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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 87
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    2

    कु॒म्भो व॑नि॒ष्ठुर्ज॑नि॒ता शची॑भि॒र्यस्मि॒न्नग्रे॒ योन्यां॒ गर्भो॑ऽअ॒न्तः। प्ला॒शिर्व्य॑क्तः श॒तधा॑र॒ऽउत्सो॑ दु॒हे न कु॒म्भी स्व॒धां पि॒तृभ्यः॥८७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒म्भः। व॒नि॒ष्ठुः। ज॒नि॒ता। शची॑भिः। यस्मि॑न्। अग्रे॑। योन्या॑म्। गर्भः॑। अ॒न्तरित्य॒न्तः। प्ला॒शिः। व्य॑क्त॒ इति॒ विऽअ॑क्तः। श॒तधा॑र॒ इति॑ श॒तऽधा॑रः। उत्सः॑। दु॒हे। न। कु॒म्भी। स्व॒धाम्। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑ ॥८७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुम्भो वनिष्ठुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्रे योन्यां गर्भोऽअन्तः । प्लाशिर्व्यक्तः शतधारऽउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधाम्पितृभ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कुम्भः। वनिष्ठुः। जनिता। शचीभिः। यस्मिन्। अग्रे। योन्याम्। गर्भः। अन्तरित्यन्तः। प्लाशिः। व्यक्त इति विऽअक्तः। शतधार इति शतऽधारः। उत्सः। दुहे। न। कुम्भी। स्वधाम्। पितृभ्य इति पितृऽभ्यः॥८७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 87
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    दम्पती कीदृशावित्याह॥

    अन्वयः

    यः कुम्भो वनिष्ठुर्जनिता प्लाशिर्व्यक्तः शचीभिः शतधार उत्सो दुहे न पुरुषो या च कुम्भीव स्त्री तौ पितृभ्यः स्वधां प्रदद्याताम्, यस्मिन्नग्रे योन्यामन्तर्गर्भो धीयते, तं सततं रक्षेताम्॥८७॥

    पदार्थः

    (कुम्भः) कलश इव वीर्यादिधातुभिः पूर्णः (वनिष्ठुः) सम्भाजी। अत्र वन् सम्भक्तावित्यस्मा-दौणादिक इष्ठुप् प्रत्ययः। (जनिता) उत्पादकः (शचीभिः) कर्मभिः (यस्मिन्) (अग्रे) पुरा (योन्याम्) गर्भाधारे (गर्भः) (अन्तः) अभ्यन्तरे (प्लाशिः) यः प्रकृष्टतयाऽश्नुते सः (व्यक्तः) विविधाभिः पुष्टिभिः प्रसिद्धः (शतधारः) शतशो धारा वाचो यस्यः स (उत्सः) उन्दन्ति यस्मात् स कूप इव (दुहे) प्रपूर्त्तिकरे व्यवहारे (न) इव (कुम्भी) धान्याधारा (स्वधाम्) अन्नम् (पितृभ्यः) पालकेभ्यः॥८७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। स्त्रीपुरुषौ वीर्यवन्तौ पुरुषार्थिनौ भूत्वा अन्नादिभिर्विद्वांसं सन्तोष्य धर्मेण सन्तानोत्पत्तिं कुर्याताम्॥८७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    स्त्री-पुरुष कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    जो (कुम्भः) कलश के समान वीर्यादि धातुओं से पूर्ण (वनिष्ठुः) सम विभाग हरनेहारा (जनिता) सन्तानों का उत्पादक (प्लाशिः) अच्छे प्रकार भोजन का करने वाला (व्यक्तः) विविध पुष्टियों से प्रसिद्ध (शचीभिः) उत्तम कर्मों करके (शतधारः) सैकड़ों वाणियों से युक्त (उत्सः) जिससे गीला किया जाता है, उस कूप के समान (दुहे) पूर्त्ति करनेहारे व्यवहार में स्थित के (न) समान पुरुष और जो (कुम्भी) कुम्भी के सदृश स्त्री है, इन दोनों को योग्य है कि (पितृभ्यः) पितरों को (स्वधाम्) अन्न देवें और (यस्मिन्) जिस (अग्रे) नवीन (योन्याम्) गर्भाशय के (अन्तः) बीच (गर्भः) गर्भ धारण किया जाता, उसकी निरन्तर रक्षा करें॥८७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। स्त्री और पुरुष वीर्य वाले पुरुषार्थी होकर अन्नादि से विद्वान् को प्रसन्न कर, धर्म से सन्तानों की उत्पत्ति करें॥८७॥

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    विषय

    प्लीहा आदि भीतरी अंगों की तुलना ।

    भावार्थ

    (वनिष्ठुः) शरीर में 'वनिष्ठु' अर्थात् त्रिक, कूल्हा जिसमें स्थूल आंतें रहती हैं वह भाग जिसमें (अग्रे) सबसे प्रथम स्त्री-शरीर में ( योन्याम् ) योनि के ( अन्त:) बीच में स्थित (गर्भ:) गर्भ रहता है, उसके समान ही राजा भी स्वयं (कुम्भः = कुंभ) पृथ्वी को भी पोषण करने में समर्थ और ( शचीभिः ) अपनी शक्तियों से (जनिता) राष्ट्र का उत्पादक होता है । शरीर में जिस प्रकार ( प्लाशि: ) शिश्न भाग (व्यक्तः) प्रकट है जो मूत्रादि बहाने में ( शतधारः उत्सः इव ) शतधार स्रोत के समान है उसी प्रकार राष्ट्र- शरीर में भी (प्लाशि: = प्राशिः) उत्तम पदों और ऐश्वर्यो को प्राप्त कर भोगने वाला वैश्य भाग है जो (शतधारः उत्सः इव) सैकड़ों धारा वाले स्रोत या मेघ के समान ऐश्वर्यों को बहाता है और (कुम्भी) घर की धान और जल से भरी गगरी जिस प्रकार ( पितृभ्यः ) घर के पालक वृद्धजनों को भी (स्वधां दुहे) अन्न और जल प्रदान करती है (न) उसी प्रकार (कुम्भी) प्रजा का पालन करने वाली यह पृथिवी (पितृभ्यः) पालक, शासक पुरुषों को ( स्वधाम् ) अन्न और स्व अर्थात् देहधारक, वेतन आदिक (दुहे) प्रदान करती है । गृहस्थ प्रकरण में पति कलश के समान वीर्य शौर्य आदि से पूर्ण, (वनिष्ठुः) भोक्ता, ( जनिता ) सन्तानो-स्पादक, (प्लाशि:) समस्त पदार्थों का संग्रहीता, (शतधारः) सैकड़ों ज्ञान-वाणी वाला, (उत्सः) कूप के समान गंभीर, प्रेम का स्रोत होकर रहे, और (कुम्भी) इसी प्रकार वीर्यादि से पूर्ण स्त्री भी रहे। दोनों (पितृभ्यां स्वधां दुहे) अपने पालक जनों को अन्न, भोजन दें । पुरा ( यस्मिन् अग्रे ) जिसमें प्रथम ही वीर्य रूप में सन्तान विद्यमान होती है और स्त्री जिसमें बाद में ( योन्यामन्तः गर्भः) योनि के भीतर गर्भ रूप से सन्तान उत्पन्न होती है दोनों ही अपने (पितृभ्याम् ) पिताओं के ऋण रूप ( स्वधाम् ) उनके अपने अंश रूप सन्तति को (दुहे) उत्पन्न करके सफल हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अश्व्यादयः । पितरः । भुरिक् पंक्तिः । पंचमः ॥

