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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 16
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इन्द्रं॑ वर्धन्तु नो॒ गिर॒ इन्द्रं॑ सु॒तास॒ इन्द॑वः । इन्द्रे॑ ह॒विष्म॑ती॒र्विशो॑ अराणिषुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । व॒र्ध॒न्तु॒ । नः॒ । गिरः॑ । इन्द्र॑म् । सु॒तासः॑ । इन्द॑वः । इन्द्रे॑ । ह॒विष्म॑तीः । विशः॑ । अ॒रा॒णि॒षुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं वर्धन्तु नो गिर इन्द्रं सुतास इन्दवः । इन्द्रे हविष्मतीर्विशो अराणिषुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम् । वर्धन्तु । नः । गिरः । इन्द्रम् । सुतासः । इन्दवः । इन्द्रे । हविष्मतीः । विशः । अराणिषुः ॥ ८.१३.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्रम्) परमात्मानम् (नः, गिरः) अस्माकं वाचः (वर्धन्तु) वर्धयन्तु (सुतासः) सिद्धाः (इन्दवः) दिव्यपदार्थाः (इन्द्रम्) तं वर्धयन्तु (हविष्मतीः, विशः) ऐश्वर्यप्राप्तप्रजाः (इन्द्रे) तस्यैवोदरे (अराणिषुः) क्रीडन्ति ॥१६॥

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    विषयः

    तमेव प्रार्थयते ।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः । नोऽस्माकम् । गिरः=स्तुतिरूपा वाचः । इन्द्रमेव लक्षीकृत्य । वर्धन्तु=वर्धन्ताम् । यद्वा । इन्द्रस्यैव यशो वर्धयन्ताम् । अस्माकं सुतासः=सुताः सम्पादिता उपार्जिताः । इन्दवः=उत्तमाः पदार्था अपि । इन्द्रमेव लक्षयित्वा वर्धन्ताम् । अपि च । सर्वा हविष्मतीः=पूजावत्यः । विशः=प्रजाः । इन्द्रे=परमात्मन्येव । अराणिषुः=रमन्ताम्=ईश्वरे निमग्ना भवन्तु ॥१६ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्रम्) उस परमात्मा को (नः, गिरः) हमारी स्तुतिवाक् (वर्धन्तु) बढ़ाएँ (सुतासः) सिद्ध किये हुए (इन्दवः) दिव्य पदार्थ (इन्द्रम्) परमात्मा को बढ़ाएँ (हविष्मतीः, विशः) ऐश्वर्य्ययुक्त सब प्रजाएँ (इन्द्रे) उसी परमात्मा के उदर में (अराणिषुः) क्रीडा कर रही हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    हे सम्पूर्ण दिव्य पदार्थों के स्वामी परमेश्वर ! आपके दिये हुए दिव्य पदार्थों से सुभूषित हुए हम लोग स्तुतियों द्वारा आपकी महिमा का विस्तार करें। ये दिव्य पदार्थ आपके महत्त्व को बढ़ाएँ और हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न ! यह सब प्रजाएँ आपसे सुरक्षित हुई आप ही में क्रीड़ा कर रही हैं, क्योंकि यह विश्व आपका उदरस्थानीय है ॥१६॥

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    विषय

    इससे उसी की प्रार्थना करते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! (नः) हमारे (गिरः) स्तुतिरूप वचन (इन्द्रम्) ईश्वर के गुणगान में (वर्धन्तु) बढ़ें । यद्वा ईश्वर के ही यशों को बढ़ावें और (सुतासः) हमारे सम्पादित=उपार्जित (इन्दवः) उत्तम-२ पदार्थ (इन्द्रम्) भगवान् को ही लक्ष्य कर बढ़ें या भगवान् के ही यश को बढ़ावें । (हविष्मतीः) पूजावती (विशः) समस्त प्रजाएँ (इन्द्रे) भगवान् में (अराणिषुः) आनन्दित होओ ॥१६ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! तुम्हारे वचन कर्म और शरीर भी ईश्वर के यशों को बढ़ावें और तुम स्वयं उसकी आज्ञा में आनन्दित होओ ॥१६ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    ( नः ) हमारी वाणियां ( इन्द्रं वर्धन्तु ) ऐश्वर्य के देने वाले प्रभु को बढ़ावें, उसका गुण गान करें। अथवा ( इन्द्रं ) इन्द्र को लक्ष्य करके कही गई ( गिरः ) वेदवाणियां ( नः वर्धन्तु ) हमारी वृद्धि करें । इसी प्रकार ( सुतासः ) उत्पन्न हुए ( इन्दवः ) ऐश्वर्ययुक्त पदार्थ वा जीव गण ( इन्द्रं वर्धन्तु ) इन्द्र को बढ़ावें, वे भी उसी की महिमा बतलावें। ( हविष्मतीः विशः ) अन्नादि से समृद्ध प्रजाएं भी ( इन्द्रे ) ऐश्वर्ययुक्त शत्रुहन्ता राजा के अधीन सुरक्षित प्रजाओं के समान ( इन्द्रे ) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु में निमग्न रहकर ( अराणिषुः ) रमण करें। (२) इसी प्रकार प्रजा की वाणियें और ऐश्वर्यादि राजा की वृद्धि करें । वे राजा के अधीन सुखी रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    गिरः इन्दवः

    पदार्थ

    [१] (नः) = हमारी (गिरः) = ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुति-वाणियाँ (इन्द्रं वर्धन्तु) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का वर्धन करें, प्रभु के गुणों का गायन करें, उसकी महिमा का सर्वत्र प्रकाश करें। (सुतासः) = शरीर में उत्पन्न हुए हुए (इन्दवः) = सोमकण (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को हमारे अन्दर बढ़ायें। अर्थात् सोमरक्षण के द्वारा तीव्र बुद्धि बनकर हम प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें। [२] (हविष्मती:) = प्रशस्त हविवाली, अर्थात् त्यागपूर्वक अदन करनेवाली (विशः) = प्रजायें (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (अराणिषुः) = [अरंसिषुः] रमण करती हैं। प्रभु को न भूलती हुई, प्रभु में स्थित हुई- हुई ये प्रजायें एक अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञान की वाणियों द्वारा प्रभु का वर्धन करें। सोमरक्षण द्वारा तीव्र बुद्धि बनकर प्रभु का दर्शन करें। त्यागवृत्तिवाले बनकर प्रभु में स्थित हुए हुए आनन्द का अनुभव करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let our songs of adoration exalt the lord omnipotent. Let the soma essences of our yajnic performance in unison do honour to the lord. Let the citizens of the world bearing homage of self sacrifice in hand rejoice in the gifts and glories of Indra.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! तुम्ही वचन, कर्म व शरीराने ईश्वराचे यश वाढवावे व स्वत: त्याच्या आज्ञेत आनंदित राहावे ॥१६॥

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