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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    उद॑स्य शो॒चिर॑स्थाद्दीदि॒युषो॒ व्य१॒॑जर॑म् । तपु॑र्जम्भस्य सु॒द्युतो॑ गण॒श्रिय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒स्य॒ । शो॒चिः । अ॒स्था॒त् । दी॒दि॒युषः॑ । वि । अ॒जर॑म् । तपुः॑ऽजम्भस्य । सु॒ऽद्युतः॑ । ग॒ण॒ऽश्रियः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदस्य शोचिरस्थाद्दीदियुषो व्य१जरम् । तपुर्जम्भस्य सुद्युतो गणश्रिय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । अस्य । शोचिः । अस्थात् । दीदियुषः । वि । अजरम् । तपुःऽजम्भस्य । सुऽद्युतः । गणऽश्रियः ॥ ८.२३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (दीदियुषः) दीप्यमानस्य (तपुर्जम्भस्य) तीक्ष्णशरीरव्यापारस्य (सुद्युतः) शोभनकान्तेः (गणश्रियः) गणं श्रयमाणस्य (अस्य) अन्य वीरस्य (व्यजरम्) नित्यनूतनम् (शोचिः) तेजः (उदस्थात्) उन्नतमस्ति ॥४॥

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    विषयः

    तस्य महिमानं दर्शयति ।

    पदार्थः

    दीदियुषः=जगद्दीपकस्य । तपुर्जम्भस्य=तापयितृदन्तस्य । सुद्युतः=शोभनदीप्तेः । गणश्रियः=गणानां शोभाप्रदस्य । अस्येशस्य । अजरम्=नित्यम् । शोचिः=तेजः । उद्+अस्थात्=सर्वत्रोदितमस्ति ॥४ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (दीदियुषः) दीप्यमान (तपुर्जम्भस्य) तीक्ष्णशरीरव्यापार करनेवाले (सुद्युतः) सुन्दर कान्तिवाले (गणश्रियः) वीरगणों का आश्रयण करनेवाले (अस्य) इस विद्वान् का (व्यजरम्) नित्य नूतन (शोचिः) तेज (उदस्थात्) उन्नत ही रहता है ॥४॥

    भावार्थ

    जो प्रजाजन उक्त गुणसम्पन्न योद्धाओं का सत्कार करते हैं, या यों कहो कि देश में वीरपूजा का प्रचार करते हैं, उनके तेजोमय सूर्य्य का कदापि अस्त नहीं होता, किन्तु प्रतिदिन और प्रतिक्षण उनके तेज का प्रभामण्डल सदैव बढ़ता रहता है ॥४॥

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    विषय

    उसकी महिमा दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अस्य) इस परमात्मा का (शोचिः) तेज (उद्+अस्थात्) सर्वत्र उदित और भासित है, जो तेज (अजरम्) जरारहित अर्थात् सर्वदा एकरस रहता है । जो ईश्वर (दीदियुषः) जगद्दीपक (तपुर्जम्भस्य) दुष्ट संहार के लिये जिसके दाँत जाज्वल्यमान हैं, (सुद्युतः) जिसकी कीर्ति शोभायमान है, (गणश्रियः) जो सब गणों का शोभाप्रद है ॥४ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! जिस कारण ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है, अतः उससे डरकर शुभकर्म में सदा प्रवृत्त रहो ॥४ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (अस्य शोचि: उत् अस्थात् ) इस भौतिक अग्नि की ज्वाला ऊपर को उठती है, वह (वि-अजरम्) प्रत्येक पदार्थ को विच्छिन्न करके दूर २ तक फेंकती या फैला देती हैं, ( तपुः-जम्भः ) अग्नि का प्रताप ही मानो उसकी दाढ़ों के समान काष्ठादि को खाजाने का साधन है। वह ( सु-द्युत् ) उत्तम कान्ति युक्त ( गण-श्रीः ) गणनीय, दर्शनीय शोभा से युक्त होता है। इसी प्रकार ( अस्य ) इस ( सु-द्युतः ) उत्तम कान्तियुक्त, तेजस्वी, ( गण-श्रियः ) अनुयायी सैन्य गण का आश्रयणीय, उनके बीच में शोभावान् ( दीदियुषः ) देदीप्यमान, ( अस्य ) इस राजा वा प्रभु का ( वि-अजरम् ) विशेष रूप से अविनाशी वा विविध प्रकार से शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाला, ( शोचिः ) तेजः ( उत् अस्थात् ) सर्वोपरी उठता है और विराजता है । ( तपुर्जम्भस्य ) शत्रुसन्तापक शस्त्रास्त्र बल ही उसकी जम्भ या दंष्ट्रा के समान दुष्टों शत्रुओं को हड़प जाने का साधन होता है। ( ३ ) इसी प्रकार प्रभु की अविनश्वर दीप्ति सर्वोपरि विराजती है। वह विकृति आदि गण में विराजता और उनका आश्रय है। दुष्टों का सन्तापक बल ही उसकी महान् दाढ़ है, जिनमें दुष्ट पिसते, नाना नरक भोगते हैं। वह स्वभावतः उत्तम कान्तिमान् है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'तपुर्जम्भस्य - सुद्युत्-गणश्री'

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = गत मन्त्र में वर्णित (दीदियुषः) = ज्ञान-ज्योति से देदीप्यमान उपासक की (अजरम्) = न जीर्ण होनेवाली (शोचिः) = दीप्ति (वि उद् अस्थात्) = विशेषरूप से उत्थित होती है, यह उपासक 'स्वास्थ्य नैर्मल्य व बुद्धि की तीव्रता' के द्वारा जीवन में चमक उठता है। [२] उस उपासक की ज्योति चमक उठती है, जो (तपुर्जम्भस्य) = तपस्वी दंष्ट्रावाला है, अर्थात् जिसके दाँत खान-पान की क्रिया में अत्यन्त तपस्वी हैं। जो सात्त्विक भोजन को ही मात्रा में ग्रहण करता है। (सुद्युतः) = स्वाध्याय के द्वारा अत्यन्त द्युतिमय जीवनवाला बनता है। तथा (गणश्रियः) = जो शरीरस्थ सब गणों की शोभावाला है, जिसके पञ्चभूत, पञ्च प्राण, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ तथा अन्त:करण = पञ्चक [ मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, हृदय] सभी शोभा सम्पन्न हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम तपस्वी दाँतोंवाले, स्वाध्यायशील व सब शरीरस्थ इन्द्रिय आदि के गणों को श्री- सम्पन्न बनानेवाले हों। हम स्थिर ज्योति से चमक उठेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And the radiance of this burning, flaming, consuming fire, blazing brilliant, all illuminative, rises high, unaging and imperishable, adding to the wealth and glory of all classes of people.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ईश्वर सर्वत्र विराजमान असल्यामुळे त्याला भिऊन शुभ कार्यात सदैव प्रवृत्त व्हा ॥४॥

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