अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
सर्वो॒ वै तत्र॑ जीवति॒ गौरश्वः॒ पुरु॑षः प॒शुः। यत्रे॒दं ब्रह्म॑ क्रि॒यते॑ परि॒धिर्जीव॑नाय॒ कम् ॥
स्वर सहित पद पाठसर्व॑: । वै । तत्र॑ । जी॒व॒ति॒ । गौ: । अश्व॑: । पुरु॑ष: । प॒शु॒: । यत्र॑ । इ॒दम् । ब्रह्म॑ । क्रि॒यते॑ । प॒रि॒ऽधि: । जीव॑नाय । कम् ॥२.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वो वै तत्र जीवति गौरश्वः पुरुषः पशुः। यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनाय कम् ॥
स्वर रहित पद पाठसर्व: । वै । तत्र । जीवति । गौ: । अश्व: । पुरुष: । पशु: । यत्र । इदम् । ब्रह्म । क्रियते । परिऽधि: । जीवनाय । कम् ॥२.२५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(सर्वः) सब (वै) ही (तत्र) वहाँ (जीवति) जीता रहता है, (गौः) गौ, (अश्वः) घोड़ा, (पुरुषः) पुरुष, और (पशुः) पशु [हाथी ऊँट आदि]। (यत्र) जहाँ पर (इदम्) यह [प्रसिद्ध] (ब्रह्म) ब्रह्म [परमेश्वर] (जीवनाय) जीवन के लिये (कम्) सुख से (परिधिः) कोट [समान रक्षासाधन] (क्रियते) बनाया जाता है ॥२५॥
भावार्थ
जो मनुष्य ब्रह्म के आश्रित रहते हैं, वे जीवन्मुक्त होकर सब सुख भोगते हैं ॥२५॥ इस मन्त्र का सम्बन्ध मन्त्र २३, २४ से है ॥
टिप्पणी
२५−(सर्वः) निःशेषः (वै) एव (तत्र) ब्रह्माश्रये (जीवति) प्राणान् धारयति (गौः) धेनुः (अश्वः) घोटकः (पुरुषः) मनुष्यः (पशुः) गजोष्ट्रादिः (तत्र) (इदम्) प्रसिद्धम् (ब्रह्म) परिवृढः परमात्मा (परिधिः) प्राकारो यथा रक्षासाधनम् (जीवनाय) प्राणधारणाय (कम्) सुखेन ॥
विषय
ब्रह्मरूप परिधि
पदार्थ
१. हे पुरुष! गतमन्त्र में वर्णित ब्रह्मज्ञानमय दुर्ग (त्वा) = तुझे (समानेभ्य:) = तेरे समान बल, आयु व विद्यावाले पुरुषों और (सबन्धुभ्यः) = साथ रहनेवाले बन्धुओं की ओर से होनेवाले (अभिचारात्) = आक्रमण से (परिपातु) = रक्षित करे। २. तू (अमम्रि: भव) = असमय में मरनेवाला न हो, (अमृतः) = नीरोग हो, (अतिजीव:) = अतिशयित जीवन-शक्तिवाला हो। (असवः) = प्राण (ते शरीरम्) = तेरे शरीर को (मा हासिषुः) = मत छोड़ जाएँ।
भावार्थ
ब्रह्मरूप प्राकार हमें सब आक्रमणों से बचाये। हम असमय में न मरनेवाले, नीरोग, अतिशयित जीवन-शक्तिवाले बनें। प्राण हमारे शरीरों को न छोड़ जाएँ।
भाषार्थ
(तत्र) उस अवस्था में (वै) निश्चय से (जीवति) जीवित रहता है, (सर्व) सभी (गौः, अश्वः पुरुषः, पशुः) गौ अश्व तथा पुरुष और पशु, (यत्र) जिस अवस्था में (इदम् कम् ब्रह्म) इस सुखस्वरूप ब्रह्म को (जीवनाय) जीवन के लिये (परिधिः) परिधि (क्रियते) कर लिया जाता है ।।२५।।
टिप्पणी
["गौः, अश्वः, पुरुषः, पशुः" के दो अभिप्राय सम्भव हैं (१) गौ, अश्व, पुरुष, इन में से प्रत्येक पशु है। यथा “तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः" (अथर्व० ११।२।९) में गौ आदि पांचों को पशु कहा है। (२) गौ, अश्व, पुरुष तथा तद्भिन्न पशु। पशु जात्येकवचन है। ब्रह्म के भी दो अर्थ हैं। (१) परमेश्वर (२) वेद। ये दोनों परिधि हैं। परमेश्वरार्थ में अभिप्राय है ब्रह्म को निज की परिधि मानना। अपने-आप को इस परिधि में केन्द्ररूप में जानकर यह समझना कि मैं ब्रह्म द्वारा घिरा हुआ हूं, जो कि कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता है, अतः सदा सत्कर्म करना। इससे जीवन पवित्र और सात्त्विक बन कर जीवनावधि से पूर्व नहीं मरता। जीवनावधि है १०० वर्ष। दूसरी परिधि है, वेद। जैसे कि कहा है कि "सप्तास्यासन् परिधयः" (यजु० ३१।१५) अर्थात् सप्तविध छन्दों वाला वेद परिधिरूप है। इस परिधि के भीतर अपने आप को रख कर वेदोपदिष्ट मार्ग पर चलने से व्यक्ति जीवनावधि से पहले नहीं मरता, अपितु "शतात्" से भी “भूयः" जीवित रह सकता है। वेद भी "कम्" है, यतः वेद सुखी जीवन का मार्ग दर्शाता है]।
इंग्लिश (4)
Subject
Long Life
Meaning
There where this Brahma, super soul, super¬ consciousness, this knowledge of the Supreme reality of life is made the line of all round defence for life, all remain alive, the cow, the man, the animal, all being the spirit, no one dies, no one is killed.
Translation
Certainly all there remain alive - the cow, the horse, the man, the animal, where this prayer is made a pleasing protective enclosure for long life.
Translation
All-including cow, horse, man and animal live there where the Vedic teachings are made rampart for leading the life happily without any infliction,.
Translation
Here verily all creatures live, the cow, the horse, the men, the beast, here where this Vedic knowledge is used as a rampart that protects life.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२५−(सर्वः) निःशेषः (वै) एव (तत्र) ब्रह्माश्रये (जीवति) प्राणान् धारयति (गौः) धेनुः (अश्वः) घोटकः (पुरुषः) मनुष्यः (पशुः) गजोष्ट्रादिः (तत्र) (इदम्) प्रसिद्धम् (ब्रह्म) परिवृढः परमात्मा (परिधिः) प्राकारो यथा रक्षासाधनम् (जीवनाय) प्राणधारणाय (कम्) सुखेन ॥
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