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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
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    वाता॑त्ते प्रा॒णम॑विदं॒ सूर्या॒च्चक्षु॑र॒हं तव॑। यत्ते॒ मन॒स्त्वयि॒ तद्धा॑रयामि॒ सं वि॒त्स्वाङ्गै॒र्वद॑ जि॒ह्वयाल॑पन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाता॑त् । ते॒ । प्रा॒णम् । अ॒वि॒द॒म् । सूर्या॑त् । चक्षु॑: । अ॒हम् । तव॑ । यत् । ते । मन॑: । त्वयि॑ । तत् । धा॒र॒या॒मि॒ । सम् । वि॒त्स्व॒ । अङ्गै॑: । वद॑ । जि॒ह्वया॑ । अल॑पन् ॥२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वातात्ते प्राणमविदं सूर्याच्चक्षुरहं तव। यत्ते मनस्त्वयि तद्धारयामि सं वित्स्वाङ्गैर्वद जिह्वयालपन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वातात् । ते । प्राणम् । अविदम् । सूर्यात् । चक्षु: । अहम् । तव । यत् । ते । मन: । त्वयि । तत् । धारयामि । सम् । वित्स्व । अङ्गै: । वद । जिह्वया । अलपन् ॥२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (वातात्) वायु से (ते) तेरे (प्राणम्) प्राण को और (सूर्यात्) सूर्य से (तव) तेरी (चक्षुः) दृष्टि (अहम्) मैंने (अविदम्) पायी है। (यत्) जो (ते) तेरा (मनः) मन है, (तत्) उस को (त्वयि) तुझ में (धारयामि) स्थापित करता हूँ, (अङ्गैः) [शास्त्र के] सब अङ्गों से (सम् वित्स्व) यथावत् जान, (जिह्वया) जीभ से (अलपन्) बकवाद न करता हुआ (वद) बोल ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे वायु से प्राण और सूर्य से दृष्टि स्थिर रहती है, वैसे ही मनुष्य आत्मा में मन को निश्चल करके पदार्थों के तत्त्व को साक्षात् करके सारांश का उपदेश करे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(वातात्) वायुसकाशात् (ते) तव (प्राणम्) जीवनम् (अविदम्) लब्धवानस्मि (सूर्यात्) आदित्यात् (चक्षुः) दृष्टिम् (अहम्) प्राणी (तव) (यत्) (ते) तव (मनः) अन्तःकरणम् (त्वयि) तवात्मनि (तत्) मनः (धारयामि) स्थापयामि (सम् वित्स्व) समो गम्यृच्छिप्रच्छिस्वरत्यर्तिश्रुविदिभ्यः। पा० १।३।२९। सं पूर्वाद् विद ज्ञाने आत्मनेपदम्। सम्यग् ज्ञानं प्राप्नुहि (अङ्गैः) शास्त्राङ्गैः (वद) उदीरय (जिह्वया) रसनया (अलपन्) लपनं प्रलापमनर्थकथनमकुर्वन् ॥

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    विषय

    शुद्धवायु व सूर्यकिरणों का सेवन

    पदार्थ

    १. मैं (वातात्) = वायु से (ते प्राणम् अविदम्) = तुझे प्राणशक्ति प्राप्त कराता हूँ। (अहम्) = मैं (सूर्यात्) = सूर्य से (तव चक्षुः) = तुझे दृष्टिशक्ति प्राप्त कराता हूँ। वायु व सूर्य के सेवन से तू प्राणशक्ति-सम्पन्न व दृष्टिशक्ति-सम्पन्न बन। (यत्ते मन:) = जो तेरा मन है (तत्) = उसे (त्वयि धारयामि) = तुझमें धारण करता हूँ, तेरा मन सदा भटकता ही न रहे। (अङ्गैः संवित्स्व) = तू अङ्गों से सम्यक् युक्त हो [विद् लाभे] (जिह्वाया) = जिह्वा से (आलपन्) = उच्चारण करता हुआ (वद) = सम्यक्तया वाणी को प्रेरित कर । तेरे बोलने से तेरी जीवन-शक्ति प्रकट हो।

