यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 9
तेजो॑ऽसि॒ तेजो॒ मयि॑ धेहि वी॒र्यमसि वी॒र्यं मयि॑ धेहि॒ बल॑मसि॒ बलं॒ मयि॑ धे॒ह्योजो॒ऽस्योजो॒ मयि॑ धेहि म॒न्युर॑सि म॒न्युं मयि॑ धेहि॒ सहो॑ऽसि॒ सहो॒ मयि॑ धेहि॥९॥
स्वर सहित पद पाठतेजः॑। अ॒सि॒। तेजः॑। मयि॑। धे॒हि॒। वी॒र्य᳖म्। अ॒सि॒। वी॒र्य᳖म्। मयि॑। धे॒हि॒। बल॑म्। अ॒सि॒। बल॑म्। मयि॑। धे॒हि॒। ओजः॑। अ॒सि॒। ओजः॑। मयि॑। धे॒हि॒। म॒न्युः। अ॒सि॒। म॒न्युम्। मयि॑। धे॒हि॒। सहः॑। अ॒सि॒। सहः॑। मयि॑। धे॒हि॒ ॥९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तेजोसि तेजो मयि धेहि । वीर्यमसि वीर्यम्मयि धेहि बलमसि बलम्मयि धेह्योजोस्योजो मयि धेहि मन्युरसि मन्युम्मयि धेहि सहोसि सहो मयि धेहि ॥
स्वर रहित पद पाठ
तेजः। असि। तेजः। मयि। धेहि। वीर्यम्। असि। वीर्यम्। मयि। धेहि। बलम्। असि। बलम्। मयि। धेहि। ओजः। असि। ओजः। मयि। धेहि। मन्युः। असि। मन्युम्। मयि। धेहि। सहः। असि। सहः। मयि। धेहि॥९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे शुभगुणकर राजन्! यत्त्वयि तेजोऽ(स्य)स्ति तत्तेजो मयि धेहि, यत्त्वयि वीर्यमसि तद्वीर्यं मयि धेहि, यत्त्वयि बलमसि तद् बलं मयि धेहि, यत्त्वय्योजोऽसि तदोजो मयि धेहि, यस्त्वयि मन्युरसि तम्मन्युं मयि धेहि, यत्त्वयि सहोऽसि तत्सहो मयि धेहि॥९॥
पदार्थः
(तेजः) प्रागल्भ्यम् (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः (तेजः) (मयि) (धेहि) (वीर्यम्) सर्वाङ्गस्फूर्तिः (असि) (वीर्यम्) (मयि) (धेहि) (बलम्) सर्वाङ्गदृढत्वम् (असि) (बलम्) (मयि) (धेहि) (ओजः) महाप्राणवत्त्वम् (असि) (ओजः) (मयि) (धेहि) (मन्युः) क्रोधः (असि) (मन्युम्) (मयि) (धेहि) (सहः) सहनम् (असि) (सहः) (मयि) (धेहि)॥९॥
भावार्थः
सर्वान् मनुष्यान् प्रतीयमीश्वरस्याज्ञास्ति यान् शुभगुणकर्मस्वभावान् विद्वांसो धरेयुस्तानन्येष्वपि धारयेयुर्यथा दुष्टाचाराणामुपरि क्रोधं कुर्युस्तथा धार्मिकेषु प्रीतिं सततं कुर्युः॥९॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे सकल शुभगुणकर राजन्! जो तेरे में (तेजः) तेज (असि) हैं, उस (तेजः) तेज को (मयि) मेरे में (धेहि) धारण कीजिये। जो तेरे में (वीर्यम्) पराक्रम (असि) है, उस (वीर्यम्) पराक्रम को (मयि) मुझ में (धेहि) धरिये। जो तेरे में (बलम्) बल (असि) है, उस (बलम्) बल को (मयि) मुझ में भी (धेहि) धरिये। जो तेरे में (ओजः) प्राण का सामर्थ्य (असि) है, उस (ओजः) सामर्थ्य को (मयि) मुझ में (धेहि) धरिये। जो तुझ में (मन्युः) दुष्टों पर क्रोध (असि) है, उस (मन्युम्) क्रोध को (मयि) मुझ में (धेहि) धरिये। जो तुझ में (सहः) सहनशीलता (असि) है, उस (सहः) सहनशीलता को (मयि) मुझ में भी (धेहि) धारण कीजिये॥९॥
भावार्थ
सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर की यह आज्ञा है कि जिन शुभ गुण-कर्म-स्वभावों को विद्वान् लोग धारण करें, उनको औरों में भी धारण करावें और जैसे दुष्टाचारी मनुष्यों पर क्रोध करें, वैसे धार्मिक मनुष्यों में प्रीति भी निरन्तर किया करें॥९॥
विषय
मन्यु के लिए प्रार्थना
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
मुनिवरों! देखो, जब मानव को क्रोध आने लगा। क्रोध की उतनी मात्रा बलवती हो जाती है। जितना मानव अपने को संकुचित्त बना लेता है, उतने ही क्रोध की मात्रा सूक्ष्म बन जाती है। अब जब क्रोध आने लगा, क्रोध की मात्रा उत्पन्न होने लगी तो मेरे प्यारे! वही क्रोध चित्र बन करके अन्तरिक्ष में रमण करने लगा।
उसको वैज्ञानिकों ने क्या, चिकित्सकों ने विचारा। मुझे स्मरण है राजा रावण के यहाँ सुधन्वा वैद्यराज रहते थे। एक समय सुधन्वा और अश्वनीकुमार महात्मा भुञ्जु के पुत्र दोनों विद्यमान होकर यह विचारने लगे, १. यदि मानव को सतोगुण में क्रोध आता है तो उसकी शरीर में क्या प्रतिक्रिया होती है? २. उसके रजोगुण में आता है, उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है? और ३. जब यह क्रोध तमोगुण में आता है तब क्या प्रतिक्रिया होती है? और उनमें भी नाना प्रकार के भेदन हैं। मुनिवरों! देखो, महाराजा सुधन्वा, अश्वनीकुमार ये सब आयुर्वेद के मर्म को जानते थे। आयु के मर्म को जानते थे।
महाराज वैद्यराज सुधन्वा ने यह कहा कि जब मानव को सतोगुण में क्रोध आता है उसको क्रोध नहीं कहते उसको मन्यु कहते हैं। वह सतोगुण में दूसरे के उपकार के दूसरे के गुणों की चर्चा कर रहा है।
उनमें यदि अति हो जाती है अति में क्रोध भी बन जाता है और वह क्रोध मानव के मस्तिष्क के ऊर्ध्वा भागम् ब्रह्मोः। जिसे लघु मस्तिष्क कहते हैं जिसमें सूक्ष्म सूक्ष्म तरंगें आती रहती हैं और वह तरंगें नृत्य करती रहती हैं। तो मुनिवरों! इस क्रोध से वह सूक्ष्म ब्रह्मरन्ध्र में लघु मस्तिष्क जो होता है उसके ज्ञान तन्तु समाप्त हो जाते हैं। जब मानव को रजोगुण में क्रोध आता है तो उसकी रजोगुण की जो मर्यादा होती है उसमें जो सतोगुणी ज्ञान है उसका माध्यम समाप्त हो जाता है।
जब तमोगुण में क्रोध आता है तो मानो देखो, नाग प्राण अमृत का विष बना करके मानव को विषैला बना देता है। मानव को विष कर बना देता है और वह जो नाग प्राण है उसका ऊर्ध्व मुख हो करके शरीर में जो अमृत होता है, क्रोध अति के आने से तमोगुण में वह नाग प्राण उस अमृत को निगलता रहता है और उसका विष बना करके त्यागता रहता है। मानव का शरीर रुग्ण हो जाता है। मानव विषधर बन जाता है। क्रोध में परणित हो जाता है। मानव की अर्द्ध मृत्यु हो जाता है। यह महाराजा सुधन्वा ने वर्णन किया है और जब मुनिवरों! इस मानव को रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण मिश्रित हो करके क्रोध की मात्रा आती है तो उस मानव का बेटा! ब्रह्मचर्य के सहित ब्रह्मरन्ध्र के तन्तु समाप्त हो जाते हैं। तो प्यारे मेरे! इस अग्नि में रमण नहीं करना चाहिए।
