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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 16
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    व्य॑श्वस्त्वा वसु॒विद॑मुक्ष॒ण्युर॑प्रीणा॒दृषि॑: । म॒हो रा॒ये तमु॑ त्वा॒ समि॑धीमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विऽअ॑श्वः । त्वा॒ । व॒सु॒ऽविद॑म् । उ॒क्ष॒ण्युः । अ॒प्री॒णा॒त् । ऋषिः॑ । म॒हः । रा॒ये । तम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । सम् । इ॒धी॒म॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यश्वस्त्वा वसुविदमुक्षण्युरप्रीणादृषि: । महो राये तमु त्वा समिधीमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽअश्वः । त्वा । वसुऽविदम् । उक्षण्युः । अप्रीणात् । ऋषिः । महः । राये । तम् । ऊँ इति । त्वा । सम् । इधीमहि ॥ ८.२३.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (उक्षण्युः) यद् बलस्य सेक्तारं त्वामिच्छुः (व्यश्वः, ऋषिः) अश्वादिसम्पद्रहितो विद्वान् (महः, राये) महते धनाय (वसुविदम्) धनस्य लम्भकं त्वाम् (अप्रीणात्) प्रसादयति (तम्, उ, त्वा) तमेव त्वां (समिधीमहि) सन्दीपयामः यशसा वर्द्धयामः ॥१६॥

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    विषयः

    तस्य स्तुतिं दर्शयति ।

    पदार्थः

    उक्षण्युः=ज्ञानादिसेक्ता । “उक्ष सेचने” । व्यश्वः=जितेन्द्रियः । ऋषिः=कविः । वसुविदम्=धनप्रापकम् । त्वा=त्वां देवम् । अप्रीणात्=अतोषयत् । तमु+त्वा=तमेव त्वाम् । वयमपि । महः=महते । राये । समिधीमहि=सम्यक् प्रज्वालयामो ध्यायामः ॥१६ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (उक्षण्युः) जो बलों की वर्षा करनेवाले आपको चाहनेवाला (व्यश्वः, ऋषिः) अश्वादि सम्पत्तिरहित विद्वान् (महः, राये) पर्याप्त धन के लिये (वसुविदम्, अप्रीणात्) धन को प्राप्त करानेवाले आपको आराधनाद्वारा प्रसन्न करता है, (तम्, उ, त्वा) उन्हीं आपको (समिधीमहि) यशों द्वारा हम लोग भी प्रकाशित करते हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि जो पुरुष बलद्वारा प्रजा को सिञ्चन करनेवाले क्षत्रियवर्ग को अपने देश में उत्पन्न कर वृद्धि करते हैं, वे ऐश्वर्य्य तथा धन-धान्यादि सम्पूर्ण पदार्थों से विभूषित होते हैं ॥१६॥

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    विषय

    उसकी स्तुति दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (उक्षण्युः) ज्ञानों के सींचनेवाले (व्यश्वः) जितेन्द्रिय (ऋषिः) कविगण सदा (वसुविदम्+त्वा) धनों को पहुँचानेवाले तुझको अपनी-२ वाणियों से (अप्रीणात्) प्रसन्न करते आये हैं, इसलिये हम उपासकगण भी (तम्+उ+त्वा) उसी तुझको (महः+राये) महदैश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (समिधीमहि) सम्यग् दीप्त और ध्यान करते हैं ॥१६ ॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा की स्तुति-प्रार्थना सदा से ऋषिगण करते आए हैं, उसी की पूजा हम भी करें ॥१६ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( उक्षण्युः ) जलसेचक मेघ की इच्छा करने वाला, (ऋषिः) तत्वदर्शी पुरुष ( वि-अश्वः ) विशेष विद्वान् होकर ( वसु-विदम् ) जीवन को प्राप्त कराने वाले सूर्य या अग्नि को (अप्रीणात्) हव्यों से तृप्त करता है, उसी प्रकार ( उक्षण्युः ) समस्त संसार को बहन करने और सुखों के वर्षक प्रभु को चाहने वाला ( वि-अश्वः ) विशेष सुख आनन्द के भोगने या प्राप्त करने वाला ( ऋषिः ) तत्वदर्शी पुरुष ( वसु-विदम् ) समस्त ऐश्वर्यों के देने वाले प्रभु को ( अप्रोणात् ) प्रसन्न करे, उसकी प्रार्थना करे। हम भी ( महः राये ) बड़े भारी ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये ( तम् उ त्वा ) उस तुझको ( सम् इधीमहि ) अच्छी प्रकार अपने हृदय में, कुण्ड में अग्नि के समान प्रज्वलित करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    उक्षण्युः-व्यश्वः

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (वसुविदम्) = सब वसुओं के प्राप्त करानेवाले (त्वा) = आपको यह (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा उपासक (अप्रीणात्) = प्रसन्न कर पाता है, जो (व्यश्वः) = विशिष्ट इन्द्रियाश्वोंवाला बनता है, जो अपनी इन्द्रियों को भोगों में नहीं फँसने देता और इस प्रकार इनकी शक्ति को क्षीण नहीं होने देता। जो (उक्षण्यः) = सर्वसुखों के सेचक आपकी ही प्राप्ति की कामनावाला होता है। [२] हम भी (तं त्वा उ) = उन आप को ही (महः राये) = महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये (समिधीमहि) = अपने अन्दर समिद्ध करते हैं। अपने हृदयों में आपके प्रकाश को देखने का प्रयत्न करते हुए हम भी महान् ऐश्वर्य के भागी बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु को प्रीणित वही कर पाता है जो - [क] अपने इन्द्रियाश्वों को भोग से दूर रखकर सबल बनाये रखता है, [ख] जो सर्वसुख सेचक प्रभु की प्राप्ति की ही कामनावाला होता है, [ग] जो तत्त्वद्रष्टा बनता है। इस प्रभु के प्रीणन में ही महान् ऐश्वर्य का लाभ है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The sage in search of dynamic energy and showers of the wealth of knowledge and bliss adores and serves you, giver of the world’s wealth and knowledge. We too light you well in the correct manner for the attainment of the same great wealth of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या परमेश्वराची स्तुती-प्रार्थना सदैव ऋषी करत आलेले आहेत, त्याचीच पूजा आम्ही ही करावी ॥१६॥

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