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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 15
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    यच्छ॒क्रासि॑ परा॒वति॒ यद॑र्वा॒वति॑ वृत्रहन् । यद्वा॑ समु॒द्रे अन्ध॑सोऽवि॒तेद॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । श॒क्र॒ । असि॑ । प॒रा॒ऽवति॑ । यत् । अ॒र्वा॒ऽवति॑ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । यत् । वा॒ । स॒मु॒द्रे । अन्ध॑सः । अ॒वि॒ता । इत् । अ॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यच्छक्रासि परावति यदर्वावति वृत्रहन् । यद्वा समुद्रे अन्धसोऽवितेदसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । शक्र । असि । पराऽवति । यत् । अर्वाऽवति । वृत्रऽहन् । यत् । वा । समुद्रे । अन्धसः । अविता । इत् । असि ॥ ८.१३.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (शक्र) हे समर्थ (वृत्रहन्) आवरणनाशक ! (यत्, परावति, असि) यद्धि दूरदेशे भवसि (यत्, अर्वावति) यद्वा समीपे वर्तसे (यत्, वा, समुद्रे) यद्वाऽन्तरिक्षे वर्तसे सर्वतः (अन्धसः) पदार्थानाम् (अविता, इत्) रक्षितैव (असि) भवसि ॥१५॥

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    विषयः

    ईश्वरस्य स्तुतिं करोति ।

    पदार्थः

    हे शक्र=हे सर्वशक्तिमन् । सर्वं कर्तुं यः शक्नोति स शक्रः । हे वृत्रहन्=वृत्रान् निखिलविघ्नान् हन्तुं शीलमस्यास्तीति वृत्रहा । हे तादृशेन्द्र ! यद्=यदि । त्वम् । परावति=अतिदूरदेशे । असि=वर्तसे । यद्=यदि । अर्वावति=सन्निकटदेशे । वर्तसे । यद्वा=यदि । समुद्रे=जलनिधौ अन्तरिक्षे वा । वर्तसे । क्वाऽपि वा भवसि । तस्मात् सर्वस्मात् स्थानाद् आगत्य अस्माकम् अन्धसोऽन्नस्य । अविता इत्=रक्षितैव भवसि । इति तव महती कृपा विद्यते ॥१५ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (शक्र) हे समर्थ (वृत्रहन्) आवरणनाशक परमात्मन् ! (यत्, परावति, असि) चाहें आप दूर हैं (यत्, अर्वावति) चाहें समीप हों (यद्, वा, समुद्रे) चाहे अन्तरिक्ष में हों, सर्वस्थानों से (अन्धसः) भोग्य पदार्थों के (अविता, इत्, असि) रक्षक ही हैं ॥१५॥

    भावार्थ

    हे आवरण=अविद्यानाशक परमात्मन् ! आप सर्वत्र सबको यथाभाग भोग्य पदार्थों का दान देते हुए अपनी व्यापकता से सबको नियम में रखते और सदैव सबकी रक्षा करते हैं। हे प्रभो ! अपने दिये हुए पदार्थों तथा सन्तानों की आप ही रक्षा करें, ताकि आपका दिया हुआ ऐश्वर्य्य हमसे वियुक्त न हो, क्योंकि आप सब प्रकार से समर्थ हैं ॥१५॥

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    विषय

    ईश्वर की स्तुति करते हैं ।

    पदार्थ

    (शक्र) हे सर्वशक्तिमन् ! (वृत्रहन्) हे सर्वविघ्नविनाशक देव ! (यद्) यदि तू (परावति) अतिदूर देश में (असि) हो (यद्) यदि तू (अर्वावति) समीपस्थ देश में हो (यद्वा) यद्वा (समुद्रे) समुद्र में या आकाश में हो, कहीं भी तू है, उस सब स्थान से आकर हमारे (अन्धसः) अन्न का (अविता+इत्) रक्षक (असि) होता ही है ॥१५ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! ईश्वर सबकी रक्षा करता है, यह जानना चाहिये ॥१५ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    हे ( शक्र ) शक्तिशालिन् ! हे ( वृत्रहन् ) विघ्न अन्धकारादि के नाशक ! ( यत् परावति ) जो तू दूर देश में ( यत् अर्वावति ) जो तू समीप में और ( यद् वा समुद्रे) जो तू समुद्र या आकाश में है तू ( अन्धसः) प्राणाधारी जीव गण का ( अविता इत् असि ) रक्षक ही है । तू सर्वत्र जीवों का रक्षक है । इति नवमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अन्धसः अविता इत् असि

    पदार्थ

    [१] हे (शक्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (यत्) = जो आप (परावति) = सुदूर द्युलोक में (असि) = हैं । हे (वृत्रहन्) = वासना को विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (यत्) = जो आप (अर्वावति) = इस समीप के पृथ्वीलोक में हैं। (यद् वा) = अथवा जो आप (समुद्रे) = इस अन्तरिक्षलोकरूप समुद्र में हैं। आप (इत्) = निश्चय से (अन्धसः) = इस आध्यातत्व सोम के द्वारा (अविता असि) = हमारा रक्षण करनेवाले हैं। [२] वे सर्वव्यापक प्रभु इन सब लोकों में निवास करनेवाले प्राणियों का सोम के द्वारा रक्षण करते हैं। शरीर में उत्पन्न हुई हुई सोम शक्ति शरीर में सुरक्षित होने पर सब रोगों से बचाती है । सोमरक्षण के द्वारा हम मृत्यु को अपने से दूर रखते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- द्युलोकस्थ, अन्तरिक्षस्थ, पृथिवीस्थ सब प्राणियों के रक्षण के लिये प्रभु ने सोम- शक्ति का स्थापन किया है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord omnipotent, destroyer of darkness and obstruction, who are far off in space and closest at hand, in the sea and in the skies, wherever and everywhere you are the protector of life and of the food for life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ईश्वर सर्वांचे रक्षण करतो हे जाणले पाहिजे ॥१५॥

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