ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 6
स्तो॒ता यत्ते॒ विच॑र्षणिरतिप्रश॒र्धय॒द्गिर॑: । व॒या इ॒वानु॑ रोहते जु॒षन्त॒ यत् ॥
स्वर सहित पद पाठस्तो॒ता । यत् । ते॒ । विऽच॑र्षणिः । अ॒ति॒ऽप्र॒श॒र्धय॑त् । गिरः॑ । व॒याःऽइ॑व । अनु॑ । रो॒ह॒ते॒ । जु॒षन्त॑ । यत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तोता यत्ते विचर्षणिरतिप्रशर्धयद्गिर: । वया इवानु रोहते जुषन्त यत् ॥
स्वर रहित पद पाठस्तोता । यत् । ते । विऽचर्षणिः । अतिऽप्रशर्धयत् । गिरः । वयाःऽइव । अनु । रोहते । जुषन्त । यत् ॥ ८.१३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(यत्) यदा (ते) तव (स्तोता) उपासकः (विचर्षणिः) विद्वान् (गिरः) स्तुतीः (अति प्रशर्धयत्) अतिशयेन विस्तृणाति (यत्) यदा च (जुषन्त) अन्येऽपि त्वां सेवन्ते तदा (वया इव) शाखा इव (अनुरोहते) पुत्रपौत्रादिभिर्वर्धते ॥६॥
विषयः
वाणी कीदृशी प्रयोक्तव्येति दर्शयति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! यद्=यदा । ते=तव सम्बन्धी । विचर्षणि=विशेषेण तव गुणानां द्रष्टा । स्तोता=गुणपाठको विद्वान् । गिरः=वाणीः । अतिप्रशर्धयत्=अतिशयेन प्रशर्धयति विघ्नविनाशयित्रीरशुभप्रहर्त्रीः करोति । स्वकीयया वाण्या जगद् वशीकरोतीत्यर्थः । पुनः । यद्=यदा ता गिरः । जुषन्त=जुषन्ते गुरुजनान् प्रीणयन्ति तदा ताः । वया इव=वृक्षस्य शाखा इव । रोहते=रोहन्ते प्ररोहन्ति । छान्दसमेकवचनम् ॥६ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यत्) जब (ते) आपका (स्तोता) स्तुति करनेवाला उपासक (विचर्षणिः) विद्वान् (गिरः) आपकी वाणियों को (अति प्रशर्धयत्) अतिशय इतस्ततः फैलाता है (यत्, जुषन्त) और जब सब लोग आपमें प्रीति करते हैं, तब (अनुरोहते, वया इव) शाखाओं के समान पुत्र-पौत्रादि से सम्पन्न होकर बढ़ता है ॥६॥
भावार्थ
हे प्रभो ! आपकी स्तुति करनेवाले उपासक विद्वान् पुरुष वेदवाणियों द्वारा आपके महत्त्व को इतस्ततः विस्तार करते हैं, तब सब प्रजाजन आप में प्रीति करते अर्थात् आपकी आज्ञापालन करने में प्रवृत्त होते हैं और वह उपासक पुत्रपौत्रादि धनों से सम्पन्न होकर सदा सुख का अनुभव करते हैं, अतएव उचित है कि विद्वान् पुरुष परमात्मा की वाणीरूप वेद का प्रचार करते हुए ऐश्वर्य्यसम्पन्न हों ॥६॥
विषय
कैसी वाणी प्रयोक्तव्य है, यह इससे दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे इन्द्र ! (यत्) जब (ते) तेरा (विचर्षणिः) गुणद्रष्टा गुणग्राहक (स्तोता) स्तुतिपाठक विद्वान् (गिरः) अपने वचनों को (अतिप्रशर्धयत्) अतिशय विघ्नविनाशक बनाता है अर्थात् अपनी वाणी से जगत् को वशीभूत कर लेता है और (यत्) जब वे वाणियाँ (जुषन्त) गुरुजनों को प्रसन्न करती हैं, तब वे (वयाः+इव) वृक्ष की शाखा के समान (अनुरोहते) सदा बढ़ती जाती हैं ॥६ ॥
भावार्थ
वाणी सत्य और प्रिय प्रयोक्तव्य है ॥६ ॥
विषय
परमेश्वर की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।
भावार्थ
हे ऐश्वर्यवन् ! ( विचर्षणिः स्तोता ) विशेष २ गुणों का प्रबल उपासक पुरुष ( गिरः ) वेदवाणियों को ( अति-प्रशर्धयत् ) बहुत अधिक रूप वे ( यत् जुषन्त ) जब प्रेम से सेवन करते हैं ( वयाः इव ) शाखाओं के समान ( अनु रोहते ) तेरे गुणों के अनुरूप हा बढ़ते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
विचर्षणिः
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (यत्) = जब यह साधक (ते स्तोता) = आपका स्तवन करनेवाला होता है, तो यह (विचर्षणिः) = विशेषेण द्रष्टा बनता है, संसार के सब पदार्थों को ठीक रूप में देखता है। अब यह (गिरः) = ज्ञान की वाणियों को (अति प्रशर्धयत्) = अतिशयेन शत्रु प्रसहनशील करता है। अर्थात् सदा ज्ञान की वाणियों के अध्ययन में लगा रहकर काम-क्रोध आदि शत्रुओं से अपने को आक्रान्त नहीं होने देता। [२] (यत्) = जब ये साधक (जुषन्त) = प्रीतिपूर्वक इन वाणियों का सेवन करते हैं तो (वयाः इव) = वृक्ष की शाखाओं की तरह (अनुरोहते) = अनुकूलता से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। जैसे वृक्ष की शाखायें ऊपर और ऊपर फैलती चलती हैं, उसी प्रकार इस स्तोता में उस स्तुत्य प्रभु के गुणों का वर्धन होता चलता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-स्तवन हमारे दृष्टिकोण को ठीक बनाता है, हमारे जीवन में ज्ञान की वाणियाँ काम-क्रोध आदि शत्रुओं का वर्धन करनेवाली होती हैं, हमारे में दिव्यगुणों का उत्तरोत्तर वर्धन होता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
When the celebrant, perceptive, loud and bold, sings his songs with passion, then, as the songs are accepted and cherished, they rise in response to the acceptance and approval like branches of a tree.
मराठी (1)
भावार्थ
जी वाणी सत्य आहे तोच प्रिय प्रयोक्तव्य आहे. ॥६॥
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