अग्नि क्या है! इसको वैज्ञानिकों ने विचारा। मुझे स्मरण है बेटा! महाराजा सुधन्वा ने और अश्वनी कुमार ने और आयुर्वेद के मर्म को जानने वाले कुछ कुछ राजा रावण के विधाता कुम्भकरण जी थे। वे कुम्भकरर्ण भी जानते थे। बेटा! आयुर्वेद में इतना जानते थे वहाँ विज्ञान में तो वह पारायण थे। उनका विज्ञान नितान्त कहलाया गया था। परन्तु जब वे अनुसन्धान करने लगे तो महाराजा कुम्भकर्ण रेवणी ने यह कहा हे सुधन्वा! हे वैद्यराजो! अश्वनीकुमारो! आओ, कुछ विचार करेंगे। वह विचार करने लगे। उन्होंने एक विज्ञानशाला में एक यन्त्र का निर्माण किया और निर्माण करके एक समय सुधन्वा के विधाता थे रेणकेतुका। एक समय उन्हें क्रोध आ रहा था और वह तमोगुण से सना हुआ क्रोध था। तब राजा कुम्भकर्ण ने अपने यन्त्र में स्थिर कर लिया और जब यन्त्रों में उसको दृष्टिपात करने लगे। उन्होंने इन परमाणुओं को लेकर के यन्त्रों में स्थिर किया और मुनिवरों! देखो, केवल एक क्षण का ही क्रोध था और क्षणों क्षणों के परमाणु ले करके उन्होंने यन्त्रों में स्थिर किए और जिस मानव को वह परमाणु जल में प्रवेश करके परणित कर दिए वही मानव साधारण मृत्यु को प्राप्त होता रहा।
सतोगुण के क्रोध का गुण वादन करते हुए आदि ऋषियों ने कहा है कि हे योगश्वरम् ब्रह्मः।
अपने विष से हम वायु मण्डल को दूषित करते रहते हैं, कहीं क्रोध के द्वारा, कहीं कामना के द्वारा कहीं अति मोह ममता के कारण संसार को हम प्रभु की सृष्टि को हम दूषित करते रहते हैं। मैं ममता का विरोधी नहीं हूँ। ममता होनी चाहिए। सामान्यता में होनी चाहिए। क्रोध मन्यु रूप में रमण करना चाहिए। मेरे प्यारे! देखो, वही मानव को जीवन देता है, आभा देता है, सतोगुणता प्रदान करता है।
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे स्वप्रकाश ! अनन्ततेज! आप (तेजः असि) अविद्यान्धकार से रहित हो, किंच सत्यविज्ञान, तेज:स्वरूप हो, (तेजो मयि धेहि) आप कृपादृष्टि से मुझमें वही तेज धारण करो, जिससे मैं निस्तेज, दीन और भीरु कहीं, कभी न होऊँ। हे अनन्तवीर्य परमात्मन्! आप (वीर्यम् असि) वीर्यस्वरूप हो, (वीर्यम् मयि धेहि) मुझमें भी शक्ति की स्थापना करो। हे महाबलशालिन् ! (बलम् असि) आप सर्वोत्तम बलयुक्त हो, (बलम् मयि धेहि) आप मुझमें भी सर्वोत्तम बल स्थिर रक्खो। हे अनन्तपराक्रम ! आप (ओजः असि) पराक्रमस्वरूप हो सो (ओजो मयि धेहि) मुझमें भी उसी पराक्रम को सदैव धारण करो । हे दुष्टानामुपरि क्रोधकृत्! (मन्युः असि) आप दुष्टों पर क्रोध करनेवाले हैं, (मन्युं मयि धेहि) आप मुझमें भी दुष्टों पर क्रोध धारण कराओ । हे अनन्तसहनस्वरूप! (सहः असि) आप अत्यन्त सहनशील हैं, (सहः मयि धेहि) मुझमें भी आप सहनसामर्थ्य धारण करो, अर्थात् शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा - इनके तेजादि गुण कभी मुझमें से दूर न हों, जिससे मैं आपकी भक्ति का स्थिर अनुष्ठान करूँ और आपके अनुग्रह से संसार में भी सदा सुखी रहूँ ॥ ९ ॥
