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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 26
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
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    परि॑ त्वा पातु समा॒नेभ्यो॑ऽभिचा॒रात्सब॑न्धुभ्यः। अम॑म्रिर्भवा॒मृतो॑ऽतिजी॒वो मा ते॑ हासिषु॒रस॑वः॒ शरी॑रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । त्वा॒ । पा॒तु॒ । स॒मा॒नेभ्य॑: । अ॒भि॒ ऽचा॒रात् । सब॑न्धुऽभ्य: । अम॑म्रि॒: । भ॒व॒ । अ॒मृत॑: । अ॒ति॒ऽजी॒व: । मा । ते॒ । हा॒सि॒षु॒: । अस॑व: । शरी॑रम् ॥२.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि त्वा पातु समानेभ्योऽभिचारात्सबन्धुभ्यः। अमम्रिर्भवामृतोऽतिजीवो मा ते हासिषुरसवः शरीरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । त्वा । पातु । समानेभ्य: । अभि ऽचारात् । सबन्धुऽभ्य: । अमम्रि: । भव । अमृत: । अतिऽजीव: । मा । ते । हासिषु: । असव: । शरीरम् ॥२.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 26
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    वह [ब्रह्म-म० २५] (त्वा) तुझको (अभिचारात्) दुष्कर्म से (सबन्धुभ्यः) बन्धुओं सहित (समानेभ्यः) साथियों के [हित के] लिये (परि) सब प्रकार (पातु) बचावे। (अमम्रिः) विना मृत्युवाला, (अमृतः) अमर, (अतिजीवः) उत्तरजीवी (भव) हो, (ते) तेरे (असवः) प्राण [तेरे] (शरीरम्) शरीर को (मा हासिषुः) न छोड़ें ॥२६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमेश्वर का सहारा लेकर परोपकार करते हैं, वे ब्रह्मचारी अधिक जीकर अधिक उपकारी होते हैं ॥२६॥

    टिप्पणी

    २६−(परि) सर्वतः (त्वा) त्वाम् (पातु) रक्षतु (समानेभ्यः) समानानां सदृशगुणस्वभावानां हिताय (अभिचारात्) विरुद्धाचरणात्। उपद्रवात् (सबन्धुभ्यः) बन्धुसहितेभ्यः (अमम्रिः) आदृगमहनजनः किकिनौ। लिट् च। पा० ३।२।१७१। मृङ् प्राणत्यागे−कि, नञ्समासः। अमरणशीलः (भव) (अमृतः) अमरः। पुरुषार्थी (अतिजीवः) उत्तरजीवी (ते) तव (मा हासिषुः) ओहाक् त्यागे-लुङ्। मा त्यजन्तु (असवः) प्राणाः (शरीरम्) देहम् ॥

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    विषय

    अमनि:-अमृत:-अतिजीवः

    पदार्थ

    १. हे पुरुष! गतमन्त्र में वर्णित ब्रह्मज्ञानमय दुर्ग (त्वा) = तुझे (समानेभ्य:) = तेरे समान बल, आयु व विद्यावाले पुरुषों और (सबन्धुभ्यः) = साथ रहनेवाले बन्धुओं की ओर से होनेवाले (अभिचारात्) = आक्रमण से (परिपातु) = रक्षित करे। २. तू (अमम्रि: भव) = असमय में मरनेवाला न हो, (अमृतः) = नीरोग हो, (अतिजीव:) = अतिशयित जीवन-शक्तिवाला हो। (असवः) = प्राण (ते शरीरम्) = तेरे शरीर को (मा हासिषुः) = मत छोड़ जाएँ।

    भावार्थ

    ब्रह्मरूप प्राकार हमें सब आक्रमणों से बचाये। हम असमय में न मरनेवाले, नीरोग, अतिशयित जीवन-शक्तिवाले बनें। प्राण हमारे शरीरों को न छोड़ जाएँ।

     

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    भाषार्थ

    [हे ब्रह्मचारिन् !] (त्वा) तेरी (परिपातु) सब ओर से रक्षा करे, [आचार्य], (समानेभ्यः) समान आचार्य वाले सतीर्थ्यों से होने वाली तथा (सबन्धुभ्यः) समानजाति के बन्धुओं से होने वाली (अभिचारात्) अभिचार क्रिया से, हिंसा से। [ब्रह्म की परिधि के भीतर रहता हुआ तू (मन्त्र २५)] (अमम्रिः भव) न मरने वाला हो जा (अमृतः) अमृत हो जा, (अतिजीवः) जीवन काल को अतिक्रान्त कर जा, (असवः) प्राण (ते शरीरम्) तेरे शरीर को (मा हासिषुः) न त्यागें [जीवन की अवधि से पूर्व]।

    टिप्पणी

    [अतिजीवः जीवन की सामान्य अवधि है १०० वर्ष। इस अवधि को तू अतिक्रान्त कर जा, "भूयश्च शरदः शतात्" के अनुसार १०० वर्षों से भी अधिक तू जीवित हो। समानेभ्यः = सतीभ्यः, यथा “समानतीर्थे वासी" (अष्टा० ४।४।१०७)। हासिषुः = ओहाक् त्यागे (जुहोत्यादिः)]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    May that line of divine defence all round protect you from the violence of your equals and adversaries. Immortal as you are, be not subject to death. Outlive even your life time, eternal and immortal as you are. Let not your pranas forsake your body before full time of your life on earth.

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    Translation

    May this protect you from the violence coming from your equals and from your kins. May you be undying, immortal, overflowing with life. May the vital breaths not forsake your body.

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    Translation

    Let this rampart of Vedic teachings save you from the death deviced by some-one and protect you from the equals with their kin’s men. May you survive very long, be immortal and may not the vital airs leave your body,

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    Translation

    Let this Vedic knowledge preserve thee from thy friends, from evil deeds, from thy relatives. Thou art deathless, immortal soul. Live long in the body. Let not the vital breath forsake thy body.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २६−(परि) सर्वतः (त्वा) त्वाम् (पातु) रक्षतु (समानेभ्यः) समानानां सदृशगुणस्वभावानां हिताय (अभिचारात्) विरुद्धाचरणात्। उपद्रवात् (सबन्धुभ्यः) बन्धुसहितेभ्यः (अमम्रिः) आदृगमहनजनः किकिनौ। लिट् च। पा० ३।२।१७१। मृङ् प्राणत्यागे−कि, नञ्समासः। अमरणशीलः (भव) (अमृतः) अमरः। पुरुषार्थी (अतिजीवः) उत्तरजीवी (ते) तव (मा हासिषुः) ओहाक् त्यागे-लुङ्। मा त्यजन्तु (असवः) प्राणाः (शरीरम्) देहम् ॥

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