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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 13
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    यद्वा उ॑ वि॒श्पति॑: शि॒तः सुप्री॑तो॒ मनु॑षो वि॒शि । विश्वेद॒ग्निः प्रति॒ रक्षां॑सि सेधति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । वै । ऊँ॒ इति॑ । वि॒श्पतिः॑ । शि॒तः । सुऽप्री॑तः । मनु॑षः । वि॒शि । विश्वा॑ । इत् । अ॒ग्निः । प्रति॑ । रक्षां॑सि । से॒ध॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वा उ विश्पति: शितः सुप्रीतो मनुषो विशि । विश्वेदग्निः प्रति रक्षांसि सेधति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । वै । ऊँ इति । विश्पतिः । शितः । सुऽप्रीतः । मनुषः । विशि । विश्वा । इत् । अग्निः । प्रति । रक्षांसि । सेधति ॥ ८.२३.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 13
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (विश्पतिः, शितः) प्रजानां पतिः अप्रसहनः (अग्निः) स आग्नेयशस्त्रवेत्ता (यद्वा, उ) यदा हि (सुप्रीतः) सुप्रसन्नो भवति, तदा (मनुषः, विशि) मनुष्यस्य वेश्मनि (विश्वा, इत्, रक्षांसि) सर्वाण्येव रक्षांसि (प्रतिसेधति) पृथक्करोति ॥१३॥

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    विषयः

    तदीयगुणं दर्शयति ।

    पदार्थः

    यद्वै=यदा खलु । विश्पतिः=विशां स्वामी । शितः=सूक्ष्मकर्त्ता । अग्निरीशः । सुप्रीतः सन् । मनुषः=मनुषस्य । विशि=निवेशने स्थाने । भवति । तदा । विश्वा+इत्=विश्वान्येव । रक्षांसि=दुष्टान् । प्रतिसेधति=हिनस्ति ॥१३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (विश्पतिः, शितः) प्रजाओं का पालक तीक्ष्णक्रियावाला वह (अग्निः) आग्नेय शस्त्रवेत्ता विद्वान् (यद्वा, उ) जब ही (सुप्रीतः) सुप्रसन्न होता है, तब (मनुषः, विशि) मनुष्य के गृह में (विश्वा, इत्, रक्षांसि) सकल राक्षसों को (प्रतिसेधति) निकाल देता है ॥१३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि जिस देश में अग्निसमान देदीप्यमान योद्धा प्रसन्नचित्त रहते हैं, वहाँ राक्षस दस्युओं का प्रवेश कदापि नहीं हो सकता, अतएव ईश्वर आज्ञा देता है कि हे वैदिक लोगो ! तुम रक्षोहण सूक्तों का पाठ करते हुए अपने क्षत्रियवर्ग की पुष्टि में सदैव दत्तचित्त रहो, ताकि राक्षससमुदाय देश में प्रबल न हो ॥१३॥

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    विषय

    उसके गुण दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (यद्वै) जब (विश्पतिः) सम्पूर्ण प्रजाओं का अधिपति (शितः) सूक्ष्मकर्त्ता (अग्निः) सर्वान्तर्यामी परमात्मा (सुप्रीतः) सुप्रसन्न होकर (मनुषः+विशि) मनुष्य के स्थान में विराजमान होता है, (तदा) तब (विश्वा+इत्) सब ही (रक्षांसि) दुष्टों को (प्रतिषेधति) दूर कर देता है ॥१३ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! यदि दुर्जनों के दौर्जन्य का विध्वंस करना चाहते हो, तो उस परमदेव को अपने मन में स्थापित करो ॥१३ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( यत् वै उ विश्पतिः ) जब भी प्रजाओं का पालक ( शितः) तीक्ष्ण, बलवान् ( सुप्रीतः ) अच्छी प्रकार तृप्त, प्रसन्न होकर ( मनुषः विशि ) मनुष्यों के प्रजाजन के बीच विराजता है वह ( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी नायक ( विश्वा इत् रक्षांसि प्रति सेधति ) समस्त राक्षसों को उनका मुकाबला करके दूर करता है, उनका नाश कर देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु प्रसादन से राक्षसी भावों का विनाश

    पदार्थ

    [१] (यद्) = जब (वा उ) = निश्चय से (विश्पतिः) = सब प्रजाओं के रक्षक प्रभु (शितः) = तनूकृत होते हैं, अर्थात् जब हम अन्नमय आदि कोशों के आवरणों को हटाकर, 'मुञ्जाद् इव इषीकां' मूञ्ज से अलग करके जैसे सींक को, इसी प्रकार प्रभु को देखते हैं और जब वे प्रभु (सुप्रीतः) कर्त्तव्यपालन के द्वारा हमारे पर प्रीतिवाले होते हैं, तो वे (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (मनुषः विशि) = विचारशील पुरुष के इस शरीररूप गृह में (विश्वा इत्) = सब ही (रक्षांसि) = राक्षसी भावों को (प्रतिसेधति) = प्रतिषिद्ध करनेवाले होते हैं । [२] अन्नमय आदि कोशों का आवरण आ जाने से आत्मा स्थूल-सा प्रतीत होता है, इसी में आत्मा का व्यवहार होने लगता है। इन आवरणों को हटाते जायें तो मानो आत्मा तनूकृत होता चलता है। यही 'शितः' शब्द की भावना है। उत्तम कर्मों से हम इस आत्म स्थित प्रभु को प्रसन्न करते हैं। प्रभु हमारे सब राक्षसी भावों का विनाश करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु सब प्रजाओं के स्वामी हैं। जब हम प्रभु को उनके सूक्ष्मरूप में देख पाते हैं और स्वकर्त्तव्य कर्मों के करने के द्वारा उनकी आराधना कर पाते हैं, तो प्रभु हमारी सब अशुभ वृत्तियों को दूर कर देते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When Agni, presiding spirit of human life, is animated, energised and sharpened by yajna, then, active in the human settlements, it counters and dispels all evil influences and forces of negativity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जर दुर्जनांच्या दौर्जन्याचा विध्वंस करू इच्छिता तर त्या परमदेवाला आपल्या मनात स्थिर करा. ॥१३॥

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