ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 13/ मन्त्र 28
अ॒भि स्व॑रन्तु॒ ये तव॑ रु॒द्रास॑: सक्षत॒ श्रिय॑म् । उ॒तो म॒रुत्व॑ती॒र्विशो॑ अ॒भि प्रय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । स्व॒र॒न्तु॒ । ये । तव॑ । रु॒द्रासः॑ । स॒क्ष॒त॒ । श्रिय॑म् । उ॒तो इति॑ । म॒रुत्व॑तीः । विशः॑ । अ॒भि । प्रयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि स्वरन्तु ये तव रुद्रास: सक्षत श्रियम् । उतो मरुत्वतीर्विशो अभि प्रय: ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । स्वरन्तु । ये । तव । रुद्रासः । सक्षत । श्रियम् । उतो इति । मरुत्वतीः । विशः । अभि । प्रयः ॥ ८.१३.२८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 13; मन्त्र » 28
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ क्षात्रधर्मरक्षणाय परमात्मा प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (ये, तव, रुद्रासः) ये तव बलप्राप्ताः योद्धारः ते (अभिस्वरन्तु) अभ्यागच्छन्तु (श्रियम्) सम्पत्तिम् (सक्षत) लभन्ताम् (उतो) अथ (मरुत्वतीः, विशः) सैनिकयुक्तप्रजाः (प्रयः) भोग्यपदार्थान् (अभि) अभ्यागच्छन्तु ॥२८॥
विषयः
ईश्वरप्रार्थनां करोति ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! तव । ये रुद्राः=समस्तदुःखविनाशका भक्ताः सन्ति । “रुद् दुःखं द्रावयन्तीति रुद्राः, परेषां क्लेशान् दृष्ट्वा ये स्वयं रुदन्ति वा ते रुद्राः, परदुःखं श्रुत्वा रुदन्तो ये द्रवन्ति गच्छन्ति तत्र-२ दुःखनिवारणाय ते रुद्राः” । ते । अस्माकं यज्ञम् । अभिस्वरन्तु=आगच्छन्तु । श्रियम्=शोभाम् । सक्षत=सञ्जन्तु= प्राप्नुवन्तु । उत=अपि च । मरुत्वतीर्विशः=वैश्याः । गणशो गणशो ये संगत्य कार्य्यं साधयन्ति ते मरुतः । तत्सम्बन्धिन्यो मरुत्वत्यो विशो व्यापारे नियुक्ताः प्रजा अपि । प्रयोऽन्नम् । नीत्वा । अभिस्वरन्तु ॥२८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब क्षात्रधर्म की रक्षार्थ परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (ये, तव, रुद्रासः) जो आपके बलप्राप्त योद्धा लोग हैं, वे (अभिस्वरन्तु) अभिव्याप्त हों (श्रियम्) सम्पत्ति को (सक्षत) लब्ध करें (उतो) और (मरुत्वतीः, विशः) सैनिकयुक्त प्रजाएँ (प्रयः) भोग्य पदार्थों को (अभि) भले प्रकार प्राप्त करें ॥२८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में क्षात्रबल के लिये परमात्मा से प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो ! आप क्षात्रबल को उन्नत करें, जिससे सब धर्म सुरक्षित रहें। हे परमात्मन् ! योद्धा लोग सर्वत्र व्याप्त हों, ताकि सब ओर से हमारी रक्षा रहे, आप योद्धा लोगों को सम्पत्तिशाली करें, ताकि वह उत्साहपूर्वक दुष्टों के दलन करने में वीरता दिखाएँ और अन्य सैनिकजनों के लिये भी सदैव अन्नादि भोग्य पदार्थ देकर उन्हें सन्तुष्ट करें, ताकि उनमें क्षात्रबल पूर्ण होने से सब प्रजा सुरक्षित रहे ॥२८॥
विषय
इससे ईश्वर की प्रार्थना करते हैं ।
पदार्थ
हे इन्द्र ! (तव) तेरे (ये) जो (रुद्राः) भक्तगण हैं, वे (अभिस्वरन्तु) हमारे यज्ञ में आवें और आकर (श्रियम्) यज्ञ की शोभा को (सक्षत) बढ़ावें (उत) और (मरुत्वतीः) कई आदमी मिलकर कार्य करनेवाली सार्थसम्बन्धी (विशः) प्रजाएँ अर्थात् व्यापार करनेवाली जातियाँ भी (प्रयः) विविध अन्न को लेकर हमारे यज्ञ में (अभिस्वरन्तु) आवें ॥२८ ॥
भावार्थ
हे ईश तेरी कृपा से संसार की शोभा बढ़े और अन्नों से लोग पुष्ट रहें ॥२८ ॥
विषय
पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का निदर्शन ।
भावार्थ
हे राजन् ! हे प्रभो ! ( ये ) जो ( रुद्रासः ) अन्यों का दुःख दूर करनेवाले, अन्यों को दुःखी देख कर करुणा से स्वयं रोने या आंसू बहाने वाले वा उत्तम उपदेष्टा एवं दुष्टों को रुलाने वाले पुरुष (तव अभि) जो तेरे गुणों का साक्षात् कर (स्वरन्तु) स्तुति करते और औरों को उसका उपदेश करते हैं वे (श्रियं सक्षत) लक्ष्मी, शोभा आदि को प्राप्त करते हैं । (उतो) और ( मरुत्वतीः विशः ) वे प्राणों से या 'मरुत्' विद्वानों, वीरों और वैश्य जनों से युक्त प्रजाओं को भी ( प्रयः अभि ) अन्न आदि प्राप्तियोग्य तृप्ति-सुखकारक पदार्थ प्राप्त करावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नारदः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ८, ११, १४, १९, २१, २२, २६, २७, ३१ निचृदुष्णिक्। २—४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५—१८, २०, २३—२५, २८, २९, ३२, ३३ उष्णिक्। ३० आर्षी विराडुष्णिक्॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'नीरोग - श्री सम्पन्न' जीवन
पदार्थ
[१] (ये) = जो भी व्यक्ति (तव अभि स्वरन्तु) [ त्वाम् अभि० ] = आपकी ओर आनेवाले होते हैं, वे (रुद्रासः) = रोगों को दूर भगानेवाले होते हैं तथा (श्रियम्) = शोभा का सक्षत सेवन करते हैं। इनका जीवन बड़ी शोभावाला होता है। [२] (उत उ) = और निश्चय से (महत्वतीः) = प्रशस्त प्राणोंवाली, प्राणसाधना में प्रवृत्त होनेवाली (विशः) = प्रजायें (प्रयः अभि) = सात्त्विक अन्नों की ओर ही गतिवाली होती हैं। प्राणायाम के साथ युक्ताहार-विहार तो आवश्यक ही है। शोभावाला तथा प्राणसाधना को करता हुआ सात्त्विक
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का उपासक नीरोग, अन्नों का सेवन करता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
And let your enlightened celebrants dedicated to the wealth of beauty, grace and culture with love and justice, and all the vibrant communities engaged in creative production come and join this delightful yajnic endeavour for the common good in a state of prosperity and progressive stability.
मराठी (1)
भावार्थ
हे ईश! तुझ्या कृपेने जगाची शोभा वाढावी व अन्नाने लोक पुष्ट व्हावेत. ॥२८॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal