Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 32
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    वृषा॒ ग्रावा॒ वृषा॒ मदो॒ वृषा॒ सोमो॑ अ॒यं सु॒तः । वृषा॑ य॒ज्ञो यमिन्व॑सि॒ वृषा॒ हव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । ग्रावा॑ । वृषा॑ । मदः॑ । वृषा॑ । सोमः॑ । अ॒यम् । सु॒तः । वृषा॑ । य॒ज्ञः । यम् । इन्व॑सि । वृषा॑ । हवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा ग्रावा वृषा मदो वृषा सोमो अयं सुतः । वृषा यज्ञो यमिन्वसि वृषा हव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । ग्रावा । वृषा । मदः । वृषा । सोमः । अयम् । सुतः । वृषा । यज्ञः । यम् । इन्वसि । वृषा । हवः ॥ ८.१३.३२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 32
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! (वृषा, ग्रावा) तव पर्वतादिः कामानां वर्षिता (मदः, वृषा) तवाह्लादोऽपि वृषा (अयम्, सुतः, सोमः) अयं साधितः सोमोऽपि (वृषा) कामानां वर्षिता (यम्, इन्वसि) यं च त्वं प्राप्नोषि (यज्ञः, वृषा) स यज्ञोऽपि वृषा अतः (वृषा, हवः) तवाह्वानं वृषा ॥३२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    पुनस्तमर्थमाह ।

    पदार्थः

    ईश्वरसृष्टौ स्वल्पीयसां मध्ये स्वल्पीयानपि पदार्थः बहुगुणप्रदोऽस्तीत्यनया शिक्षते । यथा−हे इन्द्र ! तव सृष्टौ । ग्रावा=लघीयान् प्रस्तरोऽपि । वृषा=कामानां वर्षिता=सेक्ता । मदोऽपि=धत्तूरादिमदकारी पदार्थोऽपि । वृषा= चिकित्साशास्त्रानुसारेण प्रयुक्तो बहुफलप्रदः । अयम् प्रत्यक्षतया । सुतः=सम्पादितोऽस्माभिः । सोमः=सोमलतापि च । वृषा । हे इन्द्र ! यं यज्ञम् त्वमिन्वसि=यासि=प्राप्नोषि । स यज्ञोऽपि वृषा । तव हवोऽपि वृषा ॥३२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! (वृषा, ग्रावा) आपके पर्वतादि सब कामनाओं के वर्षिता हैं (मदः, वृषा) आपका आह्लाद कामवर्षुक है (अयम्, सुतः, सोमः) यह निष्पादित सोम भी वृषा है (यम्, इन्वसि) जिसको आप प्राप्त करते हैं (यज्ञः, वृषा) वह यज्ञ भी वृषा है इससे आपका (वृषा, हवः) आह्वान वृषा=कामनाओं का वर्षिता है ॥३२॥

    भावार्थ

    हे कामप्रद परमेश्वर ! यह आपकी रचनारूप पर्वत, नदियाँ तथा पृथिवी आदि सब कामनाओं की वर्षा करनेवाले अर्थात् हमारी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। यह आपका रचित यज्ञ, जो ब्रह्माण्ड में नियमपूर्वक नित्य हो रहा है, वह वर्षा आदि द्वारा हमारी कामनाओं को पूर्ण करता है। हे हमारे रक्षक प्रभो ! आप हमारी रक्षा करते हुए सब कामनाओं को पूर्ण करें ॥३२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।

    पदार्थ

    ईश्वरसृष्टि में छोटे से छोटा भी पदार्थ बहुगुणप्रद है, यह शिक्षा इससे दी जाती है । यथा−(ग्रावा) निःसार क्षुद्र प्रस्तर भी (वृषा) बहुफलप्रद है (मदः) मदकारी धत्तूर आदि पदार्थ भी वैद्यकशास्त्रानुसार प्रयुक्त होने पर (वृषा) कामप्रद है (अयम्+सुतः+सोमः) हम जीवों से निष्पादित यह सोम गुरूची आदि भी (वृषा) कामवर्षिता है । (यम्+ईन्वसि) जिस यज्ञ में तू जाता है, वह (यज्ञः+वृषा) यज्ञ कामवर्षिता है । (हवः+वृषा) तेरा आवाहन भी वृषा है ॥३२ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! उसी ईश की सङ्गति करो, उसका सङ्ग आनन्दप्रद है ॥३२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    ( ग्रावा वृषा ) मेघवत् उपदेष्टा विद्वान् और प्रस्तरवत् शत्रुनाशक क्षात्रवल बलवान् हो । हे राजन् ! ( मदः वृषा ) तेरा यह 'मद' हर्ष, प्रसन्नता भी (वृषा ) सुखप्रद और दृढ़ हो। ( अयं सुतः ) यह उत्पन्न ( सोमः ) पुत्रवत् राष्ट्र वा अभिषिक्त राजपुरुष भी ( वृषा ) बलवान् हो । ( यज्ञ: ) परस्पर का मेल वा दान-प्रतिदान व्यवहार ( यम् इन्वसि ) जिसको तू करता है, वह भी ( वृषा ) बलवान्, दृढ़, सुखप्रद हो। ( हवः वृषा ) शत्रु के साथ प्रतिस्पर्द्धा और ललकार भी ( वृषा ) सुखप्रद और बलवान्, दृढ़ हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वृषा ग्रावा

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! यह (ग्रावा) = ' अश्माभवतु नस्तनूः' आप से दिया गया पाषाणवत् दृढ़ शरीर वृषा = सुखों का वर्षण करनेवाला हो। (मदः) = आप की आराधना से प्राप्त होनेवाला उल्लास (वृषा) = सुखवर्षक हो । (अयं सुतः सोमः) = यह उत्पन्न हुआ हुआ सोम [वीर्य] (वृषा) = सब अंगों को दृढ़ बनाता हुआ सुखकर हो । [२] हे प्रभो ! (यज्ञः) = वे यज्ञ (वृषा) = सुखकर हों (यं इन्वसि) = जिनकी आप हमारे लिये प्रेरणा देते हैं तथा (हवः) = आपकी पुकार, आपकी आराधना (वृषा) = हमारे पर सुखों का वर्षण करनेवाली हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'यह पाषाणतुल्य दृढ़ शरीर, प्रभु की आराधना से प्राप्त उल्लास, शरीर में उत्पन्न हुआ हुआ सोम तथा प्रभु से प्रेरित यज्ञ व प्रभु की आराधना' ये सब हमारे लिये सुखों के वर्षक हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Abundant and mighty are your clouds of showers, powerful is your excitement and joy, abundant is the beauty and power of this soma you have created in the world of existence, mighty and far reaching is the beauty of the cosmic dynamics you have enacted and energise, and mighty is the order and command of your invitation to life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! त्याच ईशची संगती धरा. त्याची संगती आनंदप्रद आहे. ॥३२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top