर्वैश्वर्यवान् ( त्वा ) तुझे ही (वि-असादयत् ) सर्वात्मना प्राप्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
उशनाः काव्यः
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (उशनाः) = आपकी प्राप्ति की प्रबल कामनावाला (काव्यः) = यह क्रान्तप्रज्ञ तत्त्वदर्शी पुरुष (होतारम्) = सब ऐश्वर्यों के देनेवाले (त्वा) = आपको नि असादयत्-नम्रता से अपने हृदयासन पर बिठाता है। [२] उन (त्वा) = आपको अपने हृदयासन पर बिठाता है जो आप (आयजिम्) = समन्तात् सब पदार्थों में पूज्य हैं, जिन आपकी महिमा प्रत्येक पदार्थ में दिखती है। जो आप (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिये (जातवेदसम्) = [जाते-जाते विद्यते] प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान हो रहे हैं। एक विचारशील पुरुष को प्रत्येक पदार्थ में आपकी सत्ता का अनुभव होता है। वह पृथिवी में 'पुण्य गन्ध' के रूप में, जलों में 'रस' रूप में, अग्नि में 'तेज' के रूप में, वायु में 'गति' के रूप में व आकाश में 'शब्द' के रूप में आपको देखता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामनावाले तत्त्वद्रष्टा बनकर हम सर्वत्र उस प्रभु की सत्ता को देखने का प्रयत्न करें। ये प्रभु ही 'आयजि' हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
The lover with passion and the poet with paternal vision attain to you, Agni, high priest of the real cosmic yajna and immanent and omniscient presence in existence for the good of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
वास्तविक ईशच सर्वधनेश व याजक असतो. ॥१७॥
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