ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 5
उदु॑ तिष्ठ स्वध्वर॒ स्तवा॑नो दे॒व्या कृ॒पा । अ॒भि॒ख्या भा॒सा बृ॑ह॒ता शु॑शु॒क्वनि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । ति॒ष्ठ॒ । सु॒ऽअ॒ध्व॒र॒ । स्तवा॑नः । दे॒व्या । कृ॒पा । अ॒भि॒ऽख्या । भा॒सा । बृ॒ह॒ता । शु॒शु॒क्वनिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु तिष्ठ स्वध्वर स्तवानो देव्या कृपा । अभिख्या भासा बृहता शुशुक्वनि: ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊँ इति । तिष्ठ । सुऽअध्वर । स्तवानः । देव्या । कृपा । अभिऽख्या । भासा । बृहता । शुशुक्वनिः ॥ ८.२३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(स्वध्वर) हे सुयाग ! (स्तवानः) याज्ञिकैः स्तूयमानः (देव्या) दिव्यया (कृपा) समर्थया (अभिख्या) प्रसिद्ध्या (बृहता) महत्या (भासा) शस्त्रादीनां दीप्त्या (शुशुक्वनिः) जाज्वल्यमान एव (उत्तिष्ठ, उ) तमभिगमनाय उत्तिष्ठ हि ॥५॥
विषयः
तदीयस्तुतिं दर्शयति ।
पदार्थः
हे स्वध्वर=शोभनयज्ञेश त्वम् ! देव्या=पूज्यया । कृपा=कृपया=युक्तः । अतः । स्तवानः=स्तूयमानः । अभिख्या=अभिख्यया=प्रसिद्धया । भासा=दीप्त्या सहितः । बृहता=तेजसा । शुशुक्वनिः=दीपनशीलस्त्वम् । उत्तिष्ठ+उ= उपासकानां हृदि उपस्थितो भव ॥५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(स्वध्वर) हे सुन्दर हिंसारहित यज्ञकर्ता ! (स्तवानः) याज्ञिकों द्वारा स्तुति किये गये आप (देव्या) दिव्य (कृपा) समर्थ (अभिख्या) प्रसिद्ध (बृहता) महती (भासा) शस्त्रादिकों की दीप्ति से (शुशुक्वनिः) प्रज्वलित के समान (उत्तिष्ठ, उ) यज्ञसदन में जाने के लिये अवश्य उठें ॥५॥
भावार्थ
हे कर्मयोगिन् ! आप सब प्रकार से समर्थ और अस्त्र-शस्त्रादिकों की दीप्ति से देदीप्यमान होने के कारण हमारे यज्ञसदन को अवश्य प्राप्त हों। तात्पर्य्य यह है कि हम लोग ज्ञानयज्ञ, तपोयज्ञ तथा ब्रह्मयज्ञादि अनेकविध यज्ञों के करने में सदैव उद्यत रहें, केवल उद्यत ही नहीं, किन्तु तेजोपुञ्ज के समान उत्तेजित होकर सदैव कटिबद्ध रहें और प्रयत्नपूर्वक अपने कर्तव्य को पूर्ण करें ॥५॥
विषय
उसकी स्तुति दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(स्वध्वर) हे शोभनयज्ञेश ! आप (उद्+उ+तिष्ठ) हम लोगों के हृदय में उठो और हम लोगों को उठाओ । (स्तवानः) जिस तुझकी हम लोग सदा स्तुति करते हैं, (देव्या+कृपा) जो तू दैवी कृपा से युक्त है और (अभिख्या) सर्वत्र प्रसिद्ध (भासा) तेज से वेष्टित है (बृहता) महान् तेज से (शुशुक्वनिः) जो तू प्रकाशित हो रहा है ॥५ ॥
भावार्थ
स्वध्वर=जिसके लिये अच्छे-२ यज्ञ किये जाएँ, वह स्वध्वर । यद्यपि परमात्मा सदा स्वयं जागृति है, तथापि सेवक अपने लिये ईश्वर को उठाता है अर्थात् अपनी ओर करता है । उसको हृदय में देखता हुआ उपासक सदा कर्म में जागृत रहे ॥५ ॥
विषय
पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे अग्रणी नायक ! हे प्रभो ! राजन् ! विद्वन् ! हे (स्वध्वर) उत्तम अविनाशिन् ! उत्तम हिंसारहित ! प्रजापालक ! तू ( देव्या कृपा ) तेजोयुक्त प्रजा को सुख देने वाली राजशक्ति से और ( अभि-ख्या ) सब ओर स्पष्ट घोषणा करने वाली वा प्रसिद्ध वाणी और ( भासा ) कान्ति और ( बृहता ) बड़े भारी ज्ञान और बल से युक्त होकर ( शुशुक्वनिः ) निरन्तर अग्निवत् शुद्ध, कान्तिमान्, तेजस्वी, और ( स्तवानः ) स्तुति किया जाकर वा अन्यों को उपदेश वा आज्ञावचन कहता हुआ ( उत् तिष्ठ उ ) उत्तम आसन पर विराज। इति नवमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सामर्थ्य व ज्ञानदीप्ति [कृपा-भासा]
पदार्थ
[१] हे (स्वध्वर) = उत्तम यज्ञात्मक कर्मों को करनेवाले तू (उ) = निश्चय से (उत्तिष्ठ) = उठ खड़ा हो, लेटा न रह । आलस्य को छोड़कर कर्मों में प्रवृत्त हो। (स्तवानः) = स्तुति करता हुआ तू (देव्या) = उस देदीप्यमान प्रभु के (कृपा) = सामर्थ्य से (शुशुक्वनिः) = चमकनेवाला हो। तुझे उस प्रभु की शक्ति प्राप्त हो। [२] न केवल शक्ति से, अपितु (बृहता) = वृद्धि की कारणभूत (अभिख्या) = सर्वतः प्रकाश को करनेवाली (भासा) = ज्ञानदीति से तू दीप्त बन ।
भावार्थ
भावार्थ- हम आलस्य को परे फेंक कर यज्ञ आदि कर्मों में प्रवृत्त हों। प्रभु-स्तवन करते हुए प्रभु के सामर्थ्य व ज्ञान दीप्ति से दीप्त बनें।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Agni, light and fire of life, adored and served with yajnic service of love and non-violence, rise high by the laws and grace of Divinity, shining ever bright with wider and higher light, power and magnificence.$(This mantra may also be interpreted as exhortation to the person dedicated to yajna.)
मराठी (1)
भावार्थ
स्वध्वर = ज्याच्यासाठी उत्तमोत्तम यज्ञ केले जातात तो स्वध्वर. जरी परमात्मा सदैव जागृत असतो तरीही सेवक स्वत:साठी ईश्वराला उठवितो, अर्थात आपल्याकडे वळवितो. त्याला हृदयात पाहून उपासकाने सदैव कर्मात जागृत राहावे. ॥५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal