Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 29
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इ॒मा अ॑स्य॒ प्रतू॑र्तयः प॒दं जु॑षन्त॒ यद्दि॒वि । नाभा॑ य॒ज्ञस्य॒ सं द॑धु॒र्यथा॑ वि॒दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माः । अ॒स्य॒ । प्रऽतू॑र्तयः । प॒दम् । जु॒ष॒न्त॒ । यत् । दि॒वि । नाभा॑ । य॒ज्ञस्य॑ । सम् । द॒धुः॒ । यथा॑ । वि॒दे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा अस्य प्रतूर्तयः पदं जुषन्त यद्दिवि । नाभा यज्ञस्य सं दधुर्यथा विदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाः । अस्य । प्रऽतूर्तयः । पदम् । जुषन्त । यत् । दिवि । नाभा । यज्ञस्य । सम् । दधुः । यथा । विदे ॥ ८.१३.२९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 29
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अस्य) अस्य परमात्मनः (इमाः, प्रतूर्तयः) इमा हिंसनशक्तयः (यत्) यस्मात् (दिवि, पदम्, जुषन्त) द्युलोके स्थानं लभन्ते तत् (यथा, विदे) यथावज्ज्ञानाय (यज्ञस्य, नाभा) यज्ञस्य बन्धनशक्तौ (सन्दधुः) सर्वान् संदधति ॥२९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    पुनस्तमर्थमाह ।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! अस्येन्द्रस्य । इमाः=पूर्वोक्ता गुणग्राहिण्यः आज्ञापालिकाः । प्रतूर्तयः=प्रकर्षेण कामादीनां शत्रूणां हिंसित्र्यः प्रजाः । तद्दिव्यं पदं जुषन्त=जुषन्ते प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । यत्पदं दिवि=सर्वप्रकाशके परमात्मनि वर्तते । पुनस्ता एव । यथाविदे=यथा विज्ञानाय विज्ञानपूर्वकम् । यज्ञस्य= निखिलशुभकर्मणः । नाभा=नाभौ=मध्यस्थाने । संदधुः= सन्निदधते=यज्ञस्य तत्त्वं जानन्तीत्यर्थः ॥२९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अस्य) इस परमात्मा की (इमाः, प्रतूर्तयः) ये हिंसनशक्तियें (यत्) जो (दिवि, पदम्, जुषन्त) द्युलोक में स्थान को प्राप्त किये हुए हैं अतः (यथा, विदे) यथावत् ज्ञान के लिये (यज्ञस्य, नाभा) राज्य ब्रह्माण्ड की बन्धनशक्ति में (सन्दधुः) सबको धारण करती हैं ॥२९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का भाव यह है कि यह परमात्मा की अपूर्व सीमा है कि जिसकी शक्ति से अनेक ब्रह्माण्ड किसी अन्य के आश्रय की अपेक्षा न करते हुए निराधार स्थिर है, जैसे सूर्य्य, चन्द्रमा, नक्षत्र आदि अनेक पदार्थ रचकर उनमें गति प्रवेश करके काल आदि विशेष ज्ञान के लिये धारण कर रहा है, जो उसकी महिमा को भले प्रकार प्रकट करते हैं ॥२९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर भी उसी विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! (अस्य) इस इन्द्रवाच्य परमात्मा के (इमाः) ये पूर्वोक्त गुणग्राहिणी आज्ञापालनी और (प्रतूर्तयः) काम क्रोधादि वासनाओं को विनष्ट करनेवाली प्रजाएँ उस उत्तम (पदम्) पद को (जुषन्त) प्राप्त करती हैं । (यद्) जो पद (दिवि) सर्वप्रकाशक परमात्मा में है । अर्थात् मुक्ति को पाकर वे प्रजाएँ ईश्वर का साक्षात् अनुभव करती हैं (यथा+विदे) और विज्ञान के अनुसार जो (यज्ञस्य) निखिल शुभकर्म के (नाभा) नाभि में=मध्यस्थान में (संदधुः) सन्निकट होती हैं अर्थात् यज्ञ के तत्त्वों को जानती हैं ॥२९ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! उसी के कृपा से उत्तमोत्तम स्थान प्राप्त कर सकते हो, अतः उसी की उपासना करो ॥२९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    ( इमाः ) ये ( अस्य ) इस राजा की ( प्र-तूर्त्तयः ) उत्तम रीति से शत्रु वा दुष्ट पुरुषों का नाश करने वाली सेनाएं और उत्तम एवं शीघ्र कार्य करने में कुशल प्रजाएं ( यत् ) जो ( दिवि ) भूमि में ( पदं ) उत्तम स्थान ( जुषन्त ) प्राप्त करती हैं वे ( यथा विदे ) यथावत् श्रम के अनुसार द्रव्य लाभ करने के लिये ( नाभा ) नाभिवत् राष्ट्र के उत्तम प्रबन्धक पुरुष के अधीन, उसी के आश्रय पर ( यज्ञस्य सं दधुः ) परस्पर दान-प्रतिदान, संगति, मान-सत्कार आदि का अच्छी प्रकार व्यवहार करते हैं । इसी प्रकार ( प्र-तूर्त्तय: ) इस प्रभु की उत्तम प्रजागण जब ( दिवि पदं जुषन्त ) उस प्रकाशस्वरूप प्रभु में स्थिति वा ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं वे ( यथा विदे ) यथावत् ज्ञान और आनन्द के लाभ के लिये ( नाभौ ) नाभि देश में ( यज्ञस्य ) पूज्य प्रभु का ( सं दधुः ) उत्तम रीति से धारण, ध्यानादि करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (इमाः अस्य) = ये इसकी प्रजायें (प्रतूर्तयः) = प्रकर्षेण शत्रुओं की हिंसक होती हैं। (यत्) = क्योंकि (दिवि) = द्युलोक में, प्रकाशमय लोक में (पदं जुषन्त) = पद को प्रीतिपूर्वक रखती हैं। अर्थात् प्रभु के उपासक लोग ज्ञान-प्रधान जीवन बिताते हैं और काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का संहार करनेवाले होते हैं। [२] (यथा विदे) = यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये (यज्ञस्य) = उस पूजनीय प्रभु की (नाभा) = [नह बन्धने] बन्धुता में (सन्दधुः) = अपने को स्थापित करते हैं। प्रभु के सम्पर्क में ही सत्यज्ञान का प्रकाश हृदयों में हुआ करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के उपासक ज्ञानप्रधान जीवन बिताते हुए काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करते हैं। ये प्रभु की बन्धुता में निवास करते हुए सत्य ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All these dynamic communities dedicated to this lord of glory know the highest rung of the existential ladder to attain that state of joy which is in the light of divinity, they join together here on earth on the holy seat of universal yajna and eliminate negativities so that they may attain the state of enlightenment and eternal joy-

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! त्याच्याच (परमात्म्याच्या) कृपेने उत्तमोत्तम स्थान प्राप्त करू शकता. त्यासाठी त्याचीच उपासना करा. ॥२९॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top