विषय
तेज, वीर्य, बल, भोज, मन्यु और सहः राजा के ६ रूप । पक्षान्तर में परमेश्वर से इन छहों पदार्थों की प्रार्थना । राजा की व्याघ्र श्येन, सिंह आदि से तुलना और उसकी 'विषूचिका' नाम संस्था वा वर्णन । अध्यात्म में अन्तः प्रज्ञा का वर्णन ।
भावार्थ
हे राजन् ! तू (तेजः असि) तेज, तीक्ष्ण पराक्रम स्वरूप है । (मयि तेजः धेहि) मुझ प्रजाजन में भी तेज को धारण करा । तू (वीर्यम् असि ) वीर्य, सब अंगों में स्फूर्ति, उत्पन्न करनेवाला शरीर में वीर्य के समान है । तू (मयि) मुझमें भी उस (वीर्यम् ) वीर्यं को (धेहि) धारण करा । ( बलम् असि ) तु बल, अंगों में दृढ़ता उत्पन्न करनेवाला है । (मयि ) मुझ प्रजाजन में भी (बलम् धेहि) उस बल को धारण करा । (ओजः असि) शरीर में जिस प्रकार ओज, अष्टम धातु, कान्ति उत्पन्न करनेवाला है, उसी प्रकार के ( ओजः ) प्राण सामर्थ्य को ( मयि धेहि ) मुझ में धारण करा । (मन्युः असि) तू शत्रु को न सहन करनेवाला क्रोध- रूप है उसी प्रकार के ( मन्युम् ) मन्यु को (मयि धेहि) मुझमें धारण करा । (सहः असि) हे राजन् ! तू शत्रुओं को पराजित करने में समर्थ शक्ति हैं । तू (सहः मयि धेहि ) मुझ में भी वैसी शक्ति प्रदान कर । संगति देखो अथर्ववेद का ० १९ 1 सू० ३१ । म० ११ ॥ विश्व में परमात्मा और शरीर में आत्मा तेजः वीर्य, बल, ओजः, मन्यु और सह: स्वरूप हैं उनसे तेज, वीर्य, बल, ओज, मन्यु और सहः मिले ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोमः । निचृत् शक्करी । धैवतः ॥
विषय
आ-भूति
पदार्थ
१. गतमन्त्र में 'प्रभु के उपासन से 'महस्' की प्राप्ति होती है' ऐसा कहा था। उसी का व्याख्यान प्रस्तुत मन्त्र में करते हैं- (तेजः असि) = हे प्रभो! आप तेज के पुञ्ज हैं, मूर्त्तिमान् तेज हैं। (मयि) = मुझमें (तेज:) = तेज का (धेहि) = आधान कीजिए। मेरा यह अन्नमयकोश तेजस्वी हो। अपने इस तेज से मैं अपनी रक्षा करने में समर्थ होऊँ । २. (वीर्यम् असि) = हे प्रभो! आप वीर्य हैं। वीर्य के पुञ्ज हैं। (मयि वीर्यं धेहि) = मुझमें वीर्य का आधान करें। मेरा प्राणमयकोश वीर्यवान् होकर सम्भावित रोगों को कम्पित करके दूर करनेवाला हो। वि-विशेष रूप से यह (ईर्) = रोगों को कम्पित करे। शरीर में इस वीर्य के स्थापन से मैं रोगों का शिकार न होऊँ। ३. (बलम् असि) = हे प्रभो! आप बल हैं। (बलं मयि धेहि) = मुझमें बल स्थापन कीजिए। मेरा मनोमयकोश बल सम्पन्न हो। यह बलसम्पन्न मन मुझे इन्द्रियों के दमन में समर्थ करे और मैं अपनी जीवन यात्रा को विघ्नों को दूर करता हुआ, पूर्ण करनेवाला बनूँ। ४. (ओजः असि) = हे प्रभो। आप ओज हैं। (मयि ओजः धेहि) = मुझमें ओज का आधान करें। मेरा मन ओजस्वी हो और यह सब प्रकार से मेरी उन्नति का कारण बने। मेरे मन का बल सब विघ्नों व शत्रुओं को दूर करता है तथा यह मानस ओज मेरी उन्नति व वृद्धि का कारण होता है। ५. (मन्युः