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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 81
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    तद॑स्य रू॒पम॒मृत॒ꣳ शची॑भिस्ति॒स्रो द॑धु॒र्दे॒वताः॑ सꣳररा॒णाः। लोमा॑नि॒ शष्पै॑र्बहु॒धा न तोक्म॑भि॒स्त्वग॑स्य मा॒सम॑भव॒न्न ला॒जाः॥८१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत्। अ॒स्य॒। रू॒पम्। अ॒मृत॑म्। शची॑भिः। ति॒स्रः। द॒धुः॒। दे॒वताः॑। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽररा॒णाः। लोमा॑नि। शष्पैः॑। ब॒हु॒धा। न। तोक्म॑भि॒रिति॒ तोक्म॑ऽभिः। त्वक्। अ॒स्य॒। मा॒सम्। अ॒भ॒व॒त्। न। ला॒जाः ॥८१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदस्य रूपममृतँ शचीभिस्तस्रो दधुर्देवताः सँरराणाः । लोमानि शष्पैर्बहुधा न तोक्मभिस्त्वगस्य माँसमभवन्न लाजाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। अस्य। रूपम्। अमृतम्। शचीभिः। तिस्रः। दधुः। देवताः। सꣳरराणा इति सम्ऽरराणाः। लोमानि। शष्पैः। बहुधा। न। तोक्मभिरिति तोक्मऽभिः। त्वक्। अस्य। मासम्। अभवत्। न। लाजाः॥८१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 81
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    के यज्ञमर्हन्तीत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यं संरराणास्तिस्रो देवताः शचीभिर्बहुधा यं यज्ञं शष्पैः सह लोमानि च दधुस्तदस्यामृतं रूपं यूयं विजानीत। अयं तोक्मभिर्नानुष्ठेयः, अस्य मध्ये त्वङ्मांसं लाजा वा हविर्नाभवदिति च वित्त॥८१॥

    पदार्थः

    (तत्) पूर्वोक्तं सत्यादिकम् (अस्य) यज्ञस्य (रूपम्) स्वरूपम् (अमृतम्) नाशरहितम् (शचीभिः) प्रज्ञाभिः कर्मभिर्वा (तिस्रः) अध्यापकाऽध्येतृपरीक्षकाः (दधुः) दध्युः (देवताः) देवा विद्वांसः (संरराणाः) सम्यग्दातारः (लोमानि) रोमाणि (शष्पैः) दीर्घैर्लोमभिः (बहुधा) बहुप्रकारैः (न) (तोक्मभिः) बालकैः (त्वक्) (अस्य) (मांसम्) (अभवत्) भवेत् (न) निषेधार्थे (लाजाः)॥८१॥

    भावार्थः

    ये दीर्घसमयावधिजटिला ब्रह्मचारिणो वा पूर्णविद्या जितेन्द्रिया भद्रा जनाः सन्ति, त एव यजधातोरर्थं ज्ञातुमर्हन्ति, न बाला अविद्वांसो वा। स होमाख्यो यज्ञो यत्र मांसक्षाराम्लतिक्तगुणादिरहितम्, किन्तु सुगन्धिपुष्टमिष्टं रोगनाशकादिगुणसहितं हविः स्यात्, तदेव होतव्यं च स्यात्॥८१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कौन पुरुष यज्ञ करने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (संरराणाः) अच्छे प्रकार देने (तिस्रः) पढ़ाने, पढ़ने और परीक्षा करनेहारे तीन (देवताः) विद्वान् लोग (शचीभिः) उत्तम प्रज्ञा और कर्मों के साथ (बहुधा) बहुत प्रकारों से जिस यज्ञ को और (शष्पैः) दीर्घ लोमों के साथ (लोमानि) लोमों को (दधुः) धारण करें और (तत्) उस (अस्य) इस यज्ञ के (अमृतम्) नाशरहित (रूपम्) रूप को तुम लोग जानो, यह (तोक्मभिः) बालकों से (न) नहीं अनुष्ठान करने योग्य और (अस्य) इस के मध्य (त्वक्) त्वचा (मांसम्) मांस और (लाजाः) भुंजा हुआ सूखा अन्न आदि होम करने योग्य (न, अभवत्) नहीं होता, इस को भी तुम जानो॥८१॥

    भावार्थ

    जो बहुत काल पर्य्यन्त डाढ़ी-मूंछ धारणपूर्वक ब्रह्मचारी अथवा पूर्ण विद्या वाले जितेन्द्रिय भद्रजन हैं, वे ही यज धातु के अर्थ को जानने योग्य अर्थात् यज्ञ करने योग्य होते हैं, अन्य बालबुद्धि अविद्वान् नहीं हो सकते। वह हवनरूप ऐसा है कि जिसमें मांस, क्षार, खट्टे से भिन्न पदार्थ वा तीखा आदि गुणरहित; सुगन्धित पुष्ट, मिष्ट तथा रोगनाशकादि गुणों के सहित हों, वही हवन करने योग्य होवे॥८१॥

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    विषय

    दो अश्वी और सरस्वती तीनों का राष्ट्ररक्षा और पोषण के साधनों का उत्पादन ।

    भावार्थ

    ( तिस्रः देवताः ) तीनों विजयशाली देवगण, ( शचीभिः ) अपनी-अपनी शक्तियों से (अस्य) इस राष्ट्र-प्रजा- पालक राजा को (अमृत्तम् ) अविनाशी, अखण्ड ( रूपम् ) रूप (संरराणाः) अच्छी प्रकार प्रदान करते हुए ( दधुः ) धारण-पोषण करते हैं । वे (बहुधा) बहुत प्रकारों के (शष्पैः) शष्पों अर्थात् शत्रुओं को मारने और पालन करने वाले साधन अस्त्र-शस्त्रों से (अस्य लोमानि संदधुः) इस राष्ट्रमय प्रजापति के रोमों को निर्माण करते हैं। जैसे पशु के शरीर पर बाल रक्षा करते हैं और सेहे के शरीर के रोमरूप कांटे ही उसकी रक्षा करते हैं उसी प्रकार शस्त्रास्त्र भी राजा और राज्य शरीर की रक्षा करते हैं । (न) और ( तोक्मभिः) शत्रु को व्यथा देने और मारने वाले सेनाओं के बल एवं महास्त्रों द्वारा वे विद्वान् (अस्य) इस राष्ट्रमय प्रजापति के ( त्वक् ) शरीर पर लगी त्वचा के समान आवरण, परकोट की रचना करते हैं । बड़ी-बड़ी सेनाएं और पंरकोट आदि राष्ट्र की त्वचा के समान हैं। (न) और (लाजा:) शोभाजनक, कान्तिमान् विभूतियां ही (मांसम् ) इसका 'मांस' अर्थात् मन को लुभाने वाले पदार्थ के समान ( अभवन् ) हैं । उस समृद्धि से ही राष्ट्र हृष्ट-पुष्ट रहता है, दूसरे उसी को देखकर लुभा जाते हैं, उनका मन हरने से ही समृद्धियां 'मांस' के समान हैं । 'न' - अध्याय समाप्तिपर्यन्तं नकराः सर्वे चकारार्थाः इति महीधरः । नकारः समुच्चये आ अध्यायपरिसमाप्तेरिति उवटः । यज्ञपक्षे –'न' निषेधार्थे इति दयानन्दः | स्वाध्याय यज्ञक्षप में - शिष्य गुरु और परीक्षक, परस्पर ज्ञान का आदान-प्रदान करते हुए इसके अमृतरूप को धारण करते हैं । और लम्बे-लम्बे बालों के सहित लोमों को धारण करते हैं अर्थात् जटिल होकर व्रत से रहते हैं । (न तोक्मभिः) बालकों से यह यज्ञ नहीं होता । और ( अस्य त्वग् मांसम् लाजा न अभवन् ) उसके हवि में त्वचा, मांस, खीलें आदि हवि नहीं होतीं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अश्व्यादयः । अश्विनौ सविता सरस्वती वरुणश्च देवताः। भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः॥

