Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    स प्र॑थ॒मे व्यो॑मनि दे॒वानां॒ सद॑ने वृ॒धः । सु॒पा॒रः सु॒श्रव॑स्तम॒: सम॑प्सु॒जित् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । प्र॒थ॒मे । विऽओ॑मनि । दे॒वाना॑म् । सद॑ने । वृ॒धः । सु॒ऽपा॒रः । सु॒श्रवः॑ऽतमः । सम् । अ॒प्सु॒ऽजित् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स प्रथमे व्योमनि देवानां सदने वृधः । सुपारः सुश्रवस्तम: समप्सुजित् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । प्रथमे । विऽओमनि । देवानाम् । सदने । वृधः । सुऽपारः । सुश्रवःऽतमः । सम् । अप्सुऽजित् ॥ ८.१३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ परमात्मद्वारा सूर्यादि विरचनं कथ्यते।

    पदार्थः

    (सः) स परमात्मा (व्योमनि, सदने) व्योम्नि स्थाने (देवानाम्) दिव्यपदार्थानाम् (प्रथमे) आदौ (वृधः) वर्धकः (सुपारः) सर्वेषां पारंगतः (सुश्रवस्तमः) अत्यन्तयशाः (समप्सुजित्) सर्वोपरि व्यापकः ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    तमेव विशिनष्टि ।

    पदार्थः

    सः=इन्द्रः । देवानाम्=सर्वेषां पदार्थानाम् । “वेदेषु सर्वे पदार्था देवा उच्यन्ते” । प्रथमे=उत्कृष्टे । व्योमनि=व्यापके । सदने=भवने स्थितः सन् । वृधः=वर्धयिता भवति । य इन्द्रः । सुपारः=सुष्ठु पारयिता दुःखेभ्यः । पुनः । सुश्रवस्तमः=अतिशयेन शोभनं श्रवोऽन्नं यशो वा यस्य सः सुश्रवस्तमः । पुनः । समप्सुजित्=सम्यग् अप्सु जलेषु अन्तर्हितानपि विघ्नान् जयतीति समप्सुजित् ॥२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा से सूर्य्यादि दिव्य पदार्थों की रचना कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (सः) वह परमात्मा (व्योमनि, सदने) व्योमरूपी स्थान में (देवानाम्) सूर्यादि दिव्य पदार्थों को (प्रथमे) प्रथम (वृधः) रचता है, वह परमात्मा (सुपारः) सब पदार्थों के पारंगत (सुश्रवस्तमः) अत्यन्त यशवाला (समप्सुजित्) और व्याप्ति में सर्वोपरि जेता है ॥२॥

    भावार्थ

    वह सब पदार्थों को नियम में रखनेवाला परमात्मा सूर्य्यादि दिव्य पदार्थों की सबसे प्रथम रचना करता है, क्योंकि प्रकाश के विना न प्राणी जीवनधारण कर सकते और न संसार का कोई कार्य्य विधिवत् हो सक्ता है, इसी भाव को ऋग्० ८।८।४८।३। में इस प्रकार वर्णन किया है किः-सूर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः ॥धाता=सबके धारण-पोषण करनेवाले परमात्मा ने सूर्य्य तथा चन्द्रमा पूर्व की न्याईं बनाये, द्युलोक, पृथिवीलोक, अन्तरिक्षलोक और अन्य प्रकाशमान तथा प्रकाशरहित लोक-लोकान्तरों को भी बनाया=रचा, इसी कारण वह परमात्मा अत्यन्त यशवाला और सर्वोपरि जेता अर्थात् सर्वोत्कृष्ट गुणोंवाला है, जिसकी आज्ञापालन करना मनुष्यमात्र का परम कर्तव्य है ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उसी का वर्णन करते हैं ।

    पदार्थ

    (सः) वह सर्वद्रष्टा ईश्वर (देवानाम्) निखिल पदार्थों के (प्रथमे) उत्कृष्ट और (व्योमनि) व्यापक (सदने) भवन में स्थित होकर (वृधः) प्राणियों के सुखों को बढ़ानेवाला होता है । जो इन्द्र (सुपारः) अच्छे प्रकार दुःखों से पार उतारने वाला है (सुश्रवस्तमः) और अतिशय सुयशस्वी और सुधनाढ्य है और (समप्सुजित्) जलों के अन्तर्हित विघ्नों को भी जीतनेवाला है ॥२ ॥

    भावार्थ

    वह ईश्वर सबके अन्तर्यामी होकर सबको बढ़ाता और पोसता है और वही सर्व विघ्नों का विजेता है, अतः हे मनुष्यों ! वही पूज्य और ध्येय है ॥२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    परमेश्वर की स्तुति । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    ( सः ) वह ( प्रथमे ) सर्वोत्तम ( व्योमनि ) विशेष रक्षा और ज्ञानमय परम अभय ( देवानां ) दिव्य सूर्यादि एवं विद्वानों को ( सदने ) उनके २ स्थान में ( वृधः ) बढ़ाने वाला, ( सुपार: ) सब को सुख से पालन करने, दुःखों से तारने वाला, ( सुश्रवः तमः ) उत्तम यश, ऐश्वर्य और ज्ञान, ख्याति आदि से सम्पन्न और (अप्सु-जित्) समस्त अन्तरिक्ष में सूर्यवत् सर्वोपरि वर्त्तमान और प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं और जीवों पर भी वश करने हारा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सुपारः सुश्रवस्तमः

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे प्रभु (प्रथमे) = इस अत्यन्त विस्तृत (व्योमनि) = आकाश में व (देवानां सदने) = देववृत्ति के पुरुषों के गृहों में स्थित हुए हुए (वृधः) = वर्धन को करनेवाले हैं। प्रभु आकाश की तरह व्यापक हैं, वस्तुतः प्रभु ही आकाश हैं। देववृत्ति के पुरुषों के घरों में प्रभु का निवास है। ये प्रभु ही वस्तुतः उन्हें देव बनाते हैं। [२] प्रभु (सुपार:) = अच्छी प्रकार हमें सब विघ्नों से पार करनेवाले हैं। (सुश्रवस्तमः) = उत्तम ज्ञानवाले हैं, उत्तम ज्ञान को देनेवाले हैं। और सारे (अप्सुजित्) = सम्यक् कर्मों में विजय को प्राप्त करानेवाले हैं। सब कर्म प्रभु के अनुग्रह से ही पूर्ण होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु आकाश में सर्वत्र व्याप्त हैं। देव गृहों में प्रभु का निवास है। ये प्रभु ही सब विघ्नों से पार करनेवाले, उत्तम ज्ञान को देनेवाले व कर्मों में विजय को प्राप्त करानेवाले हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    At the first expansive manifestation of space, at the centre of all divine mutations of nature, he is the efficient cause of nature’s evolution, supreme pilot, most abundant and most glorious, omnipotent victor over conflicts and negativities in the way of evolution of nature and humanity in relation to will and action.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    तो ईश्वर सर्वांचा अन्तर्यामी बनून सर्वांना वाढवितो व पोसतो, तसेच तोच सर्व विघ्नांचा विजेता आहे. त्यासाठी हे माणसांनो! तोच पूज्य व ध्येय आहे. ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top