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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 83
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    सर॑स्वती॒ मन॑सा पेश॒लं वसु॒ नास॑त्याभ्यां वयति दर्श॒तं वपुः॑। रसं॑ परि॒स्रुता॒ न रोहि॑तं न॒ग्नहु॒र्धीर॒स्तस॑रं॒ न वेम॑॥८३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर॑स्वती। मन॑सा। पे॒श॒लम्। वसु॑। नास॑त्याभ्याम्। व॒य॒ति॒। द॒र्श॒तम्। वपुः॑। रस॑म्। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। न। रोहि॑तम्। न॒ग्नहुः॑। धीरः॑। तस॑रम्। न। वेम॑ ॥८३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरस्वती मनसा पेशलँवसु नासत्याभ्यां वयति दर्शतँवपुः । रसम्परिस्रुता न रोहितन्नग्नहुर्धीरस्तसरन्न वेम ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सरस्वती। मनसा। पेशलम्। वसु। नासत्याभ्याम्। वयति। दर्शतम्। वपुः। रसम्। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। न। रोहितम्। नग्नहुः। धीरः। तसरम्। न। वेम॥८३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 83
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    विद्वद्वदितरैराचरणीयमित्याह॥

    अन्वयः

    सरस्वती मनसा वेम न यत् पेशलं दर्शतं वपुस्तसरं रोहितं परिस्रुता रसं न वसु वयति, नासत्याभ्यां नग्नहुर्धीरश्चाऽस्ति, तौ द्वौ वयं प्राप्नुयाम॥८३॥

    पदार्थः

    (सरस्वती) प्रशस्तं सरो विज्ञानं विद्यते यस्याः सा (मनसा) विज्ञानेन (पेशलम्) उत्तमाङ्गवत् (वसु) द्रव्यम् (नासत्याभ्याम्) न विद्यते असत्यं ययोस्ताभ्यां मातापितृभ्याम् (वयति) विस्तृणाति (दर्शतम्) दर्शनीयम् (वपुः) शरीरमुदकं वा। वपुरित्युदकनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.१२) (रसम्) आनन्दम् (परिस्रुता) परितः सर्वतः स्रुतम्। अत्र सुपां सुलुग्॰ [अष्टा॰७.१.३९] इत्याकारादेशः (न) इव (रोहितम्) प्रादुर्भूतम् (नग्नहुः) नग्नं शुद्धं जुहोति गृह्णाति सः (धीरः) ध्यानशीलः (तसरम्) तस्यत्युपक्षयति दुःखानि येन तम् (न) इव (वेम) प्रजननम्॥८३॥

    भावार्थः

    यथा विद्वांसावध्यापकोपदेशकौ सारं सारं वस्तु गृह्णन्ति, तथैव सर्वैः स्त्रीपुरुषैर्ग्राह्यम्॥८३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वानों के समान अन्यों को आचरण करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (सरस्वती) उत्तम विज्ञानयुक्त स्त्री (मनसा) विज्ञान से (वेम) उत्पत्ति के (न) समान जिस (पेशलम्) उत्तम अङ्गों से युक्त (दर्शतम्) देखने योग्य (वपुः) शरीर वा जल को तथा (तसरम्) दुःखों के क्षय करनेहारे (रोहितम्) प्रकट हुए (परिस्रुता) सब ओर से प्राप्त (रसम्) आनन्द को देनेहारे रस के (न) समान (वसु) द्रव्य को (वयति) बनाती है, जिन (नासत्याभ्याम्) असत्य व्यवहार से रहित माता-पिता दोनों से (नग्नहुः) शुद्ध को ग्रहण करनेहारा (धीरः) ध्यानवान् तेरा पति है, उन दोनों को हम लोग प्राप्त होवें॥८३॥

    भावार्थ

    जैसे विद्वान् अध्यापक और उपदेशक सार-सार वस्तुओं का ग्रहण करते हैं, वैसे ही सब स्त्री-पुरुषों को ग्रहण करना योग्य है॥८३॥

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    विषय

    बुद्धिमती स्त्री के समान राजसभा का राष्ट्र में ऐश्वर्य और शोभा बढ़ाते रहना ।

    भावार्थ

    ( सरस्वती ) विज्ञानवाली विदुषी स्त्री जिस प्रकार अपना (दर्शतम् ) दर्शनीय ( वपुः ) शरीर बनाती है उसी प्रकार ( सरस्वती ) विज्ञानवान् विद्वानों की परिषद् भी ( नासत्याभ्याम् ) असत्य व्यवहारों से रहित, स्त्री-पुरुषों से मिलकर राजा के लिये (मनसा) अपने ज्ञान के बल से ( पेशलम् ) अति सुन्दर, सुवर्ण आदि से समृद्ध (वसु) ऐश्वर्य को ( वयति) पट के समान निरन्तर बुनती-सी रहती, पैदा ही करती रहती है । और जिस प्रकार स्त्री (परिस्रुता) परिस्रवण किये गये चुआए गये लाख से, मेंहदी के पीसे हुए रस से (रोहितं रसं न) लाल रस को पैदा कर देती है उसी प्रकार पूर्वोक्त विद्वत्सभा और (धीर: नग्नहुः) बुद्धिमान्, 'नग्न' अर्थात् विशुद्ध ज्ञान के ग्रहण करने हारा सभापति (परिस्रुता) राष्ट्र के समस्त प्रान्तों से प्राप्त राज्यलक्ष्मी से ही (रोहितम्) 'रोहित', आदित्य के समान तेजस्वी, (रसम् ) सारभूत लाल पोषाक पहने राजा को उसी प्रकार उत्पन्न करते हैं जैसे (तसरं वेम न ) तसर और वेमा मिलकर (रोहितं न ) लाल पट बुना करते हैं । अथवा - (सरस्वती) स्त्री और (नग्नहुः) सुन्दर स्त्री को स्वीकार करने वाला उसका पति दोनों मिलकर ( रोहितम् ) रक्त, कांचन वर्ण (तसरं वेम न ) दुःखक्षयकारक पुत्र को जिस प्रकार उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार (सरस्वती नग्नहुः धीरः) विद्वत्सभा और शुद्ध तत्वज्ञानी बुद्धिमान् सभापति दोनों ( तत्सरम् ) प्रजा के दुःखनाशक (रसम् ) आनन्दप्रद ( रोहितम् ) लोहित, काञ्चन ऐश्वर्य से युक्त अथवा आदित्य के समान तेजस्वी और लाल उज्ज्वल पोषाक पहने सूर्यवत्, तेजस्वी राजा को ( वयति) उत्पन्न करते हैं । सरस्वती - प्रशस्तं सरः विज्ञानं यस्याः सा । दया० | 'नग्नहूः' – नग्नं शुद्धं जुहोति गृह्णाति दया० ॥ अथवा-पतिपक्षे 'नग्नां ' अन्येनानुपगतां कन्यां, अथवा नग्नशरीरे शुभलक्षणवतीं कन्यां जुहोति गृह्णाति यः सः । 'नग्निकां श्रेष्ठां यवीयसीमुपयच्छेत' । 'नग्नशरीरेपि शुभलक्षणवतीमिति' अष्टावक्रः । 'रोहितं' – देखो अथर्ववेद आलोकभाष्य: रोहित सूक्त ( ३ खण्ड )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सरस्वती देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    रसं ओषधीनाम्

    पदार्थ

    १. (सरस्वती) = ज्ञान की अधिदेवता (मनसा) = मनन-संकल्प से तथा (नासत्याभ्याम्) = प्राणापानों के द्वारा (पेशलम्) = लचकीले, कोमल [Soft], सूखे काठ की भाँति न अकड़े हुए, (वसु) = निवास के योग्य, (दर्शनम्) = दर्शनीय, सुन्दर (वपुः) = शरीर को वयति सन्तत करती है, बनाती है, अर्थात् 'ज्ञान, संकल्प तथा प्राणापान' शरीर को लचकीला, उत्तम व सुन्दर बनाते हैं। ज्ञान से ही हमारा आहार-विहार हितकर होगा और शरीर नीरोग रहेगा। विचारशीलता व संकल्प उत्साह को स्थिर रखते हैं और शरीर निवास के योग्य बना रहता है। प्राणापान शरीर को तेजस्वी व दर्शनीय बनाते हैं । २. (सरस्वती) = ज्ञानाधिदेवता (परिस्स्रुता) = परिपक्व अन्न से (रसम्) = रस को (वयति) = सन्तत करती है, अर्थात् ज्ञान से हम स्वास्थ्य के लिए हितकर अन्न-रसों का सेवन करनेवाले बनते हैं। यह रस (रोहितम्) = हमारी वृद्धि का कारण बनता है । ३. (न) = और (नग्नहुः) = [नग्नः अपि जुहोति ] स्वयं नग्न रहता हुआ भी जो आहुति देता है, अर्थात् लोकहित के लिए यज्ञियवृत्तिवाला होता है-खूब दान देता है और (धीरः) = धैर्यशाली होता है (तसरम्) = [तस्यति उपक्षयति दुःखानि येन - द०] सब दुःखों व रोगों का क्षय करनेवाले (वेम) = [ वी = प्रजनन] विकासवाले शरीर को वयति सन्तत करता है, अर्थात् जो व्यक्ति यज्ञियवृत्ति के कारण भोगवाद में नहीं फँस जाता [नग्नहु:] और जीवन में शान्ति से चलता है [ धीर: ] वह शरीर को नीरोग [तसरं ] तथा विकसित शक्तियोंवाला [वेम] बना पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - [क] हमें ज्ञानपूर्वक आहार-विहार करना चाहिए, [ख] विचारशील उत्तम संकल्पवाला होना चाहिए, [ग] प्राणापान की शक्ति का वर्धन करना चाहिए, [घ] शरीर की उन्नति के लिए पक्वान्नों के रस का ग्रहण करना चाहिए तथा [ङ] त्यागवृत्तिवाला व धैर्यशील बनकर नीरोग व विकसित शरीरवाला बनना चाहिए।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे विद्वान, अध्यापक, उपदेशक वस्तूंचे मर्म जाणतात. त्याप्रमाणे सर्व स्री-पुरुषांनी वस्तूचे मर्म जाणून घ्यावे.

