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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
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    यत्ते॒ वासः॑ परि॒धानं॒ यां नी॒विं कृ॑णु॒षे त्वम्। शि॒वं ते॑ त॒न्वि॒ तत्कृ॑ण्मः संस्प॒र्शेऽद्रू॑क्ष्णमस्तु ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । वास॑: । प॒रि॒ऽधान॑म् । याम् । नी॒विम् । कृ॒णु॒षे । त्वम् । शि॒वम् । ते॒ । त॒न्वे᳡ । तत् । कृ॒ण्म॒: । स॒म्ऽस्प॒र्शे । अद्रू॑क्ष्णम् । अ॒स्तु॒ । ते॒ ॥२.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते वासः परिधानं यां नीविं कृणुषे त्वम्। शिवं ते तन्वि तत्कृण्मः संस्पर्शेऽद्रूक्ष्णमस्तु ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । वास: । परिऽधानम् । याम् । नीविम् । कृणुषे । त्वम् । शिवम् । ते । तन्वे । तत् । कृण्म: । सम्ऽस्पर्शे । अद्रूक्ष्णम् । अस्तु । ते ॥२.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (यत्) जिस (वासः) वस्त्र को (परिधानम्) ओढ़ना और (याम्) जिस (नीविम्) पेटी [फेंटा] को (ते) अपने लिये (त्वम्) तू (कृणुषे) बनाता है। (तत्) उसे (ते) तेरे (तन्वे) शरीर के लिये (शिवम्) सुख देनेवाला (कृण्मः) हम बनाते हैं, वह (ते) तेरे लिये (संस्पर्शे) छूने में (अद्रूक्ष्णम्) अनखुरखुरा (अस्तु) होवे ॥१६॥

    भावार्थ

    मनुष्य कवच, अङ्गरक्षा आदि वस्त्र शरीर के लिये, सुखदायक बनावें ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(यत्) (ते) त्वदर्थम्। स्वस्मै (वासः) वस्त्रम् (परिधानम्) उपर्य्याच्छादनम् (याम्) (नीविम्) नौ व्यो यलोपः पूर्वस्य च दीर्घः। उ० ४।१३६। नि+व्येञ् संवरणे-इण्, स च डित्, यलोपश्च। कटिबन्धनम् (कृणुषे) करोषि (त्वम्) (शिवम्) सुखकरम् (ते) तव (तन्वे) शरीराय (तत्) वस्त्रम् (कृण्मः) कुर्मः (संस्पर्शे) स्पर्शकरणे (अद्रूक्ष्णम्) इण्सिञ्जि०। उ० ३।२। रूक्ष पारुष्ये−नक्, दकारश्छान्दसः। अरूक्ष्णम्। अकोठरम् (अस्तु) (ते) तुभ्यम् ॥

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    विषय

    अद्रुक्ष्ण 'वस्त्र'

    पदार्थ

    १.हे बालक! (यत् ते वासः परिधानम्) = जो तेरा उपरि आच्छादनीय वस्त्र है-उपरले शरीर में पहनने योग्य है, (याम्) = जिसे (त्वम्) = तू (नीविं कृणुषे) = नाभिदेश से सम्बद्ध वस्त्र बनाता है, अर्थात् जो तेरा मध्यदेशाच्छादन वस्त्र है, (तत्) = उन दोनों प्रकार के वस्त्र को (ते तन्वे) = तेरे शरीर के लिए (शिवे कृण्म:) = सुखकर करते हैं। वह वस्त्र (संस्पर्शे) = स्पर्श के विषय में (ते) = तेरे लिए (अद्रुक्ष्णम्) = रूखा न हो-मार्दव लिये हुए (अस्तु) = हो।

    भावार्थ

    उपरिवस्त्र व अधोवस्त्र हमारे लिए कल्याणकर हों। वे कठोर स्पर्शवाले न हों। वस्त्र स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से धारण किये जाएँ।

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    भाषार्थ

    (यत्) जो (ते) तेरा (परिधानम्, वासः) ओढ़ने का वस्त्र है, (याम्) और जिस (नीविम्) अधोवस्त्र को (त्वम्) तू (कृणुषे) धारण करता है, (तत्) उसे (ते तन्वे) तेरी तनू के लिये (शिवम) कल्याणकारी वा सुखकारी (कृष्मः) हम करते हैं, वह (संस्पर्शे) शरीर के साथ स्पर्श में (ते) तेरे लिये (अद्रूक्षणम्) कोमल (अस्तु) हो।

