ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 11
अग्ने॒ तव॒ त्ये अ॑ज॒रेन्धा॑नासो बृ॒हद्भाः । अश्वा॑ इव॒ वृष॑णस्तविषी॒यव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । तव॑ । त्ये । अ॒ज॒र॒ । इन्धा॑नासः । बृ॒हत् । भाः । अश्वाः॑ऽइव । वृष॑णः । त॒वि॒षी॒ऽयवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने तव त्ये अजरेन्धानासो बृहद्भाः । अश्वा इव वृषणस्तविषीयव: ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । तव । त्ये । अजर । इन्धानासः । बृहत् । भाः । अश्वाःऽइव । वृषणः । तविषीऽयवः ॥ ८.२३.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अजर, अग्ने) हे युवन् शूर ! (तव, त्ये, बृहद्भाः) तव ते बहवः “भान्तीति भाः” शूराः (इन्धानासः) दीप्यमानाः (वृषणः) बलवन्तः (अश्वा इव) यथाऽश्वाः (तविषीयवः) प्रतिभटं कामयमानाः सन्ति ॥११॥
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वाधार ! हे अजर ! तव । त्ये=ते । इन्धानासः=इन्धानाः=दीप्यमानाः । बृहद्=बृहन्तः । भाः=भासः सन्ति । अश्वा इव=वेगवन्तः । वृषणः=कामानाम् । सेक्तारः । तविषीयवश्च=परमबलवन्तः । ते सन्ति ॥११ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अजर) हे युवन् (अग्ने) ! शूरपते (तव, ते, बृहद्भाः) आपके अनेकों योद्धा (इन्धानासः) अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित देदीप्यमान (वृषणः, अश्वा इव) अश्वसदृश बलवान् (तविषीयवः) अपने प्रतिपक्षी भट को ढूँढते हुए विचरते हैं ॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में यह वर्णन किया है कि वीरविद्यावेत्ता विद्वान् अग्निसमान देदीप्यमान होकर शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित हुए प्रतिदिन प्रतिपक्षी भटों को ढूँढते हैं अर्थात् परमात्मा आदेश करते हैं कि हे न्यायशील युद्धवेत्ता वीरो ! जब तुम अपने लक्ष्य का प्रतिक्षण पालन करोगे, तो तुम ही अपने वेधनरूप प्रतिपक्षी लक्ष्यों के ढूँढ़ने में तत्पर रहोगे और यदि तुम अपनी वीरविद्या का पालन न करोगे, तो तुम्ही अन्य लोगों से अथवा अन्य बधिकों से मृगादिकों के समान ढूँढ़े जाओगे, या यों कहो कि जो पुरुष अपने उद्देश्य को पूर्ण नहीं करता, वह दूसरे के तीक्ष्ण बाणों का लक्ष्य बनता है ॥११॥
विषय
पुनः उसी विषय को कहते हैं ।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वाधार (अजर) हे जरारहित नित्य ! (त्ये) तेरे (भाः) प्रकाश (इन्धानासः) सर्वत्र दीप्यमान और (बृहत्) सर्वगत सर्वतो महान् हैं (अश्वाः इव) घोड़े के समान वेगवान् (वृषणः) कामनाओं की वर्षा करनेवाले (तविषीयवः) और परम बलवान् हैं ॥११ ॥
भावार्थ
ईश्वर के गुण अनन्त हैं । गुणकीर्तन से वेद का तात्पर्य्य यह है कि उपासक जन भी यथाशक्ति उन गुणों के पात्र बनें । इस स्तुति से ईश्वर को न हर्ष ही और न विस्मय ही होता है ॥११ ॥
विषय
पक्षान्तर में अग्निवत् राजा और विद्वानों का वर्णन। उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! स्वामिन् ! हे ( अजर) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने में समर्थ ? हे अविनाशिन् ! ( तव ) तेरे ( त्ये ) वे ( इन्धानासः ) देदीप्यमान ( तविषीयवः ) बलवान्, ( वृषण: ) मेघवत् सुखों की और शत्रुओं पर शस्त्रों की वर्षा करने वाले ( बृहद्-भाः ) बड़े २ प्रकाशों से चमकने वाले और ( अश्वाः इव ) अश्व वा सूर्यों के समान सृदृढ़ हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान-शक्ति
पदार्थ
[१] हे (अजर) = कभी जीर्ण न होनेवाले, सदा वृद्ध (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! (तव) = आपके (त्ये) = वे उपासक (इन्धानासः) = अपने अन्दर ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाले होते हैं। परिणामतः (बृहद्धाः) = अत्यन्त बढ़ी हुई ज्ञान ज्योतिवाले होते हैं । [२] ये आपके उपासक (अश्वाः इव) = घोड़े के समान (वृषण:) = शक्तिशाली होते हैं और (तविषीयवः) = [बलं आचरन्तः] सबलता से सब कर्मों को करनेवाले होते हैं। इनके कर्म निर्बल नहीं होते, वीर्यवत्तर होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के उपासक ज्ञानाग्नि को दीत करके बढ़ी हुई ज्ञान - ज्योतिवाले होते हैं, घोड़ों की तरह सबल होते हैं, इनके सब कर्म भी सबल होते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
O unaging and imperishable Agni, those blazing flames of expansive brilliance, generous and virile like solar radiations, are reflections of your supreme power and glory.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराचे गुण अनंत आहेत. गुणकीर्तनाचे वेदाचे तात्पर्य हे आहे की, उपासकांनी यथाशक्ती त्या गुणांचे पात्र बनावे. या स्तुतीने ईश्वराला हर्ष किंवा आश्चर्य वाटत नाही. ॥११॥
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