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    विषय

    यव, चावल, लाजा

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार वरुण देवता, अर्थात् ईर्ष्या, द्वेष आदि का नितान्त अभाव मनुष्य को स्वास्थ्य का सौन्दर्य उत्तम रूप प्राप्त कराता है। (अस्य) = इसका (तत् रूपम्) = वह स्वास्थ्यजनित सौन्दर्य (शचीभिः) = कर्मजनित शक्तियों व प्रज्ञानों से (अमृतम्) = न नष्ट होनेवाला होता है। ईर्ष्या से ऊपर उठकर यह प्रज्ञापूर्वक कार्यों में लगा रहता है। यह कर्मों में लगे रहना उसमें किसी प्रकार के हीनभाव उत्पन्न नहीं होने देता। २. (तिस्रः देवता:) = इसके जीवन में द्युलोक का सूर्य, अन्तरिक्ष का चन्द्र तथा पृथिवी की अग्नि, अध्यात्म दृष्टिकोण से मस्तिष्क का ज्ञान, हृदयान्तरिक्ष का प्रसाद [प्रसन्नता] तथा शरीर की उष्णता शक्ति की गर्मी-ये तीनों देव (संरराणा) = सम्यक् रमण करते हुए (संदधुः) = उत्तम रूप की स्थापना करते हैं। ३. इसके जीवन में (शष्पैः) = घास भोजन से (लोमानि अभवन्) = शरीर में लोम उत्पन्न होते हैं। 'ओषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा - ऐतरेय' । ४. (न) = और [अध्यायसमाप्तिपर्यन्तं सर्वे नकाराश्चकारार्थाः] (बहुधा) = बहुत करके (तोक्मभिः) = [विशिष्टयवै:-म० ] विशिष्ट रूप से उत्पन्न किये गये जौ से (अस्य त्वक्) = इसकी त्वचा का निर्माण होता है। जौ को उत्तम खाद्य व जल से उत्पन्न किया जाए और हमारे भोजनों में इन्हीं जौ का प्राचुर्य हो तो हमारी त्वचा ठीक रहेगी। ५. (न) = और (लाजा:) = भुने हुए चावल (अस्य मांसम् अभवन्) = इसके मांस हो गये। इसकी मांस-रचना चावलों का परिणाम है। संक्षेप में इनका भोजन शष्प, तोक्म व लाजा हैं। इनसे इसके लोम, त्वचा व मांस ठीक होते हैं, और वह स्वस्थ बना रहता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रज्ञापूर्वक कर्मों से हमारे शरीर की कान्ति बनी रहती है। २. हमारे जीवन में सूर्य के समान ज्ञानज्योति हो, चन्द्र के समान मानस आह्लाद हो तथा अग्नि के समान शरीर में शक्ति की उष्णता हो। ३. शष्प, तोक्म व लाजा प्रयोग से हमारे लोम, त्वचा व मांस ठीक बने रहें ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जे पुष्कळ वर्षे दाढी मिशा धारण करून ब्रह्मचर्य पालन करतात, जितेंद्रिय व सज्जन असतात. तेच यज धातूचा अर्थ जाणू शकतात. अर्थात् यज्ञ करण्यास पात्र असतात. इतर बालबुद्धी अविद्वान माणसे जाणू शकत नाहीत. यज्ञात मांस, क्षारयुक्त व आंबट किंवा तिखट इत्यादी पदार्थ न घालता सुगंधित, पुष्टिकारक, मधुर व रोगनाशक गुणांनीयुक्त पदार्थच घालण्यायोग्य असतात.

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    विषय

    कोणती माणसें यज्ञ करण्यास पात्र आहेत, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (संराराणाः) भरपूर देणारे (तिस्रः) (देवताः) अध्यापन करणारे, अध्ययन करणारे आणि परीक्षा घेणारे हे असे जे तीन विद्वान आहेत, ते (शचीभिः) उत्तम प्रज्ञा आणि कर्मांसह (नीट विचार करून आणि व्यवस्थित आयोजन करून) (बहुधा) अनेक प्रकारचे यज्ञ करतात त्यावेळी ते (शष्पैः) लांब लांब केस आणि (लोमानि) शरीरावर रोम (दधुः) धारण करावेत (याज्ञिक जनांनी केस, दाढी आदी वाढविलेले उत्तम) (तत्‌) त्या (अस्य) या यज्ञाच्या (अमृतम्‌) नाशरहित (रूपम्‌) स्वरूप तुम्ही ओळखा (यज्ञाचे महत्व जाणून घ्या) या यज्ञ (तोक्मभिः) बालकांद्वारे (न) आयोजित वा संपन्न करणे शक्य नाही. (उपनयन न झालेल्या व लहान मुलांनी यज्ञ करूं नये, कारण त्याचे विधि-नियम ते पाळू शकत नाहीत) तसेच (अस्य) या यज्ञात (त्वक्‌) कोणत्याही प्रकारची त्वचा (मांसम्‌) मांस, अथवा (लाजाः) भाजलेले कोरडे धान्य (लाह्या आदी) होम करण्यास योग्य (न, अभवत्‌) नाही. (यज्ञात मांस, त्वचा आदींची आहुती देऊ नये, तसेच चामड्याच्या वस्तू वापरू नये) हे नियम हे मनुष्यांनो, तुम्ही जाणून घ्या. ॥81॥

