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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 27
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इ॒ह त्या स॑ध॒माद्या॑ युजा॒नः सोम॑पीतये । हरी॑ इन्द्र प्र॒तद्व॑सू अ॒भि स्व॑र ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । त्या । स॒ध॒ऽमाद्या॑ । यु॒जा॒नः । सोम॑ऽपीतये । हरी॒ इति॑ । इ॒न्द्र॒ । प्र॒तद्व॑सू॒ इर्ति॑ प्र॒तत्ऽव॑सू । अ॒भि । स्व॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इह त्या सधमाद्या युजानः सोमपीतये । हरी इन्द्र प्रतद्वसू अभि स्वर ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । त्या । सधऽमाद्या । युजानः । सोमऽपीतये । हरी इति । इन्द्र । प्रतद्वसू इर्ति प्रतत्ऽवसू । अभि । स्वर ॥ ८.१३.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 27
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्या) ते (सधमाद्या) यज्ञोद्भवे (प्रतद्वसू) वसुप्रतनित्र्यौ (हरी) असद्गुणनिवारकसद्गुणाधायक शक्ती (युजानः) शरीरेण युञ्जन् (सोमपीतये) सौम्यान्तःकरणानुभवाय (इह) अस्मिन्यज्ञे (अभिस्वर) अभ्यागच्छ ॥२७॥

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    विषयः

    इन्द्रप्रार्थनां करोति ।

    पदार्थः

    इन्द्र ! त्वम् । त्या=त्यौ=तौ । सधमाद्या=त्वयैव सह, मादयितव्यौ मादयितारौ वा । प्रतद्वसू=प्राप्त । धनौ, प्रकर्षेण विस्तीर्णधनौ, वासयितारौ वा । हरी=परस्परहरणशीलौ स्थावरजङ्गमात्मकौ द्विविधौ संसारौ । युजानः=स्वस्वकार्य्ये युज्जानो नियोजन् सन् । इह=अस्मद्गृहे । सोमपीतये=सोमानां निखिलपदार्थानां पीतये=अनुग्रहाय । अभिस्वर=अस्माकमभिमुखो भव आगच्छ वा ॥२७ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वा) वह (सधमाद्या) यज्ञ में होनेवाली (प्रतद्वसू) रत्नों को बढ़ानेवाली (हरी) असद्गुणनिवारक और सद्गुणोपधायक शक्तियों को (युजानः) शरीर के साथ जोड़ते हुए (सोमपीतये) सौम्य अन्तःकरण का अनुभव करने के लिये (इह) इस यज्ञ में (अभिस्वर) आप आएँ ॥२७॥

    भावार्थ

    हे परमदेव परमेश्वर ! आप हमारे यज्ञ को अपनी परमकृपा से पूर्ण करें और हमें रत्नादि उत्तमोत्तम धनों का लाभ कराएँ, जिससे हम नित्यनूतन पदार्थों के आविष्काररूप यज्ञ करते रहें, जो सब प्रजाजनों की उन्नति करनेवाले हों। हे हमारे रक्षक देव ! अपनी असद्गुणनिवारक और सद्गुणों की धारक शक्तियों को हममें प्रवेश करें, ताकि हम सद्गुणसम्पन्न होकर अपने आपको उन्नत करने में समर्थ हों ॥२७॥

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    विषय

    इससे इन्द्र की प्रार्थना करते हैं ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) इन्द्र ! तू (त्या) परम प्रसिद्ध उन (सधमाद्या) तेरे ही साथ आनन्दयितव्य या आनन्दयिता (प्रतद्वसू) बहुधनसम्पन्न सर्वसुखमय (हरी) परस्पर हरणशील स्थावर और जङ्गमरूप द्विविध संसारों को (युजानः) स्व-स्व कार्य में नियोजित करता हुआ (इह) इस मेरे गृह में (सोमपीतये) निखिल पदार्थों के ऊपर अनुग्रहार्थ (अभिस्वर) हम लोगों के अभिमुख आ ॥२७ ॥

    भावार्थ

    हे ईश ! इन पदार्थों को स्व-२ कार्य में लगा और हम लोगों के ऊपर कृपा कर ॥२७ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( सोमपीतये ) 'सोम' ऐश्वर्य के पालन और उपभोग करने के लिये वा हे आचार्य विद्वन् ! तू ‘सोम’ वीर्य की रक्षा करने के लिये ( सधमाद्या ) एक साथ आनन्द लेने वाले ( त्या ) उन दोनों ( प्रतद्-वसू ) उत्तम विस्तृत ऐश्वर्यों के स्वामी ( हरी ) स्त्री पुरुषों को ( इह ) इस जगत् वा आश्रम में ( युजानः ) रथ में अश्वों के समान सन्मार्ग में नियुक्त करता हुआ ( अभि स्वर ) उनको उपदेश कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सधमाद्या प्रतद्वसू' हरी

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (इह) = हमारे जीवन में, शरीर रथ में त्या हरी उन इन्द्रियाश्वों को (युजान:) = युक्त करते हुए (सोमपीतये) = सोम के पान के लिये, सोम के रक्षण के लिये (अभिस्वर) = [अभिगच्छ] हमें प्राप्त होइये। प्रभु की प्राप्ति में वासनाओं का उत्थान नहीं होता । परिणामतः सोमरक्षण सम्भव होता है। [२] इन्द्रियाश्व (सधमाद्या) = साथ रहते हुये हमें आनन्दित करनेवाले हों, भटकनेवाले न हों। तथा (प्रतद्वसू) = प्राप्त वसू [विस्तीर्णधनौ] प्राप्त धन हों। कर्मेन्द्रियाँ शक्ति सम्पन्न हों, तो ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान सम्पन्न । शक्ति व ज्ञान ही इन इन्द्रियाश्वों की सम्पत्ति है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु कृपा से हमारे इन्द्रियाश्व न भटकनेवाले हों तथा 'शक्ति व ज्ञान' रूप धन से युक्त हों । प्रभु हमें प्राप्त हों, जिससे हम वासनाओं से अनाक्रान्त रहकर सोम का रक्षण कर सकें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord all gracious, engaging your divine forces of cosmic dynamics working in centrifugal and centripetal complementarity and creating the world’s wealth and joy with you, pray come here, shine on top of our joint endeavour of creative production and bless our yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे ईश! जगातील या पदार्थांना (स्थावर व जंगम ) आपापल्या कार्यात लाव व या लोकांवर (माणसांवर) कृपा कर. ॥२७॥

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