ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 30
ऋषिः - नारदः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराडार्ष्युष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
अ॒यं दी॒र्घाय॒ चक्ष॑से॒ प्राचि॑ प्रय॒त्य॑ध्व॒रे । मिमी॑ते य॒ज्ञमा॑नु॒षग्वि॒चक्ष्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । दी॒र्घाय॑ । चक्ष॑से । प्राचि॑ । प्र॒ऽय॒ति । अ॒ध्व॒रे । मिमी॑ते । य॒ज्ञम् । आ॒नु॒षक् । वि॒ऽचक्ष्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं दीर्घाय चक्षसे प्राचि प्रयत्यध्वरे । मिमीते यज्ञमानुषग्विचक्ष्य ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । दीर्घाय । चक्षसे । प्राचि । प्रऽयति । अध्वरे । मिमीते । यज्ञम् । आनुषक् । विऽचक्ष्य ॥ ८.१३.३०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 30
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अयम्) अयं परमात्मा (दीर्घाय, चक्षसे) दीर्घाय कर्मफलाय (प्राचि, अध्वरे, प्रयति) अनादिब्रह्माण्डयज्ञे प्रवृत्ते (विचक्ष्य) कर्माणि दृष्ट्वा (आनुषक्) आनुपूर्व्येण (यज्ञम्, मिमीते) सृष्टिं निर्माति ॥३०॥
विषयः
ईश्वरस्तुतिं करोति ।
पदार्थः
प्राचि=प्रकर्षेण पूजिते । अध्वरे=हिंसारहिते यज्ञे । प्रयति=प्रवर्तमाने सति । दीर्घाय चक्षसे=दीर्घदर्शनाय । अयमिन्द्रः स्वयमेव । आनुषगनुषक्तयानुपूर्व्येण । विचक्ष्य=दृष्ट्वा । यज्ञं मिमीते=यज्ञनियमान् विदधाति ॥३० ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अयम्) यह परमात्मा (दीर्घाय, चक्षसे) दीर्घ कर्मफल के लिये (प्राचि, अध्वरे, प्रयति) अनादि ब्राह्मण्डरूप यज्ञ प्रवृत्त होने पर (विचक्ष्य) कर्म को देखकर (आनुषक्) प्रवाहरूप से (यज्ञम्, मिमीते) सृष्टि का निर्माण करता है ॥३०॥
भावार्थ
वह अनादि परमात्मा जब सृष्टि का निर्माण करता है, तब प्रवाहरूप से अनादि कर्मों के अनुसार ही सृष्टि रचता है अर्थात् वेदविहित शुभकर्मोंवाले ऐश्वर्य्यसम्पन्न तथा सब कामनाओं से पूर्ण हुए सुख अनुभव करते हैं, इसी अवस्था का नाम “स्वर्ग” है और वेदविरुद्ध अशुभकर्म करनेवाले दरिद्र, आलसी, निरुद्यमी तथा प्रत्येक पदार्थ की इच्छावाले होते हैं, जिसका नाम “नरकपात” है। अतएव सब पुरुषों का कर्तव्य है कि वह सदा शुभकर्मों में प्रवृत्त रहें, ताकि परमात्मा के नियमानुसार स्वर्ग=सुखविशेष के भोगनेवाले हों ॥३०॥
विषय
इससे ईश्वर की स्तुति करते हैं ।
पदार्थ
यज्ञ का भी कर्त्ता और विधाता वही ईश्वर है, यह इससे दिखलाते हैं । (प्राचि) अति प्रशंसनीय (अध्वरे) हिंसारहित यज्ञ को (प्रयति) प्रवृत्त होने पर (दीर्घाय+चक्षसे) बहुत प्रकाश की प्राप्ति के लिये (अयम्) यह परमात्मा स्वयं ही (विचक्ष्य) देख भालकर (आनुषक्) क्रमपूर्वक (यज्ञम्) यज्ञ को (मिमीते) पूर्ण करता है । अर्थात् उस ईश्वर की कृपा से ही भक्तों का यज्ञ विधिपूर्वक समाप्त होता है ॥३० ॥
भावार्थ
निखिल यज्ञों का विधायक भी वही है, अतः यज्ञों में वही पूज्यतम है ॥३० ॥
विषय
पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।
भावार्थ
( अयम् ) यह विद्वान् (प्राचि) उत्तम रीति से पूज्य ( अध्वरे ) हिंसादि से रहित एवं अविनाशी ( प्रयति ) उत्तम यत्न से करने योग्य यज्ञमय प्रभु के आश्रय ही ( दीर्घाय ) बड़े भारी विस्तृत (चक्षसे) दर्शन या तत्वज्ञान के लाभ के लिये ( वि-चक्ष्य ) विशेष रूप से देख कर ( आनुषक् ) निरन्तर ( यज्ञम् मिमीते ) यज्ञ वा देवपूजा का सम्पादन करता है। इति द्वादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञ का महत्त्व
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह उपासक (प्राचि) = [प्र-अञ्च्] प्रकृष्ट गति, उन्नति के साधनभूत (अध्वरे) = हिंसारहित कर्मों के (प्रयति) = प्रकर्षेण चलने पर (दीर्घाय चक्षसे) = दीर्घ ज्ञान के लिये होता है। अर्थात् यज्ञों को करता हुआ दीर्घ दृष्टिवाला बनता है। [२] यह (विचक्ष्य) = विशेषरूप से देखकर अर्थात् विचार करके (आनुषक्) = निरन्तर (यज्ञं मिमीते) = यज्ञ को करनेवाला होता है। वह यह समझ लेता है कि यह यज्ञ ही इष्टकामधुक् है तथा यज्ञ से ही यह लोक व परलोक कल्याणमय बनता है।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञों को करते हुए हम दीर्घ दृष्टिवाले बनें। यज्ञों के महत्त्व को समझकर हम निरन्तर यज्ञशील बनें।
इंग्लिश (1)
Meaning
This power of universal vision and potential in advance of the cosmic yajna of creative evolution instantly and simultaneously measures and projects the cosmic plan so that it can be watched and assessed on a long term basis from the beginning to the end.
मराठी (1)
भावार्थ
अखिल यज्ञांचा विधायकही तोच आहे. त्यासाठी यात तोच पूज्यतम आहे. ॥३०॥
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