असि) = (मन् - अवबोध) हे प्रभो! आप निरतिशय ज्ञान हैं, ज्ञानधन हैं। (मन्युं मयि धेहि) = मेरे विज्ञानमयकोश में भी इस ज्ञान-धन का आधान कीजिए। आपकी कृपा से ज्ञान प्राप्त करके मैं अपने जीवन को पवित्र करनेवाला बनूँ। और अन्त में ६. (सहः असि) = हे प्रभो! आप 'सहस्' है, सहनशक्ति के पुञ्ज हैं। हम आपकी आज्ञाओं की कितनी अवहेलना करते हैं, परन्तु आप किसी प्रकार का क्रोध न करते हुए सदा हमारे कल्याण में प्रवृत्त रहते हैं। (मयि =) मुझमें भी (सहः धेहि) = सहनशक्ति का आधान कीजिए। मैं अपने आनन्दमयकोश को आनन्द से परिपूर्ण करनेवाला बनूँ और सचमुच आनन्द का लाभ कर सकूँ। ७. इस प्रकार हे प्रभो! आपकी कृपा से अपने सब कोशों को उस उस ऐश्वर्य से परिपूर्ण करके मैं सचमुच प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'आभूति' बनूँ, सर्वत्र ऐश्वर्यवाला ।
भावार्थ
भावार्थ- मेरा अन्नमयकोश तेजस्वी हो, प्राणमयकोश वीर्यवान् हो । मनोमयकोश में मैं बल व ओज को धारण करूँ। मेरा विज्ञानमयकोश मन्यु-ज्ञान से परिपूर्ण हो, और सहस् को अपनाकर मैं आनन्दमयकोशवाला बनूँ।
मराठी (3)
भावार्थ
सर्व माणसांना ईश्वराची ही आज्ञा आहे की, ज्या शुभ गुण, कर्म स्वभावाला विद्वान लोक धारण करतात तशी धारणा त्यांनी इतरांनाही करावयास लावावी व दुष्ट माणसांवर क्रोध करावा आणि धार्मिक माणसांवर प्रेम करावे.
विषय
पुन्हा तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (प्रजाजन आपल्या राजाला उद्देशून) हे सकल शुभगुणवान राजा, आपणांत जे (तेजः) तेज (असि) आहे, ते तेज (मयि) माझ्यामधे संचरित करा (मलाही आपल्याप्रमाणे तेजस्वी करा) आपण (वीर्यम्) पराक्रमी (असि) आहात. तो पराक्रम (यथोचित रूपात) तो (वीर्यम्) वीरत्वभाव (मयि) माझ्या स्वभावातही (धेहि) येऊ द्या. आपणात जे (बलम्) बळ (असि) आहे, माझ्यापुरते आवश्यक तेवढे (बलम्) बळ (मयि) माझ्या अंगात (धेहि) येऊ द्या. आपणात (ओजः) प्राणशक्ती वा सामर्थ्य (असि) आहे, ते (ओजः) सामर्थ्य (मयि) माझ्या हृदयात व शरीरात (धेहि) धारण होईल, असे करा. आपणाजवळ (मन्युः) दुष्टांवर करण्यास उपयोगी असा जो क्रोध (असि) आहे, त्या (मन्युम्) क्रोधाला (मयि) माझ्या हृदयात (धेहि) स्थापित करा. तसेच आपणाजवळ जी (सहः) सहनशक्ती (असि) आहे, ती (सहः) सहनशीलता (मयि) माझ्यात देखील (धेहि) येऊ द्या. (मी आपला एक प्रजाजन आपणास अशी प्रार्थना करीत आहे. ॥9॥
भावार्थ
भावार्थ - सर्व मनुष्यांसाठी परमेश्वर आज्ञा करीत आहे की विद्वान लोकांनी ज्या प्रकारे स्वतः शुभ गुण, कर्म आणि स्वभाव धारण केला आहे, तसेच गुण, कर्म आणि स्वभाव इतर लोकांनादेखील धारण करण्यास सांगावे व शिकवावे. तसेच (समाजातील विद्वान विचारक लोकांनी ज्याप्रकारे दुराचारी जनांवर क्रोध करावा (त्यांना दंडित वा बद्ध करावे) त्याचबरोबर धार्मिक मनुष्यांवर प्रेमदेखील अवश्य करावे. (त्यांचे रक्षण व परिपालन करावे) ॥9॥
विषय