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    विषय

    कुम्भ-कुम्भी

    पदार्थ

    १. पति को कैसा बनना इसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि (कुम्भः) = [कं उभ्यते अस्मिन्] जल के परिणामभूत वीर्यकण [आपो रेतो भूत्वा] जिसके अन्दर पूरित होते हैं, वह 'कुम्भ' है । पति ने अपने इस शरीररूपी कलश को वीर्यादि धातुओं से परिपूर्ण बनाना है। [कलश इव वीर्यादिधातुभिः पूर्णः - द०] वीर्यादि से परिपूर्ण होने के कारण ही जो आनन्द से परिपूर्ण है, [ क= आनन्द] । संक्षेप में, पति शक्तिशाली है और इसीलिए प्रसन्न मनोवृत्तिवाला है। २. (वनिष्ठुः) = [सम्भाजी - द० ] यह सम विभागपूर्वक वस्तुओं का प्रयोग करता है, सारा स्वयं नहीं खा जाता। केवलादी नहीं बनता। ३. (शचीभि:) = प्रज्ञापूर्वक कर्मों को करने से जनिता यह अपनी शक्ति का सदा प्रादुर्भाव करता है। ४. (अग्रे:) = सृष्टि बनने से पूर्व यह संसार (यस्मिन्) = जिस प्रभु में था, (योन्यां गर्भः अन्तः) = उस कारणभूत ब्रह्म में यह गर्भरूप से निवास करता है। जैसे गर्भ माता में सुरक्षित होता है, उसी प्रकार यह सदा उस 'जगद्योनि' ब्रह्म में गर्भरूप से सुरक्षित रहता है। वहाँ रहता हुआ यह रोगों व पापों से आक्रान्त नहीं होता । ५. (प्लाशि:) = [प्रकृष्टम् अश्नाति] यह सदा उत्तम सात्त्विक भोजनों का करनेवाला होता है। (व्यक्त:) = इस सात्त्विक भोजन से ही इसका अन्तःकरण सात्त्विक बनकर इसके जीवन को उच्च बनाता है। ६. (शतधार:) = [ शतशः धारा वाचो यस्य] यह अनन्त ज्ञान की वाणियोंवाला होता है। ७. (उत्सः) = [उन्दी क्लेदने] यह दया के जल से सदा क्लन्न व करुणार्द्र हृदयवाला होता है, अथवा यह ज्ञान का स्रोत बनता है जहाँ से सब लोग अपनी ज्ञान की प्यास बुझा पाते हैं। ८. अब पत्नी का उल्लेख करते हुए कहते हैं, कि (कुम्भी) = पत्नी भी शक्ति से परिपूर्ण शरीररूपी कलशवाली होती है और इसीलिए आनन्दमय हृदयवाली होती है। यहाँ प्रथम 'कुम्भ' शब्द के स्त्रीलिंग 'कुम्भी' शब्द के प्रयोग से अन्य = और गुणों का भी पत्नी में उसी प्रकार आवश्यक रूप से होने का संकेत हो गया है । ९. (न) = इन गुणों के साथ यह 'पत्नी' (स्वधाम्) = आत्मधारण के लिए आवश्यक अन्न को (पितृभ्यः) = अपने-अपने कर्त्तव्य भाग के पालन के द्वारा घर का रक्षण करनेवाले पितरों के लिए (दुहे) = पूरित करती है। घर में सभी को शरीरपोषक भोजन प्राप्त कराना, यह पत्नी का = विशिष्ट कर्त्तव्य है। इसके ठीक होने पर ही शरीर, मन व बुद्धि सबकी उन्नत्तियाँ निर्भर हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति व पत्नी शक्तिशाली व प्रसन्न मनवाले हों। शरीरपोषक अन्न के सेवन से सब उन्नत्तियों को सिद्ध करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. स्री-पुरुषांनी वीर्यवान व पुरुषार्थी बनावे. अन्न वगैरेनी विद्वानांना प्रसन्न करून धर्माने संतान उत्पन्न करावीत.

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    विषय

    स्त्री-पुरूषांनी कसे असावे, यावषियी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पती वा पुरूष कसा असावा?) तो (कुम्भः) घागर जशी पाण्याने भरलेली असते, तसा तो वीर्य आदी धातूंमुळे असावा. तो (वनिष्ठुः) समानपणे वाटप करणारा (जनिता) संतानोत्पत्तीमधे समर्थ आणि (प्लाशिः) भरपूर आहार देणारा असावा. तो (व्यक्तः) विविध गुणांमुळे प्रख्यात आणि (राचिभिः) उत्तम कर्म करणारा असून (शतधारः) शेकडो चांगल्या गोष्टी वा विचार सांगणारा असावा. (उत्सः) कूप वा स्रोताच्या (न) जलाप्रमाणे (दुहे) (शारीरिक गरजा) पूर्ण करणारा असावा. आणि पत्नी वा स्त्री, (कुम्भी) छोट्या कळशीप्रमाणे असावी. (पतीचेच गुण थोड्या प्रमाणात पत्नीमधे असावेत) दोघांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी (पितृभ्यः) पितरांना (घरातील वयोवृद्ध माता-पिता, आजोबा आदींना) (स्वधाम्‌) अन्नभोजन देऊन तुष्ट करावे. तसेच (यस्मिन्‌) ज्या (अग्रे) (योन्याम्‌) गर्भाशयाच्या (अन्तः) आत (गर्भः) गर्भ धारण केला जाईल (पत्नीला गर्भधारणा होईल) असे वागावे आणि गर्भाची निरंतर काळजी घ्यावी ॥87॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे (दुहे न) या शब्दात उपमा आहे. पती व पत्नीने वीर्यवान्‌, रजस्वती आणि पुरूषार्थी असावे. (घरी आलेल्या) विद्वानाने (सेवेने व आतिथ्याद्वारे प्रसन्न करावे आणि अशाप्रकारे धर्माचे पालन करीत संतानोत्पत्ती करावी ॥87॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    husband full of semen like a pitcher, enjoyer, progenitor of children, taker of good meals, full of nourishments, doer of noble deeds, master of hundreds of speeches, deep like a large pitcher, is like one who is engaged in the execution of his duty. A wife is a small jar of water. It is incumbent upon both to give food to their parents and protect the embryo in the womb.