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    विषय

    अन्यजनांनीही विद्वज्जनांप्रमाणे आचरण ठेवावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - ज्याप्रमाणे एक (सरस्वती) उत्तम ज्ञानाने युक्त पत्नी (मनसा) पूर्ण ध्यान वा लक्ष देऊन (वेम) उत्पत्तीच्या (न) वेळेप्रमाणे (संतानाला जन्म देते वेळी) (पेशलम्‌) उत्तम अवयवांनी युक्त आणि (दर्शतम्‌) दर्शनीय आ (वपुः) शरीर (बाळाचे शरीर) (तयार करते) तसेच ज्याप्रमाणे ती विदुषी स्त्री (तसरम्‌) दुःखनाशक (रोहितम्‌) प्रकट दिसणाऱ्या (परिस्रुता) सर्वदिशांत जाऊन एकत्रित केलेल्या औषधींतून (रसम्‌) रस (वयति) काढते तो रस (वसु) (न) महार्थ द्रव्याप्रमाणे असतो. हे स्त्री, ज्याप्रमाणे (ना सत्याभ्याम्‌) असत्य व्यवहारापासून दूर असलेल्या माता-पित्यापासून (नग्नहूः) शुद्ध व्यवहार ग्रहण करणारा (धीरः) तुझा धैर्यवान पती आहे, (तशीच तू ही आहेस) (आम्हाला तुमच्या सारखे पति-पत्नी मिळावेत, अशी आम्ही सर्व गृहस्थ कामना करीत आहोत.)॥83॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्याप्रमाणे विद्वान अध्यापक आणि उपदेशक सारभूत वस्तू ग्रहण करतात (व असार पदार्थ फेकून देतात) तद्वत सर्व स्त्री-पपुरूषांनी (वा पति-पत्नीनी) करणे उचित आहे. ॥83॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The learned wife, with her knowledge, like birth, adorns her beautiful, well built body, and prepares meals, the removers of physical discomforts, available from all sides, ready at hand, the givers of delight like nectar. Her thoughtful husband receives pure ideas from his father and mother free from untruth.

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    Meaning

    As a wise and intelligent expert designs and weaves a beautiful cloth on the loom with the shuttle, so does Sarasvati, enlightened woman of wisdom and science, with her mind and knowledge, create the charming, special and excellent form and structure of yajna with the help of friendly Ashvinis, specialists of health and healing: yajna (visible symbol of Indra, lord of honour, power and prosperity) in which the pure and vitalizing essence of soma joy distilled from all elements of nature ripples like the vital spirit (blood) of the body.

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    Translation

    The divine Doctress, with the help of the twin-healers, weaves with intent care his beautiful and rich form, pleasing to look at as if with a shuttle and Joom. From the food-juice the blood is made and the steady ferment mixes it with the foaming spirit. (1)

    Notes

    Tasaram, shuttle. Vema, loom. Parisrutā, secreted juices. Rohitam, लोहितं, blood. Nagnahuh, a concoction of many herbs and medicines.

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    बंगाली (1)

    विषय

    বিদ্বদ্বদিতরৈরাচরণীয়মিত্যাহ ॥
    বিদ্বান্দিগের সমান অন্যান্যকে আচরণ করা উচিত এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ– (সরস্বতী) উত্তম বিজ্ঞানযুক্ত স্ত্রী (মনসা) বিজ্ঞান দ্বারা (বেম) উৎপত্তির (ন) সমান যে (পেশলম্) উত্তম অঙ্গ দ্বারা যুক্ত (দর্শতম্) দেখিবার যোগ্য (বপুঃ) শরীর বা জলকে তথা (তসরম্) দুঃখকে ক্ষয়কারী (রোহিতম্) প্রকটিত (পরিস্রুতা) সব দিক দিয়া প্রাপ্ত (রসম্) আনন্দ প্রদাতা রসের (ন) সমান (বসু) দ্রব্যকে (বয়তি) নির্মাণ করে যে (নাসত্যাভ্যাম্) অসত্য ব্যবহার রহিত মাতা-পিতা উভয়ের হইতে (নগ্নহুঃ) শুদ্ধ গ্রহণকারী (ধীরঃ) ধ্যানবান্ তোমার পতি সেই দুই জনকে আমরা প্রাপ্ত হই ॥ ৮৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ– যেমন বিদ্বান্ অধ্যাপক ও উপদেশক সার বস্তুগুলির গ্রহণ করে সেইরূপই সব স্ত্রী পুরুষকে গ্রহণ করা উচিত ॥ ৮৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সর॑স্বতী॒ মন॑সা পেশ॒লং বসু॒ নাস॑ত্যাভ্যাং বয়তি দর্শ॒তং বপুঃ॑ ।
    রসং॑ পরি॒স্রুতা॒ ন রোহি॑তং ন॒গ্নহু॒র্ধীর॒স্তস॑রং॒ ন বেম॑ ॥ ৮৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সরস্বতীত্যস্য শঙ্খ ঋষিঃ । সরস্বতী দেবতা । ভুরিক্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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