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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
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    अह्ने॑ च त्वा॒ रात्र॑ये चो॒भाभ्यां॒ परि॑ दद्मसि। अ॒राये॑भ्यो जिघ॒त्सुभ्य॑ इ॒मं मे॒ परि॑ रक्षत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अह्ने॑ । च॒ । त्वा॒ । रात्र॑ये । च॒ । उ॒भाभ्या॑म् । परि॑ । द॒द्म॒सि॒ । अ॒राये॑भ्य: । जि॒घ॒त्सुऽभ्य॑: । इ॒मम् । मे॒ । परि॑ । र॒क्ष॒त॒ ॥२.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अह्ने च त्वा रात्रये चोभाभ्यां परि दद्मसि। अरायेभ्यो जिघत्सुभ्य इमं मे परि रक्षत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अह्ने । च । त्वा । रात्रये । च । उभाभ्याम् । परि । दद्मसि । अरायेभ्य: । जिघत्सुऽभ्य: । इमम् । मे । परि । रक्षत ॥२.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्वा) तुझे (उभाभ्याम्) दोनों (अह्ने) दिन (च च) और (रात्रये) रात्रि को (परि दद्मसि) हम सौंपते हैं। (अरायेभ्यः) निर्दानी और (जिघत्सुभ्यः) खाना चाहनेवाले लोगों से (इमम्) इस [पुरुष] को (मे) मेरे लिये (परि) सब प्रकार (रक्षत) तुम बचाओ ॥२०॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रकाश अन्धकार और समय कुसमय का विचार करके शत्रुओं से परस्पर रक्षा करें ॥२०॥

    टिप्पणी

    २०−(अह्ने) दिनाय। प्रकाशकालाय (त्वा) त्वाम् (रात्रये) अन्धकारकालाय (च च) समुच्चये (उभाभ्याम्) द्वाभ्याम् (परि दद्मसि) समर्पयामः (अरायेभ्यः) रा दाने-घञ्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। अदातृभ्यः (जिघत्सुभ्यः) अद भक्षणे-सन्-उ प्रत्ययः। लुङ्सनोर्घस्लृ। पा० २।४।३७। अदेर्घस्लादेशे। एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्। पा० ७।२।१०। इट्प्रतिषेधः। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। इति तत्वम्। भक्षणेच्छुकेभ्यः पुरुषेभ्यः (इमम्) पुरुषम् (मे) मह्यम् (परि) सर्वतः (रक्षत) पालयत ॥

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    विषय

    अरायेभ्यः जिघत्सुभ्यः

    पदार्थ

    १. हे कुमार ! (त्वा) = तुझे (अहे) = दिन के लिए, (रात्रये च) = और रात्रि के लिए (उभाभ्याम्) = इन दोनों दिन व रात के लिए (परिझ्दसि)-रक्षा के लिए देते हैं। दिन व रात में तेरा जीवन सदा सुरक्षित हो। २. (अरायेभ्यः) = अधनों [निर्धनों] से व धन के अपहर्ता डाकूओं से तथा (जियत्सुभ्यः) = खाने की इच्छावाले भक्षक (रक्ष:) = पिशाचादि से मे (इमं परिरक्षत) = मेरे इस बालक का तुम परिरक्षण करो अथवा हिंसक पशुओं से इसका परिरक्षण करो।

    भावार्थ

    हमारे कुमार दिन व रात में सुरक्षित जीवन बिता सकें। मार्गों में इन्हें लुटेरों व हिंसक पशुओं से किसी प्रकार का भय न हो।

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    भाषार्थ

    हे ब्रह्मचारिन् ! (त्वा) तुझे (अह्ने च रात्रये च) दिन के प्रति और रात्रि के प्रति (उभाभ्याम्) दोनों के प्रति (परिदद्मसि) हम सुरक्षार्थ समर्पित करते हैं। (अरायेभ्यः) शत्रुरूप रोगों से, (जिघत्सुभ्यः) और भक्षण कर लेने वाले रोगों से, (मे) मेरे (इमम्) इस ब्रह्मचारी को (परिरक्षत) सब प्रकार से सुरक्षित करो।

    टिप्पणी

    [दिन में सूर्य के प्रकाश में रोगी को रखना और रात्रि में पूर्ण विश्राम, यह है दिन और रात्रि के प्रति समर्पण। "अराय" हैं अराति अर्थात् शत्रु। रोग सभी शत्रु होते हैं, कोई तो जीवन का न भक्षण करने वाले और कई जीवन का भक्षण करने वाले ! इन दोनों प्रकार के रोगों की निवृत्ति के लिये [वैद्यों से] प्रार्थना की गई है। (मे) "मेरे" द्वारा रोगी के प्रति आचार्य की आत्मीयता प्रकट की गई है। "जिघत्सुभ्यः" में अद् (भक्षणे) को घस्लृ आदेश हुआ है (अष्टा० २।४।३७)]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    O man, we entrust you to the day for sun and activity, and to the night for rest and peace, to both we entrust you for balance of work and rest for recuperation. O day and night, pray save and protect this man of ours from sin and indigence and from ogres and destroyers.

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    Translation

    I hand you over (as a charge) to day and to night, to both of them. May you protect my this man from evil-minded ones, seeking to devour him.

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    Translation

    We give you to the safety of day and night both and as let them save this man from trouble giving and devouring diseases.

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    Translation

    O man, we grant thee freedom to pass both day and night according to your pleasure. O learned administrators, save my property and body from indigent dacoits, and violent cannibals!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २०−(अह्ने) दिनाय। प्रकाशकालाय (त्वा) त्वाम् (रात्रये) अन्धकारकालाय (च च) समुच्चये (उभाभ्याम्) द्वाभ्याम् (परि दद्मसि) समर्पयामः (अरायेभ्यः) रा दाने-घञ्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। अदातृभ्यः (जिघत्सुभ्यः) अद भक्षणे-सन्-उ प्रत्ययः। लुङ्सनोर्घस्लृ। पा० २।४।३७। अदेर्घस्लादेशे। एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्। पा० ७।२।१०। इट्प्रतिषेधः। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। इति तत्वम्। भक्षणेच्छुकेभ्यः पुरुषेभ्यः (इमम्) पुरुषम् (मे) मह्यम् (परि) सर्वतः (रक्षत) पालयत ॥

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