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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 18
    ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - गृहपतिर्देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    2

    ह॒वि॒र्धानं॒ यद॒श्विनाग्नी॑ध्रं॒ यत्सर॑स्वती। इन्द्रा॑यै॒न्द्रꣳसद॑स्कृ॒तं प॑त्नी॒शालं॒ गार्ह॑पत्यः॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒वि॒र्धान॒मिति॑ हविः॒ऽधान॑म्। यत्। अ॒श्विना॑। आग्नी॑ध्रम्। यत्। सर॑स्वती। इन्द्रा॑य। ऐ॒न्द्रम्। सदः॑। कृ॒तम्। प॒त्नी॒शाल॒मिति॑ पत्नी॒ऽशाल॑म्। गार्ह॑पत्य॒ इति॒ गार्ह॑ऽपत्यः ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हविर्धानँयदश्विनाग्नीध्रँयत्सरस्वती । इन्द्रायैन्द्रँ सदस्कृतम्पत्नीशालङ्गार्हपत्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हविर्धानमिति हविःऽधानम्। यत्। अश्विना। आग्नीध्रम्। यत्। सरस्वती। इन्द्राय। ऐन्द्रम्। सदः। कृतम्। पत्नीशालमिति पत्नीऽशालम्। गार्हपत्य इति गार्हऽपत्यः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 18
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    स्त्रीपुरुषाभ्यां किं कार्य्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे गृहस्था स्त्रीपुरुषाः! यथा विद्वांसावश्विना यद्धविर्धानं कृतवन्तौ, यच्च सरस्वती आग्नीध्रं कृतवती, इन्द्रायैन्द्रं सदः पत्नीशालं च विद्वद्भिः कृतम्, तदिदं सर्वं गार्हपत्यो धर्म एवास्ति, तथा तत् सर्वं यूयमपि कुरुत॥१८॥

    पदार्थः

    (हविर्धानम्) हवींषि ग्राह्याणि देयानि वा संस्कृतानि वस्तूनि धीयन्ते यस्मिन् (यत्) (अश्विना) स्त्रीपुरुषौ (आग्नीध्रम्) अग्नीध ऋत्विजः शरणम् (यत्) (सरस्वती) विदुषी स्त्री (इन्द्राय) ऐश्वर्यसुखप्रदाय पत्ये (ऐन्द्रम्) इन्द्रस्यैश्वर्यस्येदम् (सदः) सीदन्ति यस्मिँस्तम् (कृतम्) निष्पन्नम् (पत्नीशालम्) पत्न्याः शाला पत्नीशालम् (गार्हपत्यः) गृहपतिना संयुक्तः॥१८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! यथर्त्विजः सम्भारान् सञ्चित्य यज्ञमलङ्कुर्वन्ति, तथा प्रीतियुक्तौ स्त्रीपुरुषौ गृहकृत्यानि सततं साध्नुतम्॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    स्त्री-पुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे गृहस्थ पुरुषो! जैसे विद्वान् (अश्विना) स्त्री और पुरुष (यत्) जो (हविर्धानम्) देने वा लेने योग्य पदार्थों का धारण जिसमें किया जाता वह और (यत्) जो (सरस्वती) विदुषी स्त्री (आग्नीध्रम्) ऋत्विज का शरण करती हुई तथा विद्वानों ने (इन्द्राय) ऐश्वर्य से सुख देनेहारे पति के लिये (ऐन्द्रम्) ऐश्वर्य के सम्बन्धी (सदः) जिसमें स्थित होते हैं, उस सभा और (पत्नीशालम्) पत्नी की शाला घर को (कृतम्) किया है, सो यह सब (गार्हपत्यः) गृहस्थ का संयोगी धर्म ही है, वैसे उस सब कर्त्तव्य को तुम भी करो॥१८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे ऋत्विज् लोग सामग्री का सञ्चय करके यज्ञ को शोभित करते हैं, वैसे प्रीतियुक्त स्त्री-पुरुष घर के कार्यों को नित्य सिद्ध किया करें॥१८॥

