ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 20
तदिद्रु॒द्रस्य॑ चेतति य॒ह्वं प्र॒त्नेषु॒ धाम॑सु । मनो॒ यत्रा॒ वि तद्द॒धुर्विचे॑तसः ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । इत् । रु॒द्रस्य॑ । चे॒त॒ति॒ । य॒ह्वम् । प्र॒त्नेषु॑ । धाम॑ऽसु । मनः॑ । यत्र॑ । वि । तत् । द॒धुः । विऽचे॑तसः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदिद्रुद्रस्य चेतति यह्वं प्रत्नेषु धामसु । मनो यत्रा वि तद्दधुर्विचेतसः ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । इत् । रुद्रस्य । चेतति । यह्वम् । प्रत्नेषु । धामऽसु । मनः । यत्र । वि । तत् । दधुः । विऽचेतसः ॥ ८.१३.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(रुद्रस्य) भयंकरस्य परमात्मनः (प्रत्नेषु) पुरातनेषु (धामसु) स्थानेषु (तत्, यह्वम्) सा महिमा (चेतति) जागर्ति (यत्र) यस्मिन् (विचेतसः) विद्वांसः (तद्, मनः) तच्चित्तम् (विदधुः) दधति ॥२०॥
विषयः
महिमानं गायति ।
पदार्थः
तद्+इत्=तदेव । यह्वम्=महत्=परमात्मरूपं महत्तेजः । रुद्रस्य=रुदन् द्रवतीति रुद्रो विद्युदादिः पदार्थः । तं रुद्रम् । द्वितीयार्थे षष्ठी । प्रत्नेषु=चिरन्तनेषु शाश्वतेषु । धामसु=आकाशात्मकेषु स्थानेषु । चेतति=चेतनं करोति=चेतनवत् कार्य्येषु व्यापारयति । यत्र=यस्मिन् इन्द्रे । विचेतसः=विशिष्टज्ञाना विद्वांसः । तच्छान्तम् । मनः=समाधिसिद्ध्यर्थम् । वि=विशेषेण । दधुर्दधति=स्थापयन्ति । तमेवेन्द्रं जनाः पूजयत ॥२० ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(रुद्रस्य) शत्रुओं को रुलानेवाले परमात्मा का (प्रत्नेषु, धामसु) प्राचीन अन्तरिक्षादि स्थानों में (तत्, यह्वम्) वह महिमा (चेतति) जागरूक है (यत्र) जिसमें (विचेतसः) विविध विज्ञानी जन (तद्, मनः) उस प्रसिद्ध अपने मानस ज्ञान को (विदधुः) लगाते हैं ॥२०॥
भावार्थ
हे रुद्ररूप परमात्मन् ! अन्तरिक्षादि लोक-लोकान्तरों में आपकी महिमा चहुँ ओर प्रकाशित हो रही है, जिसको जानने के लिये बड़े-२ कुशलमति अपनी सूक्ष्मबुद्धि से प्रयत्न करते हैं। हे प्रभो ! हमें वह ज्ञान प्रदान कीजिये, जिससे हम आपको यथार्थरूप से जानें और आपके समीपवर्ती होकर सुख अनुभव करें ॥२०॥
विषय
उसकी महिमा गाते हैं ।
पदार्थ
(तद्+इत्) वही (यह्वम्) इन्द्ररूप महान् तेज (रुद्रस्य) विद्युदादि पदार्थों को (प्रत्नेषु) प्राचीन अविनश्वर सदा स्थिर (धामसु) आकाशस्थानों में (चेतति) चेतन बनाता है । अर्थात् चेतनवत् उनको कार्य्यों में व्यापारित करता है । (यत्र) जिस इन्द्रवाच्य ईश में (विचेतसः) विशेष विज्ञानी जन (तत्) उस शान्त (मनः) मनको समाधि सिद्धि के लिये (विदधुः) स्थापित करते हैं, उसी इन्द्र की पूजा सब करें ॥२० ॥
भावार्थ
जो लोकाधिपति परमात्मा विद्युदादि अनन्त पदार्थों को आकाश में स्थापित करके उनका शासन करता और चेताता है, उसी में योगिगण मन लगाते हैं । हे मनुष्यों ! उसी एक को जानो ॥२० ॥
विषय
पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।
भावार्थ
( रुद्रस्य ) सब दुःखों के दूर करने वाले उस प्रभु का ( तत् इत् ) वही ( यह्वं ) महान् बल, सामर्थ्य ( प्रत्नेषु धामसु ) पुरातन सूर्यादि लोकों में ( चेतति ) जाना जाता है ( यत्र ) जिसमें ( वि-चेतसः ) विशेष ज्ञानी जन ( तत् मनः विदधुः ) अपना मन स्थिर करते और ( तत् दधुः ) उसका ज्ञान प्राप्त करते हैं । इति दशमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सर्वदीपक प्रभु
पदार्थ
[१] (प्रत्नेषु धामसु) = इन पुराणे, सनातन (धामसु) = पृथिवी आदि लोकों में (रुद्रस्य) = सब दुःखों के द्रायक प्रभु का (इत्) = ही (तत् यह्वम्) = वह महान् बल (चेतति) = जाना जाता है। ये पृथिवी आदि लोक उसी के बल से बलवाले हो रहे हैं। [२] उस रुद्र की दीप्ति व बल से ये सब पिण्ड दीप्त व दृढ़ हो रहे हैं, (यत्रा) = जिस प्रभु में (विचेतसः) = विशिष्ट ज्ञानवाले पुरुष (तत् मन:) = अपने उस मन को (विदधुः) = विशेषरूप से धारण करते हैं। सब ज्ञानी उस प्रभु का ही ध्यान करते हैं, जिस प्रभु का बल सब पिण्डों को धारण करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सब सूर्य आदि पिण्डों को प्रभु का तेज ही दीप्त कर रहा है। ज्ञानी पुरुष इस प्रभु में ही अपने मन को निरुद्ध करते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
That same omnipotence of Indra as Rudra, lord of natural justice, is ever awake and shines in the ancient regions of the universe wherein the wise and wakeful sages concentrate and stabilise their mind through meditation in thought experiments.
मराठी (1)
भावार्थ
जो लोकाधिपती परमात्मा विद्युत इत्यादी अनन्त पदार्थांना आकाशात स्थापित करतो, त्यांच्यावर शासन चालवितो व चेतवितो त्यातच योगीजन मन लावतात. हे माणसांनो! त्या एकालाच जाणा. ॥२०॥
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