    भावार्थ

    शुद्ध-वायु का सेवन व सूर्यकिरणों का सम्पर्क प्राणशक्ति को तथा इन्द्रियों के स्वास्थ्य को प्राप्त कराते हैं। मन की स्थिरता भी दीर्घजीवन का साधन बनती है। स्वस्थ पुरुष के भाषण में जीवन-शक्ति प्रकट होती है।

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    भाषार्थ

    (वातात्) वायु से (ते) तेरे (प्राणम्) प्राण को (अविदम) मैंने पाया है, (सूर्यात्) सूर्य से (तव) तेरी (चक्षुः) चक्षु प्रर्थात् दृष्टिशक्ति को (अहम्) मैंने पाया है। (यत्) जो (ते) तेरा (मनः) मन है (तत्) उसे (त्वयि) तुझ में (धारयामि) मैं स्थापित करता हूं, (अङ्गैः) समग्र अङ्गों से सम्पन्न हुआ तु (संवित्स्व) सम्यक् प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर, और (जिह्वया) जिह्वा द्वारा (अलपन्) प्रलाप न करता हुआ (वद) बोला कर।

    टिप्पणी

    [माणवक को खुली अन्तरिक्षीय वायु में रखना चाहिये, तथा अन्धेरे कमरों में उसके अध्ययन के स्थान में सूर्य के प्रकाश में उसका अध्ययन अध्यापन होना चाहिये। उसके मन में स्थिरता पैदा करनी चाहिये, मन की चञ्चलता का निरोध करना चाहिये ताकि वह सम्यक् प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर सके। दण्ड प्रदान द्वारा उसका कोई अङ्ग विकृत नहीं करना चाहिये। व्यर्थ की बातचीत से उसे रोकना चाहिये। उसे ठीक प्रकार बोलना सिखाना चाहिये। अथवा मूर्छा तथा रोग के कारण माणवक के प्राण तथा चक्षुः आदि इन्द्रियों में जो क्षति आ गई है, और मनोविकार हो गया है, तथा अङ्ग विकृत हो गया है, और बोलने में जिह्वा का पक्षाघात हो गया है; इन सब को स्वस्थ करने का कथन मन्त्र में हुआ है]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    I have created your pranic energy of breath from the wind, the eye from the sun. And the mind that is yours, that I vest in you. Have and be yourself the whole personality with all limbs of the body system, speaking, self-expressive, articulating your words with the tongue.

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    Translation

    From the wind I have piscured your vital breath and from the Sun your vision, What is your mind, that I confirm in you. Be in unison with your members. Speak with your tongue unlamenting.

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    Translation

    O ailing man ! restore to you your breath from the wind and your eye-vision from the sun. I make the recovery of your mental alertness, regain your consciousness through the senses and speak the word using your tongue.

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    Translation

    For thee, I create breathe from the wind, and vision from the Sun. Thy mind I establish and secure within thee. Acquire knowledge with thy organs, speak clearly with thy tongue.

    Footnote

    I' refers to God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(वातात्) वायुसकाशात् (ते) तव (प्राणम्) जीवनम् (अविदम्) लब्धवानस्मि (सूर्यात्) आदित्यात् (चक्षुः) दृष्टिम् (अहम्) प्राणी (तव) (यत्) (ते) तव (मनः) अन्तःकरणम् (त्वयि) तवात्मनि (तत्) मनः (धारयामि) स्थापयामि (सम् वित्स्व) समो गम्यृच्छिप्रच्छिस्वरत्यर्तिश्रुविदिभ्यः। पा० १।३।२९। सं पूर्वाद् विद ज्ञाने आत्मनेपदम्। सम्यग् ज्ञानं प्राप्नुहि (अङ्गैः) शास्त्राङ्गैः (वद) उदीरय (जिह्वया) रसनया (अलपन्) लपनं प्रलापमनर्थकथनमकुर्वन् ॥

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