    भावार्थ

    भावार्थ - दाढी-मिशा (व डोक्यावरील लांब केस) ज्यांनी ठेवले आहेत, ते ब्रह्मचारी अथवा पूर्ण विद्यावान जितेंद्रिय भद्रजनच (‘यज्ञ` शब्दातील) ‘यज्‌) धातूचा खरा अर्थ जाणू शकतात व तेच यज्ञ करण्याचे अधिकारी आहेत, अन्य बालक वा बालबुद्धी असलेले (अशिक्षित जन) यज्ञाचा खरा अर्थ जाणू शकत नाहीत. तसेच या हवनरूप यज्ञात मांस, क्षार, आंबट असे पदार्थ अथवा तिखट आदी गुणरहित पदार्थ टाकू नये. सुगंधियुक्त, पुष्टिकारक, मिष्ट आणि रोगनाशकादी गुणांनी युक्त पदार्थ, हवनात आहुती देण्यासाठी योग्य पदार्थ आहेत, हे सर्वांनी जाणून घ्यावे. ॥81॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Teacher, pupil and examiner, these three divine forces, impart and receive education. With wisdom and deed, they with long hair, perform the sacrifice in diverse ways. We should understand the eternal nature of this sacrifice. Illiterate youths are not entitled to perform sacrifice (yajna). Hide, meat, parched grain should not be used in the yajna for oblation.

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    Meaning

    Three divine powers, loving and generous, variously enact the immortal form and structure of this yajna with their acts and imagination: They structure the body hair, as if, with blades of grass, and the body cover (skin) with shoots and ears of corn; and roasted grains become, as if, the substance (flesh) of the body.

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    Translation

    This immortal form of the aspirant is given to him by the three deities working in full accord, with their actions. Hair is made with grass-shoots, skin with germinated barley, and roasted grain becomes his flesh. (1)

    Notes

    Tisro devatäh, three deities; two Aśvins and Sarasvati. Sometimes Sarasvati has been depicted as a divine Doctress in the Yajurveda. Sacibhih, कर्मभिः, प्रज्ञाभिः, with skilful procedures. Sainrarāṇā, working in full accord as a team. Saspa, विरूढव्रीहि:, germinated wheat. Or, grass-shoots. Tokma, विरूढयवा:, germinated barley.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কে য়জ্ঞমর্হন্তীত্যাহ ॥
    কোন্ পুরুষ যজ্ঞ করিবার যোগ্য, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (সংররাণাঃ) উত্তম প্রকার দাতা (তিস্রঃ) পঠন, পাঠন এবং পরীক্ষাকারী তিন (দেবতাঃ) বিদ্বান্গণ (শচীভিঃ) উত্তম প্রজ্ঞা ও কর্ম সহ (বহুধা) বহু প্রকারে যে যজ্ঞকে এবং (শষ্পৈঃ) দীর্ঘ লোম সহ (লোমানি) লোমের (দধুঃ) ধারণ করিবে এবং (তৎ) সেই (অস্য) এই যজ্ঞের (অমৃতম্) নাশরহিত (রূপম্) রূপকে তোমরা অবগত আছো এই (তোক্মভিঃ) বালকদের দ্বারা (ন) অনুষ্ঠান করিবার যোগ্য নয় এবং (অস্য) ইহার মধ্য (ত্বক্) ত্বক্ (মাংসম্) মাংস এবং (লাজাঃ) ভৃষ্ট শুষ্ক অন্নাদি হোম করিবার যোগ্য (ন, অভবৎ) হয় না-ইহাকে তোমরা জানো ॥ ৮১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–যাহারা বহু কাল পর্য্যন্ত শ্মশ্রু, গুম্ফ ধারণপূর্বক ব্রহ্মচারী অথবা পূর্ণ বিদ্যা যুক্ত জিতেন্দ্রিয় ভদ্রজন তাহারাই ‘যজ্’ ধাতুর অর্থকে জানিবার যোগ্য অর্থাৎ যজ্ঞ করিবার যোগ্য হইয়া থাকে অন্য বাল্যবুদ্ধি অবিদ্বান্ হইতে পারে না । সেই হবনরূপ এমন যে, যাহাতে মাংস, ক্ষার, টক হইতে ভিন্ন পদার্থ বা তীক্ষ্নাদি গুণরহিত সুগন্ধিত পুষ্ট তথা রোগনাশকাদি গুণগুলির সহিত হয় তাহাই হবন করিবার যোগ্য হউক ॥ ৮১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    তদ॑স্য রূ॒পম॒মৃত॒ꣳ শচী॑ভিস্তি॒স্রো দ॑ধু॒র্দে॒বতাঃ॑ সꣳররা॒ণাঃ ।
    লোমা॑নি॒ শষ্পৈ॑র্বহু॒ধা ন তোক্ম॑ভি॒স্ত্বগ॑স্য মা॒ᳬंসম॑ভব॒ন্ন লা॒জাঃ ॥ ৮১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    তদিত্যস্য শঙ্খ ঋষিঃ । বরুণো দেবতা । ভুরিক্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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