अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
ये मृ॒त्यव॒ एक॑शतं॒ या ना॒ष्ट्रा अ॑तिता॒र्याः। मु॒ञ्चन्तु॒ तस्मा॒त्त्वां दे॒वा अ॒ग्नेर्वै॑श्वान॒रादधि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठये । मृ॒त्यव॑: । एक॑ऽशतम् । या: । ना॒ष्ट्रा: । अ॒ति॒ऽता॒र्या᳡: । मु॒ञ्चन्तु॑ । तस्मा॑त् । त्वाम् । दे॒वा: । अ॒ग्ने: । वै॒श्वा॒न॒रात् । अधि॑ ॥२.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
ये मृत्यव एकशतं या नाष्ट्रा अतितार्याः। मुञ्चन्तु तस्मात्त्वां देवा अग्नेर्वैश्वानरादधि ॥
स्वर रहित पद पाठये । मृत्यव: । एकऽशतम् । या: । नाष्ट्रा: । अतिऽतार्या: । मुञ्चन्तु । तस्मात् । त्वाम् । देवा: । अग्ने: । वैश्वानरात् । अधि ॥२.२७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (ये) जो (एकशतम्) एक सौ एक (मृत्यवः) मृत्युएँ और (याः) जो (नाष्ट्राः) नाश करनेवाली [पीड़ायें] (अतितार्याः) पार करने योग्य हैं। (तस्मात्) उस [क्लेश] से (त्वाम्) तुझको (देवाः) [तेरे] उत्तम गुण (वैश्वानरात्) सब नरों के हितकारक (अग्नेः) अग्नि [सर्वव्यापक परमेश्वर] का आश्रय लेकर (अधि) अधिकारपूर्वक (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥२७॥
भावार्थ
ब्रह्मवादी योगीजन सर्वगुरु परमेश्वर के आश्रय से उत्तम कर्म करके शारीरिक और आत्मिक पीड़ाएँ छोड़कर आनन्द पाते हैं ॥२७॥
टिप्पणी
२७−(ये) (मृत्यवः) मृत्युहेतवो रोगादयः (एकशतम्) एकाधिकं शतम्। बहुसंख्याका इत्यर्थः (याः) (नाष्ट्राः) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६। नाशयतेः-त्रन्। नाशयित्र्यः पीडाः (अतितार्याः) अतितरीतव्याः। लङ्घनीयाः (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (तस्मात्) क्लेशात् (त्वाम्) मनुष्यम् (देवाः) उत्तमगुणाः (अग्नेः) पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० २।३।२८। अग्निं सर्वव्यापकं परमेश्वरमाश्रित्य (वैश्वानरात्) सर्वनरहितमित्यर्थः (अधि) अधिकृत्य ॥
विषय
एकशतं मृत्यवः
पदार्थ
१. (ये) = जो प्रसिद्ध (मृत्यवः) = मरण के कारणभूत ज्वर-शिरोव्यथा आदि (एकशतम) = एक सौ संख्या से संख्यात रोग है, (या:) = जो (नाष्ट्रा:) = नाशकारिणी (अतितार्या:) = अतितरीतव्य-लङ्घनीय हिसिका अविद्याग्रन्थियाँ हैं, (तस्मात्) = इन रोगों वा अविद्याग्रन्थियों से (देवा:) = सब देव-ज्ञानीपुरुष (त्वाम्) = तुझे (मुञ्चन्तु) = छुडाएँ। २. वे ज्ञानीपुरुष तुझे इन रोगों व वासनाओं से छडाएँ जो (अग्नेः वैश्वानरात् अधि) = उस अग्रणी सर्वनरहितकारी प्रभु के प्रतिनिधि हैं [अधि पञ्चम्यर्थानुवादी]। उस प्रभु के ज्ञान-सन्देश को सुनाते हुए ये तुझे सब रोगों व वासनाओं से मुक्त करें।
भावार्थ
प्रभु के प्रतिनिधिभूत ज्ञानीपुरुषों से ज्ञान-सन्देश प्राप्त करके हम रोगों व वासनाओं से ऊपर उठें।
भाषार्थ
(ये) जो (एकशतम्) एक सौ या एकाधिक सौ (मृत्यवः) मृत्युएं हैं, तथा (या) जो (अतितार्याः) सुगमता से तैरा जा सकने वाली अन्य (नाष्ट्राः) विनाशक शक्तियां हैं, (तस्मात्) उस द्विविध से, तथा (वैश्वानरात् अग्नेः) सब नर-नारियों सम्बन्धी अग्नि अर्थात् जो शवाग्नि है उस से (त्वाम्) तुझे (देवाः) देव आचार्य (अधि मुञ्चन्तु) छुड़ा दें।
टिप्पणी
[१०० वर्षों में से प्रत्येक वर्ष में, एकैक की दृष्टि से सम्भाव्य मृत्युएं १०० हैं, तथा गर्भ में ही सम्भाव्य मृत्यु उन से एक पृथक है। इस प्रकार मृत्युओं की संख्या १०० भी है, और १०१ भी। नाष्ट्राः शक्तियां हैं, रोग रूप इनसे सुगमता पूर्वक तैर जाना सम्भव है, जैसे कि नौका द्वारा नदी या समुद्र को तैर जाना। देवाः= अध्यात्मशक्तिसम्पन्न व्यक्ति आचार्य]।
इंग्लिश (4)
Subject
Long Life
Meaning
Hundred and one are the ways and forms of death, pains and sufferings to be crossed over in the ordinary course of life. May the divinities of nature and the enlightened people, by the cosmic light of life above them all save you from that kind of death.
Translation
From deaths, which are of à hundred and one types, and from the calamities, which have to be crossed over, may the enlightened ones, under the leadership of the adorable Lord, the benefactor of all men, rescue you.
Translation
May the learned persons and the physical forces operating their roles in the universe under the control of All-pervading self-refulgent God protect you, O man ! from the modes of death which are one hundred and which are fatal and possessed of unbearable pains.
Translation
There are one and a hundred modes of death, and many destructive fetters of ignorance that may be overcome; may learned persons deliver thee from this when the. All-pervading Refulgent God bids.
Footnote
This' refers to Death, ignorance.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२७−(ये) (मृत्यवः) मृत्युहेतवो रोगादयः (एकशतम्) एकाधिकं शतम्। बहुसंख्याका इत्यर्थः (याः) (नाष्ट्राः) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६। नाशयतेः-त्रन्। नाशयित्र्यः पीडाः (अतितार्याः) अतितरीतव्याः। लङ्घनीयाः (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (तस्मात्) क्लेशात् (त्वाम्) मनुष्यम् (देवाः) उत्तमगुणाः (अग्नेः) पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० २।३।२८। अग्निं सर्वव्यापकं परमेश्वरमाश्रित्य (वैश्वानरात्) सर्वनरहितमित्यर्थः (अधि) अधिकृत्य ॥
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