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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 9
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    ऋ॒तावा॑नमृतायवो य॒ज्ञस्य॒ साध॑नं गि॒रा । उपो॑ एनं जुजुषु॒र्नम॑सस्प॒दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तऽवा॑नम् । ऋ॒त॒ऽय॒वः॒ । य॒ज्ञस्य॑ । साध॑नम् । गि॒रा । उषः॑ । ए॒न॒म् । जु॒जु॒षुः॒ । नम॑सः । प॒दे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतावानमृतायवो यज्ञस्य साधनं गिरा । उपो एनं जुजुषुर्नमसस्पदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतऽवानम् । ऋतऽयवः । यज्ञस्य । साधनम् । गिरा । उषः । एनम् । जुजुषुः । नमसः । पदे ॥ ८.२३.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (ऋतायवः) हे ऋतस्य यज्ञस्य कर्तारः ! (ऋतावानम्) यज्ञसम्बन्धिनम् (यज्ञस्य, साधनम्) यज्ञस्य रक्षकत्वात् साधनम् (एनम्) एनं शूरम् (नमसः, पदे) स्तुतीनां प्रारम्भे (गिरा) स्पष्टवाण्या (उपो, जुजुषुः) उपसेवध्वम् ॥९॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्तते ।

    पदार्थः

    हे ऋतायवः=हे सत्यकामाः ! हे ईशव्रतपालका जनाः ! नमसस्पदे=नमस्कारस्य पदे=यज्ञे । ऋतावानम्= सत्यस्वरूपम् । यज्ञस्य+साधनम्=साधनभूतम् । एनमीशम् । गिरा=वाचा । उपोजुजुषुः=उपासेवध्वम् ॥९ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (ऋतायवः) हे यज्ञ करने की इच्छावाले ! (ऋतावानम्) यज्ञसम्बन्धी (यज्ञस्य, साधनम्) रक्षक होने से यज्ञ के साधक (एनम्) इस शूर को (नमसः, पदे) स्तुति करनेवाले स्थान में (गिरा) स्पष्टवाणी से (उपो, जुजुषुः) उपसेवन करो ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि याज्ञिक को उचित है कि अपने यज्ञ को निर्विघ्न पूर्ण किया चाहे तो सबसे प्रथम युद्धकुशल शुरवीर की सत्कारयुक्त वाणी से प्रार्थना करके उसका सम्यक् सेवन करे, जिससे विघातक लोग विघ्न न कर सकें, मन्त्र में “जुजुषुः” क्रिया का कर्ता “ऋतायवः” यह सम्बोधन पद आया है, इससे भूतकालिक “लकार” का भी विध्यर्थ में व्यत्यय कर लेना आवश्यक है और “ऋतायवः” यह पद सम्बोधन है। इस ज्ञान का करानेवाला इसका सर्वनिघात स्वर है, क्योंकि किसी पद से परे सम्बोधन पद को “आमन्त्रितस्य च” इस पाणिनिसूत्र से सर्वनिघात हो जाता है ॥९॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    (ऋतायवः) हे सत्यकाम ! हे ईशव्रतपालक जनो ! (नमसस्पदे) यज्ञादि शुभ कर्मों में (ऋतावानम्) सत्यस्वरूप (यज्ञस्य+साधनम्) यज्ञ का साधनस्वरूप (एनम्) इस परमात्मा की (गिरा) वाणी द्वारा (उपोजुजुषुः) सेवा करो ॥९ ॥

    भावार्थ

    जिस हेतु परमात्मा सत्यस्वरूप है, अतः उसके उपासक भी वैसे होवें और जैसे वह परमोदार है, वैसे उपासक भी होवें । इत्यादि शिक्षाएँ इन मन्त्रों से दी जाती हैं ॥९ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( ऋतायवः ) अन्नार्थी ( नमसः पदे ) अन्न के पाने के लिये ( ऋतावानं जुजुषुः ) अन्न के स्वामी की सेवा करते हैं उसी प्रकार ( ऋतायवः ) सत्य ज्ञान की आकांक्षा करने वाले, पुरुष ( यज्ञस्य साधनम् ) यज्ञ को साधने वाले, ( ऋतावानम् ) सत्य ज्ञान के दाता, ( एनं ) उसको ही ( नमसः पदे ) आदर नमस्कार के योग्य प्रतिष्ठा पद पर स्थापित ( एनं ) उसकी ( गिरा ) वेदवाणी से ही ( उपो जुजुषुः ) उपासना पूर्वक सेवन और प्रेम करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'यज्ञों - ज्ञान की वाणियों व नमन' के द्वारा प्रभु का उपासन

    पदार्थ

    [१] (ऋतायवः) = यज्ञशील पुरुष (ऋतावानम्) = सब यज्ञों के रक्षक (यज्ञस्य साधनम्) = सब यज्ञों के सिद्ध करनेवाले प्रभु को (गिरा) = ज्ञान की वाणियों से (जुजुषुः) = प्रीतिपूर्वक सेवित करते हैं। [२] (एनं उ) = इस प्रभु को ही (नमसः पदे) = नमन के स्थान में, नम्रतापूर्वक ध्यान करने के स्थल में (उपजुजुषुः) = समीपता से उपासित करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-यज्ञों के द्वारा, ज्ञान की वाणियों के द्वारा तथा ध्यान में नमन के द्वारा प्रभु का ही उपासन होता है। कर्मकाण्ड [ऋतायवः] ज्ञानकाण्ड [गिरा] उपासना काण्ड [नमसस्पदे] ये सब उपासना ही हो जाते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O men of yajna and followers of the paths of universal truth, with songs of holiness, in the house of yajna, love, exalt and closely serve this Agni, lord of universal truth and eternal law and the end and aim of the perfection of yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा परमात्मा सत्यस्वरूप आहे तसे त्याचे उपासकही असावेत. जसा तो परम उदार आहे, तसे उपासकानेही व्हावे इत्यादी शिकवण या मंत्रातून दिली जाते. ॥९॥

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