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    Meaning

    The husband, progenitor, is like ajar overflowing with love and vigour. Healthy and handsome, he is like an exuberant fountain flowing in a hundred streams of action with grace and piety. So is the wife, her womb a recipient jar into which the husband should project the seed, the foetus inside being like an oblation in honour of his parents and ancestors.

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    Translation

    Nearby the bowels is the reproductive pitcher with its mighty powers, where at the farther end of the vagina is situated the womb. The penis is apparently the hundred- streamed faunt, from which the pitcher miiks out sustenance (in the from of progeny) for the elders. (1)

    Notes

    Vanişthuh,स्थूलायंत्रं, large intestines. Janitā kumbhaḥ, reproductive pitcher; womb. Śacibhiḥ, with powers. Yonyām antaḥ garbhaḥ, the womb at the end of the vagina. Pläśiḥ, the penis. Pitrbhyah for the fathers; elders; manes.

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    बंगाली (1)

    विषय

    দম্পতী কীদৃশাবিত্যাহ ॥
    স্ত্রী-পুরুষ কেমন হইবে এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ– যাহা (কুম্ভঃ) কলশের সমান বীর্য্যাদি ধাতু দ্বারা পূর্ণ (বনিষ্ঠুঃ) সম বিভাগ হরণকারী (জনিতা) সন্তানদিগের উৎপাদক (প্লাশিঃ) উত্তম প্রকার আহারকারী (ব্যক্তঃ) বিবিধ পুষ্টিসকলের দ্বারা প্রসিদ্ধ (শচীভিঃ) উত্তম কর্ম করিয়া (শতধারঃ) শত শত বাণীযুক্ত (উৎসঃ) যদ্দ্বারা আর্দ্র করা হয় সেই কূপের সমান (দূহে) পূর্তিকারী ব্যবহারে স্থিতের (ন) সমান পুরুষ এবং যাহা (কুম্ভী) কুম্ভীর সদৃশ স্ত্রী এই উভয়ের কর্ত্তব্য যে, (পিতৃভ্যঃ) পিতরদিগকে (স্বধাম্) অন্ন দিবে এবং (য়স্মিন্) যে (অগ্রে) নবীন (য়োন্যাম্) গর্ভাশয়ের (অন্তঃ) মধ্যে (গর্ভঃ) গর্ভ ধারণ করা হয় তাহার সর্বদা রক্ষা করিবে ॥ ৮৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । স্ত্রী ও পুরুষ বীর্য্য সম্পন্ন পুরুষার্থী হইয়া অন্নাদি দ্বারা বিদ্বান্কে প্রসন্ন করিয়া ধর্ম দ্বারা সন্তানদিগের উৎপত্তি করিবে ॥ ৮৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    কু॒ম্ভো ব॑নি॒ষ্ঠুর্জ॑নি॒তা শচী॑ভি॒র্য়স্মি॒ন্নগ্রে॒ য়োন্যাং॒ গর্ভো॑ऽঅ॒ন্তঃ ।
    প্লা॒শির্ব্য॑ক্তঃ শ॒তধা॑র॒ऽউৎসো॑ দু॒হে ন কু॒ম্ভী স্ব॒ধাং পি॒তৃভ্যঃ॑ ॥ ৮৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    কুম্ভ ইত্যস্য শঙ্খ ঋষিঃ । পিতরো দেবতাঃ । ভুরিক্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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