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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
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    अ॒यं जी॑वतु॒ मा मृ॑ते॒मं समी॑रयामसि। कृ॒णोम्य॑स्मै भेष॒जं मृत्यो॒ मा पुरु॑षं वधीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । जी॒व॒तु॒ । मा । मृ॒त॒ । इ॒मम् । सम् । ई॒र॒या॒म॒सि॒ । कृ॒णोमि॑ । अ॒स्मै॒ । भे॒ष॒जम्‌ । मृत्यो॒ इति॑ । मा । पुरु॑षम् । व॒धी॒: ॥२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं जीवतु मा मृतेमं समीरयामसि। कृणोम्यस्मै भेषजं मृत्यो मा पुरुषं वधीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । जीवतु । मा । मृत । इमम् । सम् । ईरयामसि । कृणोमि । अस्मै । भेषजम्‌ । मृत्यो इति । मा । पुरुषम् । वधी: ॥२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) यह [जीव] (जीवतु) जीता रहे (मा मृत) न मरे, (इमम्) इस [जीव] को (सम् ईरयामसि) हम वायुसमान [शीघ्र] चलाते हैं। (अस्मै) इस के लिये मैं (भेषजम्) औषध (कृणोमि) करता हूँ (मृत्यो) हे मृत्यु ! (पुरुषम्) [इस] पुरुष को (मा वधीः) मत मार ॥५॥

    भावार्थ

    जो पुरुषार्थी निरालसी होकर धर्म में वायुसमान शीघ्र चलते हैं, वे अमर मनुष्य दुःख में नहीं फँसते ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(अयम्) जीवः (जीवतु) प्राणान् धरतु (मा मृत) मृङ् प्राणत्यागे-लुङ्। प्राणान् मा त्यजतु (इमम्) आत्मानम् (समीरयामसि) वायुवच्छीघ्रं प्रेरयामः (कृणोमि) करोमि (अस्मै) जीवाय (भेषजम्) औषधम् (मृत्यो) (पुरुषम्) जीवम् (मा वधीः) मा जहि ॥

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    विषय

    रोग का प्रारम्भ में ही प्रतीकार

    पदार्थ

    (अयं जीवतु) = यह रुग्ण पुरुष जीये, (मा मृत) = मरे नहीं। हम (इमं समीरयामसि) = इसे प्राणशक्ति से प्रेरित करते हैं। प्राणशक्ति-सम्पन्न होकर यह सब चेष्टाएँ ठीक प्रकार से करे, ऐसी व्यवस्था करते हैं। (अस्मै भेषजं कृणोमि) = इसके लिए औषध करता हूँ। हे (मृत्यो) = मृत्यु! तू (पुरुषं मा वधी:) = इस पुरुष को मत मार । 'वस्तुत:' रोग को आरम्भ में ही औषधोपचार से दूर कर दिया जाए' तभी ठीक है।

    भावार्थ

    रोग को आरम्भ में ही औषधोपचार से ठीक कर दिया जाए तो उत्तम है, जिससे रोगवृद्धि होकर मृत्यु का भय न रहे।

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    भाषार्थ

    (अयम्) यह (जीवतु) जीए, (मा मृत) न मरे (इमम्) इसे (समीरयामसि) [पंखे आदि द्वारा] हम प्राणवायु प्रेरित करते हैं। (अस्मै) इसके लिये (भेषजम्) औषध (कृणोमि) में आचार्य या वैद्य करता हूं, (मृत्यो) हे मृत्यु के अधिष्ठाता मृत्यु नामक परमेश्वर ! (मन्त्र १) (पुरुषम्) माणवक का (मा वधीः) वध न कर।

    टिप्पणी

    [समीरयामसि= अन्तरिक्षस्थ वायु को "समीरण" कहते हैं, जो कि "सम्" सम्यक्तया "ईरण" गति करती रहती है। सम् + ईर् (गतौ)। इस लिये वायु का नाम "सदागति" भी है। सदा गति करने के कारण इसकी शुद्धता को सूचित किया है, अतः यह प्राणप्रद है। "मा मृत" द्वारा सूचित किया है कि पुरुष अर्थात् माणवक वस्तुतः मरा नहीं अपितु यह मूर्च्छित या आसन्नमृत्यु है]|

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    May this man live on, let him not die. We revive him with pranic energy of breath. I prepare the medicine for him and administer the dose. O lord of life and death, pray subject him not to untimely death.

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    Translation

    May this man live on; let him not die. We stir him to life. I administer a medicine to him. O death, may you not slay this man.

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    Translation

    Let this ailing men retain life, let him not die, I inspire the fife into him and treat him with healing medicine. Let not death keel this men.

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    Translation

    Let this man live, let him not die, we make him conscious. I make for him a healing balm. O Death, forbear to slay this man.

    Footnote

    The verse refers to a sick person. ‘We’ refers to learned persons. 'I' refers to a skilled physician.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(अयम्) जीवः (जीवतु) प्राणान् धरतु (मा मृत) मृङ् प्राणत्यागे-लुङ्। प्राणान् मा त्यजतु (इमम्) आत्मानम् (समीरयामसि) वायुवच्छीघ्रं प्रेरयामः (कृणोमि) करोमि (अस्मै) जीवाय (भेषजम्) औषधम् (मृत्यो) (पुरुषम्) जीवम् (मा वधीः) मा जहि ॥

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