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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 23/ मन्त्र 25
    ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    अति॑थिं॒ मानु॑षाणां सू॒नुं वन॒स्पती॑नाम् । विप्रा॑ अ॒ग्निमव॑से प्र॒त्नमी॑ळते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑थिम् । मानु॑षाणाम् । सू॒नुम् । वन॒स्पती॑नाम् । विप्राः॑ । अ॒ग्निम् । अव॑से । प्र॒त्नम् । ई॒ळ॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतिथिं मानुषाणां सूनुं वनस्पतीनाम् । विप्रा अग्निमवसे प्रत्नमीळते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतिथिम् । मानुषाणाम् । सूनुम् । वनस्पतीनाम् । विप्राः । अग्निम् । अवसे । प्रत्नम् । ईळते ॥ ८.२३.२५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 23; मन्त्र » 25
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (मानुषाणाम्) मनुष्याणाम् (अतिथिम्) अतिथिमिव (वनस्पतीनाम्) वनस्पत्यादिप्राणिनाम् (सूनुम्) पुत्रमिव (प्रत्नम्) पुरातनम् (अग्निम्) अग्निसदृशं तं शूरम् (विप्राः) विद्वांसः (अवसे) रक्षायै (ईळते) स्तुवन्ति ॥२५॥

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    विषयः

    मेधाविनोऽपि तमेव स्तुवन्तीति दर्शयति ।

    पदार्थः

    विप्राः=मेधाविनो जनाः । मानुषाणाम् । अतिथिम्=अतिथिवत् पूज्यम् । वनस्पतीनाम्=औषधीनाम् । सूनुम्=उत्पादकम् । प्रत्नम्=पुराणम् । अग्निमीडते ॥२५ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (अतिथिम्) अतिथिसमान (वनस्पतीनाम्) वनस्पतियों के (सूनुम्) पुत्रसमान (प्रत्नम्) चिरस्थायी (अग्निम्) अग्निसदृश उस शूर को (विप्राः) विद्वान् पुरुष (अवसे) रक्षार्थ (ईळते) स्तुतिद्वारा प्रसन्न करते हैं ॥२५॥

    भावार्थ

    भाव यह है कि सबसे प्रथम आतिथ्य के योग्य देश तथा धर्म के रक्षक शूर वीर ही होते हैं, इसलिये विद्वानों को उचित है कि ऐसे वीरों का इतिहास ओजस्विनी भाषा में लिखकर उनका स्तवन करें और उनके योग्य पदार्थ अर्पण कर उन्हें सदैव प्रसन्न रखें ॥२५॥

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    विषय

    मेधावी पुरुष भी उसी की स्तुति करते हैं, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (विप्राः) मेधाविजन (मानुषाणामतिथिम्) मनुष्यों के अतिथिवत् पूज्य (वनस्पतीनाम्) ओषधियों के (सूनुम्) उत्पादक (प्रत्नम्) पुराण (अग्निम्) परमात्मा की (ईडते) स्तुति करते हैं ॥२५ ॥

    भावार्थ

    जब बुद्धिमान् जन भी उसी की पूजा और आराधना करते हैं, तब अन्य जनों को तो वह कर्म अवश्य करना चाहिये, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥२५ ॥

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    विषय

    अग्नि तुल्य गुणों वाले प्रभु से प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    ( मानुषाणाम् ) मननशील विद्वानों के बीच ( अतिथिम् ) अतिथिवत् पूज्य ( वनस्पतीनाम् ) तेज के पालक, सूर्यो और वनस्पतियों के ( सूनुं ) सञ्चालक और उत्पादक ( प्रत्नम् अग्निम् ) सनातन ज्ञानवान् प्रभु की ( विप्राः ) विद्वान्, बुद्धिमान् पुरुष (अवसे) रक्षा और ज्ञान के लिये ( ईडते ) स्तुति करते हैं। ( २ ) लौकिक अग्नि, मनुष्यों में जाठर रूप से व्यापक, और वनस्पति काष्ठादि से उत्पन्न होता है। इति त्रयोदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वमना वैयश्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१, ३, १०, १४—१६, १९—२२, २६, २७ निचृदुष्णिक्। २, ४, ५, ७, ११, १७, २५, २९, ३० विराडुष्णिक्। ६, ८, ९, १३, १८ उष्णिक्। १२, २३, २८ पादनिचृदुष्णिक्। २४ आर्ची स्वराडुष्णिक्॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    मानुषाणां अतिर्थिं, वनस्पतीनां सूनुम्

    पदार्थ

    [१] (विप्राः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले, अपनी कमियों को दूर करनेवाले, ज्ञानी पुरुष (प्रत्नम्) = उस सनातन (अग्निम्) = अग्रेणी प्रभु को (अवसे) = रक्षण के लिये (ईडते) = स्तुत करते हैं। इस स्तोता विप्र का प्रभु रक्षण करते ही हैं, इसे काम-क्रोध-लोभ आदि के आक्रमण से बचाते हैं। [२] उस प्रभु को उपासित करते हैं जो (मानुषाणाम्) = विचारशील पुरुषों का (अतिथिम्) = अतिथि है, अतिथिवत् पूज्य है। तथा (वनस्पतीनाम्) = [वन = A ray of light] ज्ञान-रश्मियों के रक्षक पुरुषों का (सूनुम्) = [षू प्रेरणे] प्रेरक है। विचारशील पुरुष सदा प्रभु का पूजन करते हैं और ज्ञानरश्मियों का रक्षण करनेवाले पुरुष प्रभु-प्रेरणा को सुन पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- विप्र रक्षण के लिये प्रभु की आराधना करते हैं। विचारशील पुरुष प्रभु को अतिथिवत् पूजते हैं और ज्ञानरश्मियों का रक्षण करनेवाले पुरुष प्रभु की प्रेरणा को सुना करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sages and scholars worship Agni, primeval presence of the universe, life giver of herbs and trees and honourable like a welcome guest in people’s homes for the sake of protection and progress.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा बुद्धिमान लोकही त्याची पूजा व आराधना करतात तेव्हा इतरांनी तर ते कर्म अवश्य केले पाहिजे. ही शिकवण यात दिलेली आहे. ॥२५॥

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