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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 24
    ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    तमी॑महे पुरुष्टु॒तं य॒ह्वं प्र॒त्नाभि॑रू॒तिभि॑: । नि ब॒र्हिषि॑ प्रि॒ये स॑द॒दध॑ द्वि॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ई॒म॒हे॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒तम् । य॒ह्वम् । प्र॒त्नाभिः॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । नि । ब॒र्हिषि॑ । प्रि॒ये । स॒द॒त् । अध॑ । द्वि॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमीमहे पुरुष्टुतं यह्वं प्रत्नाभिरूतिभि: । नि बर्हिषि प्रिये सददध द्विता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । ईमहे । पुरुऽस्तुतम् । यह्वम् । प्रत्नाभिः । ऊतिऽभिः । नि । बर्हिषि । प्रिये । सदत् । अध । द्विता ॥ ८.१३.२४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 24
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ बुद्धिवृद्ध्यै परमात्मा याच्यते।

    पदार्थः

    (पुरुष्टुतम्) बहुभिः स्तुतम् (यह्वम्, तम्) महान्तं तम् (प्रत्नाभिः, ऊतिभिः) पुरातनीभिः वेदवाग्भिः (ईमहे) प्रार्थयामहे (प्रिये, बर्हिषि) प्रेमाश्रये हृद्रूपे आसने (निषदत्) निषीदतु (अध, द्विता) अथ सदसद्विवेचनीं बुद्धिं च वर्द्धयतु ॥२४॥

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    विषयः

    प्रार्थनां दर्शयति ।

    पदार्थः

    पुरुस्तुतम्=पुरुभिर्बहुभिर्विद्वद्भिः । स्तुतम्=गीतयशसम्=यह्वम्= महान्तम् । तमीश्वरमिन्द्रवाच्यम् । प्रत्नाभिः=प्राचीनाभिः शाश्वतीभिः । ऊतिभी रक्षाभिर्हेतुभिः । ईमहे=याचामहे । प्रिये=रमणीये । बर्हिषि=स्थावरे जङ्गमे च संसारे निसदत् । यो द्विता=अनुग्रहनिग्रहकर्त्ताऽस्ति । तमीमह इत्यन्वयः ॥२४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब बुद्धिवृद्धि के लिये परमात्मा से याचना करते हैं।

    पदार्थ

    (पुरुष्टुतम्) अनेक विद्वानों से स्तुत (यह्वम्, तम्) उस महान् परमात्मा की (प्रत्नाभिः, ऊतिभिः) प्राचीन वेदवाणियों से (ईमहे) प्रार्थना करते हैं कि (प्रिये, बर्हिषि) वह प्रिय हृदयरूप आसन में (निषदत्) आसीन होकर (अध, द्विता) सदसद्विवेक करनेवाली बुद्धि दे ॥२४॥

    भावार्थ

    विद्वानों द्वारा सदा स्तुत परमात्मन् ! हम लोग वेदवाणियों द्वारा सदैव आपकी स्तुति तथा प्रार्थना करते हैं। कृपा करके हमारे हृदय में विराजमान होकर हमें सदसद्विवेचन करनेवाली बुद्धि दीजिये, जिससे हम संसार के पदार्थों को यथावस्थित जानकर उनसे उपयोग लें और उसी सूक्ष्म बुद्धि से आपके समीपवर्ती होकर सुख अनुभव करें ॥२४॥

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    विषय

    प्रार्थना दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (तम्+ईमहे) उस परमात्मा से हम लोग याचना और प्रार्थना करते हैं (पुरुस्तुतम्) जिसकी सब स्तुति करते हैं और (यह्वम्) जो महान् है (प्रत्नाभिः+ऊतिभिः) शाश्वत=चिरस्थायी सहायता के लिये जो (प्रिये+बर्हिषि) प्रियसंसाररूप आसन पर (निसदत्) बैठा हुआ है और जो (द्विता) अनुग्रह और निग्रह दोनों कार्य करनेवाला है, उसको हम याचते=माँगते हैं ॥२४ ॥

    भावार्थ

    परमात्मा ही प्रार्थनीय और याचनीय है । वही सर्वत्र व्यापक होने से हमारी स्तुति सुनता और अभीष्ट को जानता है ॥२४ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।

    भावार्थ

    हम लोग ( तम् ) उस ( पुरु-स्तुतम् ) बहुतों से स्तुति करने योग्य ( यहं ) महान् ( तम् ) उस प्रभु परमेश्वर को ( प्रत्नाभिः ) सनातन से विद्यमान ( ऊतिभिः ) ज्ञान वाणियों से ( ईमहे ) प्रार्थना करते हैं, ( अध ) और उसका ज्ञान करते हैं। वह ( प्रिये ) अतिप्रिय ( बर्हिषि ) वृद्धिशील संसार में प्रिय राष्ट्र में राजा के समान तू ( द्विता ) दोनों ही प्रकार से ( नि सदत् ) विराजता है प्रभु के दो रूप सज्जनों का पालक और दुष्टों को दण्डदाता ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अथ द्विता

    पदार्थ

    [१] (तम्) = उस (पुरुष्टुतम्) = बहुतों से स्तुति किये गये (यह्वम्) = महान् प्रभु को (प्रत्नाभिः) = सनातन, सदा से चले आ रहे (ऊतिभिः) = रक्षणों के हेतु से (ईमहे) = याचना करते हैं। प्रभु सदा से जीवों का रक्षण करते ही हैं। प्रभु से इसी रक्षण की हम याचना करते हैं। [२] वे प्रभु (प्रिये) = तृप्त व कान्त (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय में (निसदत्) = विराजमान हों। और (अध) = अब (द्वितः) = हमारी शक्ति व ज्ञान का विस्तार होता है। ['द्वौ तनोति'] प्रभु की हृदय में उपस्थिति हमें मार्ग भ्रष्ट नहीं होने देती । परिणामतः मार्ग पर चलते हुए हम ज्ञान व शक्ति का विस्तार करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारा रक्षण करते हैं। प्रभु के हृदय में आसीन होने पर हमारा मस्तिष्क ज्ञान परिपूर्ण होता है, तो शरीर शक्ति सम्पन्न बन जाता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We worship that universally adored, omnipotent lord with his universal modes of protection and progress who is both just and merciful, promoter and restrainer and who pervades the beautiful world of cosmic existence and watches over the cosmic yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्माच प्रार्थनीय व याचनीय आहे. तोच सर्वत्र व्यापक असल्यामुळे आमची स्तुती ऐकतो व अभीष्ट जाणतो ॥२४॥

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