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    विषय

    राजा का बल-सम्पादन । राष्ट्रयज्ञ का विस्तार ।

    भावार्थ

    १८. राष्ट्र के (अश्विनौ) स्त्री-पुरुषगण ( हविर्धानम् ) अन्नों के रखने वाले यज्ञ में ग्राह्य हविष्य-पदार्थों के रखने वाले शकट के समान हैं । १९. ( यत् सरस्वती ) जो सरस्वती, विज्ञान का उपदेश करने का कार्य है वह यज्ञ में ( आग्नीधम् ) 'अग्नीध' नामक अग्नि की देख-रेख करनेवाले ऋत्विक् के पद के समान है । २०. ( इन्द्राय ) इन्द्र अर्थात् ऐश्वर्यवान् राजा के लिये ( ऐन्द्रम् ) इन्द्रोचित ऐश्वर्यं ( कृतम् ) किया जाता है वह यज्ञ में ( ऐन्द्रं सदः ) ऐन्द्र सद्स् - राजा की राजसभा के समान है । २१. इसी प्रकार - ( ऐन्द्रं पत्नीशालम् ) पालन करने वाली राजा की राजसभा का भवन यज्ञ में पत्नीशाला के समान है 1 २२. (ऐन्द्रं गार्हपत्यः ) राजा का राज्य में गृहपति के समान रहना ही यज्ञ में 'गार्हपत्य' अग्नि स्थापन के समान है । इस प्रकार महान् राज्यैश्वर्य पद भी एक धार्मिक गृहस्थ के तुल्य है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृहपतिः । निचृद् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    विषय

    घर में चार आवश्यक कार्य

    पदार्थ

    १. (यत्) = यदि (अश्विना) = प्राणापान अपेक्षित हैं तो आवश्यक है कि हम 'हविर्धानं' अग्निकुण्ड में हवि का आह्वान करें, अर्थात् घर में नियम से अग्निहोत्र करें। इससे वायुशुद्धि, रोग- अभिसंहार होकर प्राणापान शक्ति में वृद्धि होगी। २. (यत्) = यदि हम (सरस्वती) = ज्ञान की अधिदेवता की आराधना करना चाहते हैं, अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, तो (आग्नीध्रम्) = अग्नीध्र की शरण में जाएँ। यह 'अग्नीध्र' आचार्य है। यह विद्यार्थी में ज्ञानाग्नि का आधान करता है। वेद में अन्यत्र यही भावना 'अग्निनाऽग्निः समिध्यते' इन शब्दों में कही गई है । ३. (इन्द्राय) = इन्द्र बनने के लिए, अर्थात् आत्मशक्ति के विकास के लिए (ऐन्द्रं सदः कृतम्) = परमेश्वर की उपासना का गृह बनाया गया है। घर में एकान्त शान्त स्थान का निर्माण हुआ है। यहाँ बैठकर यह 'हैमवर्चि: ' प्रभु का उपासन करता है और अपने अन्दर उस प्रभु की शक्ति को प्रवाहित करने का प्रयत्न करता है। प्रभु की शक्ति से सम्पन्न होकर ही यह 'इन्द्र' बन पाता है। ४. एवं घर में एक 'हविर्धान' अग्निहोत्र करने का स्थान है, यह हमारी प्राणापान की शक्ति के वर्धन का कारण बनता है। (अग्नीध्र) = आचार्य के समीप बैठने का स्थान है, यह हमारी ज्ञानवृद्धि का कारण होता है । (ऐन्द्रम्) = प्रभु के उपासन का स्थान है, यह हमारी आत्मिक शक्ति की वृद्धि करनेवाला होता है। इन सबके अतिरिक्त (पत्नीशालम्) = एक पत्नी की शाला है। यह (गार्हपत्यः) = गार्हपत्य है, जहाँ घर के सब लोगों के रक्षण के लिए अन्नपाचन आदि कार्य सिद्ध होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा घर हविर्धान हो, अग्नीध्र, ऐन्द्रसदस् तथा पत्नीशाल हो। उसमें अग्निहोत्र, आचार्यों से ज्ञानोपार्जन, प्रभु का उपासन तथा गृह सम्बन्धी कार्य उत्तमता से चलते रहें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे ऋत्विज लोक सामग्रीचा संचय करून उत्तम यज्ञ करतात तसे प्रेमळ स्री-पुरुषांनी घरातील कार्य चांगल्याप्रकारे करावे.