प्रार्थना
व्याखान
हे स्वप्रकाशरूप अनंत तेजाने युक्त ईश्वरा तुझ्यामध्ये अविद्यारूपी अंधःकार नाही. तू सत्य विज्ञानाने युक्त तेजःस्वरूप असा आहेस. तुझ्या कृपेने तेच तेच माझ्या मध्ये येऊ दे. मी निस्तेज दीन व मित्रा कधीही बनू नये] हे अनंतवीर्य परमेश्वरा! तू वीर्य [बल] स्वरूप आहेस (बलं मयि धेहि) मलाही सर्वोत्तम बळ दे. हे (ओजः) अनंत पराक्रमी क्रोध करणाऱ्या ईश्वरा! मलाही दुष्टांवर क्रोध करण्याचे सामर्थ्य दे. हे अनंत सहनशक्तिमानस्वरूप ईश्वरा ! माझ्यामध्येही सहनशीलतेचे सामर्थ्य दे. माझे शरीर, इंद्रिये, मन, आत्मा यांच्यातील तेज कधीही नष्ट करू नकोस. तुझ्या भक्तीत स्थिर राहून अनुष्ठान करावे व तुझ्या अनुग्रहामुळे जगात स्थिर रहावे.॥९॥
इंग्लिश (4)
Meaning
O God, Thou art lustre ; give me lustre. Thou art manly vigour ; give me manly vigour. Thou art strength, give me strength. Thou art vitality ; give me vitality. Thou art righteous indignation ; give me righteous indignation Thou art forbearance ; give me forbearance.
Meaning
You are the light of life, put light into me. You are the vigour and vitality of life, put vigour and vitality into me. You are the strength and force of life, put strength and force into me. You are the lustre of health and energy of life, bless me with the glow and lustre of health and energy. You are the passion for life, put passion into me. You are the challenge and victory of life, bless me with the spirit of challenge and the ambition for victory.
Purport
O Self-Effulgent God! O Infinite Lustre ! You are free from darkness of ignorance, nay you are an embodiment of true knowledge and Absolute Lustre. By your merciful glance, infuse in me, the same lustre, so that I may not become spiritless, piteous and cowardly. O Infinite courageous God! You are vigorous by nature [embodiment of Vigour], make me also firm in that excellent vigour. Infinite prowess [strength] O God! Grant me excellent valour. Possessor of Infinite Might O God! You are an embodiment of might, infuse that might in me also. Full of wrath against the wicked O God! Your are warthful by nature. Bless me so that I may also express wrath on the wicked. Infinite Endurance O God! You are extremely tolerant by your nature, grant me also the power to endure everything in the world. The purport is that the attributes [virtues], lustre etc. of my body, sense-organs, mind and soul should never depart from me, so that I may put myself in your devotion firmly and by Your grace, I may always be happy and prosperous.