    टिप्पणी

    [अद्रूक्ष्णम्= अरूक्षणम् "दकार" का आगम। न-रुखा अर्थात् न-कठोर अपितु कोमल। नीविम्=नाभिदेशे संबद्धं वस्त्रं नीविरित्युच्यते (सायण)। पहनने के वस्त्र कोमल होने चाहिये। यह निर्देश रुग्णावस्था में है। नीविम् = निवीयते संव्रियते सा नीविः, दुकूलबन्धनं वा (उणा० ४।१३७, दयानन्दः)]।

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    विषय

    कामला वस्त्र

    शब्दार्थ

    हे पुरुष ! (ते) तेरा (यत्) जो (परिधानन्) शरीर को ढकने के लिए (वास:) कपड़ा है और (याम्) जिस वस्त्र को (त्वम्) तू (नीविम्) कटि के नीचे धोती, लंगोटी आदि के रूप में (कृणुषे) धारण करता है हम (तत्) उस वस्त्र को (ते तन्वे) तेरे शरीर के लिए (शिवम्) सुखकारी (कृण्म:) बनाते हैं जिससे वह वस्त्र (ते) तेरे लिए (संस्पर्शे) स्पर्श में (अद्रुक्षणम्) रूखा, कठोर और खुर्दरा न होकर कोमल और मुलायम (अस्तु) हो ।

    भावार्थ

    वैदिक सभ्यता और संस्कृति सर्वप्राचीन है । मनुष्य को ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा वेदों से ही प्राप्त हुई। उसने सभ्यता और संस्कृति का प्रथम पाठ वेद से ही सीखा । मनुष्य ने अस्त्र-शस्त्र और नाना प्रकार के यान और यन्त्रों का निर्माण करना वेद से ही सीखा । जिस समय इंग्लैण्ड और अमेरिका के निवासी असभ्य और जंगली थे उस समय भारतवर्ष ज्ञान और विज्ञान में बहुत आगे बढ़ा हुआ था। महाभारत के युद्ध से भारत को ऐसा धक्का लगा कि वह अब तक भी संभल नहीं पाया है । प्रस्तुत मन्त्र में कोमल और सुखस्पर्शी वस्त्र बुनने का वर्णन स्पष्ट है । मनुष्य दो प्रकार के वस्त्र पहनता है - एक कटि से ऊपर, दूसरे कटि-प्रदेश से नीचे । ये दोनों प्रकार के वस्त्र इस प्रकार के हों जो शरीर को सुख देनेवाले हों । ये शरीर में चुभनेवाले न हों। सुख देनेवाले वस्त्र वे ही होंगे जो गर्मी और सर्दी से हमारी रक्षा कर सके और कोमल तथा मुलायम हों ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    Whatever garment is your upper cover, and that which you wear for a waist bond, that we design and treat for your comfort and well being for health, and let even that be not rough for the skin contact.

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    Translation

    What your garment is to cover your upper part (paridhana) and what cloth you put on as under-wear (nivi), that we make propitious for your body, so that it may be soft in touch to you.

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    Translation

    Whatever robe you make to cover you and to wrap around your waist we make it pleasant to your body and let it be smooth and soft.

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    Translation

    Whatever robe to cover thee or zone thou makes! For thyself, we make it pleasant to thy frame; may it be soft and smooth to touch.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(यत्) (ते) त्वदर्थम्। स्वस्मै (वासः) वस्त्रम् (परिधानम्) उपर्य्याच्छादनम् (याम्) (नीविम्) नौ व्यो यलोपः पूर्वस्य च दीर्घः। उ० ४।१३६। नि+व्येञ् संवरणे-इण्, स च डित्, यलोपश्च। कटिबन्धनम् (कृणुषे) करोषि (त्वम्) (शिवम्) सुखकरम् (ते) तव (तन्वे) शरीराय (तत्) वस्त्रम् (कृण्मः) कुर्मः (संस्पर्शे) स्पर्शकरणे (अद्रूक्ष्णम्) इण्सिञ्जि०। उ० ३।२। रूक्ष पारुष्ये−नक्, दकारश्छान्दसः। अरूक्ष्णम्। अकोठरम् (अस्तु) (ते) तुभ्यम् ॥

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