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    विषय

    स्त्री-पुरूषांनी (पति-पत्नीनी) काय केले पाहिजे (त्यांची कर्तव्ये काय?) या विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे गृहस्थजनहो, (अश्विना) एक विद्वान ज्ञानी पति-पत्नी (यत्‌) जो (हविर्धानम्‌) देण्या-घेण्यास योग्य अशा पदार्थांचा संग्रह करतात, तसेच (सरस्वती) एक विदुषी अनुभवी गृहस्थ-स्त्री (यत्‌) जी (आग्नीध्रम्‌) ऋत्विजाकडे जाऊन (ज्ञान आणि ऐश्वर्याची कामना करते) तसेच विद्वानजन ज्याप्रमाणे (इन्द्राय) ऐश्वर्याद्वारे इतरांना सुख देणाऱ्या गृहस्थ-पतीकडे (ऐन्द्रम्‌) ऐश्वर्यप्राप्तीसाठी जातात, (सदः) आणि विद्वत्सभेमधे बसतात व (पत्नीशालम्‌) पती आपल्या पत्नीच्या घराला (कृतम्‌) आपले निवास स्थान करतात, ही सर्व कार्यें (गार्हपत्यः) गृहस्थांच्या कर्तव्य-धर्माला धरूनच आहेत. तुम्ही सर्वजणदेखील त्या कर्तव्यांचे पालन करीत जा ॥18॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे ऋत्विज गण यज्ञासाठी आवश्यक सामग्रीचा संचय करून यज्ञ करतात, त्याप्रमाणे गृहस्थ स्त्री-पुरूषांनी देखील आवश्यक ते गृहस्थ-कर्तव्य अवश्य केले पाहिजेत ॥18॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O householders, just as a learned man and woman collect materials for the yajna; a learned lady takes shelter with the priest, and the learned construct a house for the majestic husband to dwell in and impart happiness ; this all is a householders duty ; which ye also should perform.

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    Meaning

    The Ashvinis, husband and wife, prepare the yajna chamber and collect the holy materials. Sarasvati the learned house-wife, is the lady of yajna and the host for the priests and the guests. The house is the seat of yajnic prosperity for the master of the house. And the home is the lady’s forte. This is the house-hold, a socio¬ economic yajna in operation.

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    Translation

    The twin-healers are, as if, the store of sacrificial supplies; the Doctress is, as if, the sacrificial fireplace. For the resplendent one is the sacrificial seat; for the householder's fire is a wife's mansion. (1)

    Notes

    Havirdhanam, the store, where sacrificial supplies are kept. Āgnidhram, the place where sacrifical fire is kindled; sac rificial fire-place. Sadaḥ, seat. Garhapatyaḥ, householder's fire. Patnīšālam, wife's mansion.

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    बंगाली (1)

    विषय

    স্ত্রীপুরুষাভ্যাং কিং কার্য়্যমিত্যাহ ॥
    স্ত্রী-পুরুষদিগকে কী করা উচিত এই বিষয়েপরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ– হে গৃহস্থ পুরুষগণ! যেমন বিদ্বান্ (অশ্বিনা) স্ত্রী ও পুরুষ (য়ৎ) যাহা (হবির্ধানম্) দিবার বা লইবার যোগ্য পদার্থগুলির ধারণ, যন্মধ্যে করা হয় এবং (য়ৎ) যাহা (সরস্বতী) বিদুষী স্ত্রী (আগ্নীধ্রম্) ঋত্বিজের শরণ করিয়া তথা বিদ্বান্গণ (ইন্দ্রায়) ঐশ্বর্য্য দ্বারা সুখদায়ক পতির জন্য (ঐন্দ্রম্) ঐশ্বর্য্য সম্পর্কীয় (সদঃ) যাহাতে স্থিত হয় সেই সভা এবং (পত্নীশালম্) পত্নীর শালা=গৃহকে (কৃতম্) করিয়াছে সুতরাং এই সমস্ত (গার্হপত্যঃ) গৃহস্থের সংযোগী ধর্মই, সেইরূপ সেই সব কর্ত্তব্য তোমরাও কর ॥ ১৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ– এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ! যেমন ঋত্বিজ্গণ সামগ্রীর সঞ্চয় করিয়া যজ্ঞকে শোভিত করে তদ্রূপ প্রীতিযুক্ত স্ত্রীপুরুষ গৃহের কার্য্যকে নিত্য সিদ্ধ করিতে থাকিবে ॥ ১৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হ॒বি॒র্ধানং॒ য়দ॒শ্বিনাগ্নী॑ধ্রং॒ য়ৎসর॑স্বতী ।
    ইন্দ্রা॑য়ৈ॒ন্দ্রꣳসদ॑স্কৃ॒তং প॑ত্নী॒শালং॒ গার্হ॑পত্যঃ ॥ ১৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হবির্ধানমিত্যস্য হৈমবর্চির্ঋষিঃ । গৃহপতির্দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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