Translation
О Lord, you are radiance; bestow radiance on me. (1) You are manly vigour; bestow manly vigour on me. (2) You are strength; bestow strength on me. (3) You are vital force; bestow vital force on me. (4) You are enthusiasm; bestow enthusiasm on me. (5) You are conquering power; bestow conquering power on me, (6)
Notes
Manyuḥ, मानसं प्रज्वलनं कोप:, anger; wrath; enthusi asm. Sahaḥ, पराभवकारि बलं, conquering power.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষষকেপরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ– হে সকল শুভগুণাকর রাজন্! তোমাতে (তেজ) তেজ (অসি) আছে সেই (তেজঃ) তেজকে (ময়ি) আমাতে (ধেহি) ধারণ করুন, তোমাতে (বীর্য়ম্) পরাক্রম (অসি) আছে সেই (বীর্য়ম্) পরাক্রমকে (ময়ি) আমাতে (ধেহি) ধারণ করুন, তোমাতে (বলম্) বল (অসি) আছে সেই (বলম্) বলকে (ময়ি) আমাতেও (ধেহি) ধারণ করুন, তোমাতে (ওজঃ) প্রাণের সামর্থ্য (অসি) আছে সেই (ওজঃ) সামর্থ্যকে (ময়ি) আমাতে (ধেহি) ধারণ করুন, তোমাতে (মন্যুঃ) দুষ্টদিগের উপরে ক্রোধ (অসি) আছে সেই (মন্যুম্) ক্রোধকে (ময়ি) আমাতে (ধেহি) ধারণ করুন, তোমাতে (সহঃ) সহনশীলতা (অসি) আছে সেই (সহঃ) সহনশীলতাকে (ময়ি) আমাতেও (ধেহি) ধারণ করুন ॥ ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ– সকল মনুষ্যদিগের প্রতি ঈশ্বরের এই আজ্ঞা যে, সে সব শুভ গুণ-কর্ম-স্বভাবকে বিদ্বান্গণ ধারণ করেন তাহা আমার মধ্যেও ধারণ করাইবে এবং যেমন দুষ্টাচারীর মনুষ্যের উপর ক্রোধ করিবে সেইরূপ ধাার্মিক মনুষ্যদিগের মধ্যে নিরন্তর করিতে থাকিবে ॥ ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তেজো॑ऽসি॒ তেজো॒ ময়ি॑ ধেহি বী॒র্য়᳖মসি বী॒র্য়ং᳕ ময়ি॑ ধেহি॒ বল॑মসি॒ বলং॒ ময়ি॑ ধে॒হ্যোজো॒ऽস্যোজো॒ ময়ি॑ ধেহি ম॒ন্যুর॑সি ম॒ন্যুং ময়ি॑ ধেহি॒ সহো॑ऽসি॒ সহো॒ ময়ি॑ ধেহি ॥ ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তেজোऽসীত্যস্যাऽऽভূতির্ঋষিঃ । সোমো দেবতা । নিচৃচ্ছক্বরীচ্ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
नेपाली (1)
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे स्वप्रकाश! अनन्ततेज ! तपाईं तेज:असि = अविद्यान्धकार देखि रहित हुनुहुन्छ, किंच सत्यविज्ञान, तेजःस्वरूप हुनुहुन्छ । तेजोममिधेहि=तपाईंलेकृपादृिष्टगरी मँमा त्यही तेजधारणा गरिदिनुहोस्। जसले गर्दा मँ तेज हीन, दीन र भीरु कहीं कतै पनि न हूँ । हे अनन्त वीर्य परमात्मन् ! तपाईं वीर्यं असि = वीर्य स्वरूप हुनुहुन्छ वीर्यंम मयि धेहि = मँमा पनि शक्ति को स्थापना गर्नु होस् । हे महाबलशालिन् । बलं असिः = तपाईं सर्वोत्तम बलयुक्त हुनु हुन्छ, बलंमयिधेहिः=मँमापनि सर्वोत्तम बलस्थिरगरिदिनुहोस्हेअन्तरपराक्रम
तपाईंओजःअसि=पराक्रमस्वरूप हुनुहुन्छ।अतःओजोमयिधेहि=मँमा पनि तेही पराक्रम सदैव धारण गराउनु होस् । हे दुष्टानामुपरि क्रोधकृत् ! मन्युः असि = तपाईं दुष्ट हरु माथि क्रोधकर्ता हुनुहुन्छ, मन्युं मयि धेहिः= तपाईं मलाई पनि दुष्ट हरु माथि क्रोधगर्ने बनाउनु होस् । हे अनन्तसहन स्वरूप ! सह : असि = हजुर, अत्यन्त सहनशील हुनुहुन्छ, सहः मयि धेहि = मँमा पनि हजुर ले सहने सामर्थ्य धारण गराउनु होस्, अर्थात् शरीर, इन्द्रिय, मन र आत्मा को तेज आदि गुण मँबाट कहिल्यै टाढा न हुन् जसले गर्दा मँ तपाईंको भक्ति को स्थिर अनुष्ठान गरूँ र हजुर का अनुग्रह ले संसार मा पनि सदा सुखी रहूँ ॥९॥
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